नौगढ़ के राजा सुरेंद्र सिंह के लड़के वीरेंद्र सिंह की शादी विजयगढ़ के महाराज जयसिंह की लड़की चंद्रकांता के साथ हो गई ।
बारात वाले दिन तेज सिंह की आखिरी दिल्लगी के सबब चुनार के महाराजा शिवदत्त को मसालची बनना पड़ा।
बहुत तो की यह लड़ाई हुई कि महाराज शिवदत्त का दिल अभी तक साफ नहीं हुआ है इसीलिए अब उनको कैद ही में रखना मुनासिब है।
लेकिन महाराज सुरेंद्र सिंह ने कहा कि "महाराज शिवदत्त को हम छोड़ चुके हैं, इस वक्त जो तेज सिंह से उनकी लड़ाई है वह हमारे साथ में रखने का सवाल नहीं हो सकता । अगर अब भी यह हमारे साथ दुश्मनी रखेंगे तो क्या हर्ज है, यह भी मर्द है और हम भी मर्द है, देखा जाएगा।"
शादी के थोड़े ही दिन बाद बड़ी धूमधाम के साथ कुंवर वीरेंद्र सिंह चुनार की गद्दी पर बैठ गए और कुंवार छोड़ राजा कहलाने लगे।
सुरेंद्रसिंह अपने लड़के को आंखों के सामने से हटाना नहीं चाहते थे, लाचार नौगढ़ की गति फतेह सिंह के सुपुर्द कर वह भी चुनार ही रहने लगे,
मगर राज्य का काम बिल्कुल वीरेंद्र सिंह के जिम्मे था, जहां कभी-कभी राय दे देते थे। शादी के 2 बरस बाद चंद्रकांता को लड़का पैदा हुआ।
इसके 3 बरस बाद चंद्रकांता ने दूसरे लड़के का मुख्य देखा।
चंद्रकांता के बड़े लड़के का नाम इंद्रजीतसिंह, छोटे का नाम आनंदसिंह, चपला के लड़के का नाम भैरवसिंह और चंपा के लड़के का नाम तारासिंह रखा गया।
जब यह चारों लड़के कुछ पढ़े और बातचीत करने लायक हुए, तब इनके लिखने पढ़ने का इंतजाम किया गया और राजा सुरेंद्र सिंह ने इन चारों लड़कों को जीत सिंह की 4 कीर्ति और हिफाजत में छोड़ दिया।
चारों लड़के बड़े हुए। इंद्रजीतसिंह, भैरवसिंह और तारा सिंह की उम्र 18 वर्ष की और आनंद सिंह की उम्र 15 वर्ष की।
इंद्रजीत सिंह को शिकार का बहुत शौक था, जहां तक बन पड़ता हुए तो शिकार खेला करते। 1 दिन किसी बना रखी ने हाजिर होकर बयान दिया कि इन दिनों फलाने जंगल की शोभा बहुत बड़ी-चढ़ी है और शिकार के जानवर भी इतने आए हुए हैं कि अगर वहां महीना भर भटक कर शिकार खेला जाए, तो भी ना घटे और कोई दिन खाली ना जाए।
यह सुन दोनों भाई बहुत खुश हुए और शिकार खेलने की इजाजत मांगी, दादा महाराज सुरेंद्र सिंह ने शिकार की इजाजत दी और हुकुम दिया कि शिकार का हमें इन दोनों के लिए 500 की फौज इनके साथ रहे ।
शिकार खेलने का हुक्म पा इंद्रजीत सिंह और अनंत सिंह बहुत खुश हुए और अपने दोनों एरो भैरव सिंह और तारा सिंह को साथ ले मैं 500 के चुनार से रवाना हुए। चुनार से पांच स्कोर्स दक्षिण एक घने और भयानक जंगल में पहुंचकर उन्होंने डेरा डाला। दूसरे दिन सवेरे बनरखो ने हाजिर होकर उन से अर्ज किया कि इस जंगल में शेर तो है, लेकिन रात हो जाने से हम लोग उन्हें अपनी आंखों से ना देख सके, अगर आज के दिन शिकार ना खेला जाए तो हम लोग देखकर उनका पता दे सकेंगे। इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह घोड़ों पर सवार हो अपने दोनों पैरों को साथ ले घूमने और दिल बहलाने के लिए डेरे से बाहर निकले और टहलते हुए दूर तक चले गए।
यह लोग धीरे-धीरे टहलते और बातें करते जा रहे थे कि बाई तरफ से शेर के गरजने की आवाज आई, जिसे सुनते ही चारों अटक गए। घूमकर उस तरफ देखने लगे, जिधर से आवाज आई थी। लगभग 200 गज की दूरी पर एक साधु शेर पर सवार जाता दिखाई पड़ा, जिसकी लंबी लंबी और धनी चटाई पीछे की तरफ लटक रही थी - एक हाथ में त्रिशूल, दूसरे हाथ में शंख लिए हुए था।
इस की सवारी का शेर बहुत बड़ा था और उसके गर्दन के बाल जमीन तक लटक रहे थे इसके 8-10 हाथ पीछे और एक शेर और जा रहा था, जिसकी पीठ पर आदमी के बदले बोझ लता हुआ नजर आया, शायद यह बहुत असबाब उन्हें शेर सवार महात्मा का हो।
साधु की सूरत सांप मालूम ना पड़ी, तो भी उसे देख इन चारों को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और कई तरह की बातें सोचने लगे।
चारों आदमी आगे चलकर बाबा जी के सामने गए।
बाबा ने कहा कि राजकुमार, मैं खुद तुम लोगों के पास आने वाला था, क्योंकि तुमने शेर का शिकार करने के लिए इस जंगल में में डेरा डाला है। मैं गिरनार जा रहा हूं, घूमता फिरता इस जंगल में आ पहुंचा।
यह जंगल अच्छा लगा, इसीलिए दो-तीन दिन तक यहां बिताऊगा। मेरे साथ सवारी और असबाब लादने के कई शेर है, धोखे में मेरे किसी शेर को मत मारना, नहीं तो मुश्किल होगी। तुम सुरेंद्रसिंह के लड़के हो, इसीलिए तुम्हें पहले ही से समझा रहा हूं, जिससे किसी तरह का दुख ना हो।
बाबा जी ने शंख बजाया। शंख की आवाज जंगल में गूंज गई और हर तरफ से राहत की आवाज आने लगी । थोड़ी ही देर में दौड़ते हुए पांच शेर और आ पहुंचे।
शेरों ने बड़ा उधम मचाया। इंद्रजीत सिंह बघेरा को देख गर्जने लगे, मगर बाबा जी के डालते ही सब सिर नीचा कर भेड़-बकरी की तरह खड़े हो गए। बाबा जी शेर से नीचे उतर पड़े और जितने शेर उस जगह आए थे, वे सब बाबा जी के चारों तरफ घूमने लगे।
यह चारों आदमी थोड़ी देर तक वहां और पकने के बाद बाबा जी से विदा हो कि मैं में आ गए।
सवेरा होते ही इंद्रजीत अकेले बाबा जी से मिलने गए।
बाबाजी शेरों के बीच धूनी रामायण बैठे थे।
दो शेर उनके चारों तरफ घूम-घूमकर पहरा दे रहे थे।
इंद्रजीतसिंह ने पहुंचकर प्रणाम किया और बाबा जी ने आशीर्वाद देकर बैठने के लिए कहा। इंद्रजीत सिंह ने देखा कल की बजाय, आज दो शेर और ज्यादा दिखे।
थोड़ी देर चुप रहने के बाद बातचीत होने लगी। बाबा ने कहा कि बेचारे वीरेंद्रसिंह ने भी बड़ा कष्ट पाया। खैर जो हो दुनिया में उनका नाम रह जाएगा। इस हजार वर्ष के अंदर कोई ऐसा राजा नहीं हुआ, जिसने तिलिस्म तोड़ा हो।
एक और तिलिस्म है, उसको जो तोड़े वह भी तारीफ के लायक है। इंद्रजीत कहता है उसके पिताजी तो कहते हैं कि वह क्लिप उसी के हाथ से टूटेगा। लेकिन उसकी चाबी का पता नहीं।बाबा बताता है कि उस तिलिस्म की चाबी कोई और नहीं बल्कि वह बाबा ही है। बाबा के पिता ने उसे कृष्ण की चाबी का दरोगा मुकर्रर किया ।
फिर बाबा कहता है कि अब कृष्ण की चाबी इंद्रजीत के हवाले कर दूंगा, क्योंकि वह तिलिस्म इंद्रजीत के नाम पर ही बांधा गया है और शिवाय उसके कोई दूसरा उसका मालिक नहीं बन सकता।
लेकिन बाबा साथ ही उसे यह भी बताता है कि कृष्ण को तोड़ने के लिए उसे भाई की मदद भी लेनी होगी।
इस बात पर इंद्रजीत कहता है कि उसे यह मंजूर नहीं ।
वह भाई की मदद नहीं लेगा और ना ही भाई को यस आने देगा भले प्लीज ना टूटे। बाबा जी उसी समय उठ खड़े हुए।
अपनी गठड़ी- मुठड़ी बांध एक शेर पर लाद दिया तथा दूसरे पर आप सवार हो गया। इसके बाद एक शेर की तरफ देख कर कहा, "बच्चा गंगाराम, यहां तो आओ।" वहां से तुरंत उनके पास आया। बाबा जी ने इंद्रजीत से कहा, "तुम इस पर सवार हो लो।"
इंद्रजीत सिंह कूदकर सवार हो गया और बाबा जी के साथ साथ दक्षिण का रास्ता लिया। बाबा जी के साथी शेर भी कोई आगे, कोई पीछे, कोई बाय, कोई दाहिने हो बाबा जी के साथ जाने लगे।
सब शेर तो पीछे रह गए मगर दो शेर जिन पर बाबा जी और इंद्रजीत सवार थे, आगे निकल गए। दोपहर तक यह दोनों चलते गए।
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