लेखिका: शैलजा कौशल
रात में अपने ऑफ़िस की खिड़की से शहर को सलाम करने के बाद मैंने अपना बैग उठाया और चल पड़ा. अक्सर देर रात इन सड़कों पर बाशिंदे तो नही मिलते लेकिन सरपट भागती शैवरले की खिड़की से मुझे अपना रेडियो बजता सुन जाता है. मुझे पसंद है कि कोई जानता नहीं मुझे वरना साइन करना और सेल्फ़ी खिंचवाना भी अब उबाऊ लगता है. मन करता है कि अजनबी बन जाऊं और इन सरपट चलती गाड़ियों में एक गाड़ी मेरी भी हो और मैं भी रेडियो का लुत्फ़ उठाता हुआ अपनी वाइफ़ के साथ आइसक्रीम हाथ में पकड़े स्टेयरिंग चलाऊं. वाइफ़ से याद आया, कल जया का बर्थडे है. बल्कि सच तो यह है कि मुझे कभी भूला ही नहीं कि कल उसका बर्थडे है. तो ख़ास क्या करना चाहिए? हर साल की तरह रेडियो पर उसका फ़ेवरेट सॉन्ग चलवाऊं या फिर उसके नाम की किसी लड़की को फ़ोन लाइन पर लेकर जया से बात करने की अपनी चाहत सच करने का धोख़ा अपने आप को दूं. जया, मेरी वाइफ़ नहीं है. लेकिन वो मेरे अब तक कुंवारे होने का कारण ज़रूर है. क्या कहूं, कोई मिली नहीं उसके जैसी या कहूं कि ढूंढ़ा ही नहीं.
Paanch Ke Sikke
लड़कियों के झुंड में घिरे होने के बावजूद जया का ख़्याल दिमाग़ से जाता ही नहीं बल्कि और हावी हो जाता है. इनमें से कोई भी चाहेगी कि मैं उससे फ़ोन पर बात करूं, मिलूं और कुछ तो कहेंगी कि शादी भी कर लूं. लेकिन फिर जया का क्या होगा जिसके बारे में मुझे अब कुछ पता नहीं. एक दोस्त ने बताया था कि मेरठ के उस कॉलेज से एमए इकोनॉमिक्स के बाद उसकी कोई ख़बर मिल नहीं पाई. या कहूं कि किसी ने ख़बर नहीं ली. मैंने जाकर उसके परिवार से पूछा नहीं कि वो कहां है. क्यूं नहीं पूछा? इसलिए नहीं पूछा क्योंकि पटेल समोसे वाले की दूकान पर चाय पीते वक़्त उसका एक ही सवाल होता था, तुम मुझसे शादी कब करोगे? तुम नौकरी ढूंढ़कर मुझसे ब्याह कर लो न. देखो अब तो हमें पांच साल से भी ज़्यादा का समय हो चुका है मिलते-जुलते. मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह सकती. उसके बैचैन सवाल, आंखों में घर बसाने के चमकीले सपने, मेरे नाम से अपना जोड़ने की लालसा, मुझे उलझन में डाल देते. यह दीवानापन नहीं तो और क्या है?
मैं एक महान नौकरी की तलाश में चंडीगढ़ आ गया था. मुझे रेडियो जॉकी का काम भी मिल गया. डिग्री थी, मेरठ में काम करने का एक्सपीरियंस, आवाज़ का जादू और दोस्त बना लेने का पुराना टैलेंट. जया को मैं बिना मिले, बिना बताए मेरठ से निकला था. और आज तक चंडीगढ़ नहीं पहुंचा. ऐसा लगता है मानो मैं सफ़र में हूं. मेरे मन में आज तीन साल बाद भी उसी जया की तस्वीर है, जो कॉटन के पिंक, क्रीम, पीच, ग्रे सूट पहनती थी और साथ मैचिंग ईयरिंग. हंसते-हंसते चाय सूट पर गिरा लेती और फिर उसको कभी पर्स से रुमाल नहीं मिलता. समोसे से ज़्यादा चटनी, चाय में पत्ती तेज़. घर जाते समय दो समोसे मम्मी-पापा के लिए पैक. साधारण ही तो थी. उसको छोड़कर आगे निकल आना इतना कठिन होगा, इस बात का अहसास न था मुझे. इतने समय तक मिलते रहने और अपनी ज़िंदगी से जुड़ी हर बात शेयर करने के बाद, उसका दिल तोड़कर आ जाने का ग़म मुझे निगलने लगा है अब. पता ही नहीं चल पाया कि मेरठ से वे लोग गए कहां? उसके जीवन में भी कोई आया होगा? क्या उसे किसी से प्यार हुआ? मैं यह सोचना ही नहीं चाहता. लगता है मानो यह एक ईगो इश्यू बन गया है मेरे लिए. मन मानता नहीं कि अब किसी और की हो गई होगी वह. रात बहुत हो चुकी है क्यों न घर के पास वाले नाथू ढाबे से रोटी पैक करवा लूं. ख़्याल अच्छा है. यही तो एक ढाबा है जहां रात-दिन किसी भी समय खाने की मेरी समस्या हल हो जाती है. नाथू से राजमा चावल पैक करवा कर मैं घर पहुंचा.
एक कमरे के इस फ़्लैट में बैचलर जीवन खुले मन से जी रहा हूं. मम्मी-पापा मेरठ में हैं. दो-तीन दिन छोड़कर मुझे शादी कर लेने की गुहार वे लगाते ही रहते हैं. यादों का असर है या शादी के बंधन को घोंट, अब तो मैं कभी-कभी ऐसे भी सोच लेता हूं. लगता है कि अगर मुझे शादी करनी होती तो जया आज मेरे साथ होती. अब तो उमर निकलने के बाद मम्मी-पापा की पसंद की किसी लड़की से ब्याह करना होगा. माने कौन-सी उमर. प्यार करने की और अपनी वाइफ़ के साथ घूमने और रोमांस करने की उम्र. उसके साथ अपनी जवानी जीने की उमर. वो उमर जो मैंने दोस्तों के नाम पर लड़कियों के साथ मिलते-जुलते और गर्ल्स कॉलेजेस में शो करते हुए निकाल दी. 33 का हो गया हूं, लेकिन ब्याह करने का मन नहीं है. कहीं मैं दोगलेपन के दलदल में तो नहीं फंस गया? मेरठ जैसे छोटे से शहर में मेरे साथ कॉलेज से लौटते वक़्त ठेले पर कुल्फी खाती जया की खिलखिलाहट दिमाग़ में गूंजने लगती है. कितनी बार कुल्फी के पैसे देने के लिए मुझसे झगड़ पड़ती थी. ‘...आज मैं पैसे दूंगी.’ आज भी जब मैं दोस्तों के साथ कुल्फी खाता हूं तो जया का वो छोटा-सा ब्राउन पर्स याद आ जाता है. भान तो भरी रहती थी उसके पर्स में. ख़ासकर पांच के सिक्के. छोटी-छोटी चीज़ों के लिए. कभी पापड़, कभी कुल्फी, पानी पुरी, जूस, गोला, चाट न जाने क्या-क्या छोटे-छोटे शौक़ थे उसके. यहां इस शहर में कभी पांच रुपए की ज़रूरत ही कहां पड़ती है. हां, कभी-कभी उसको याद करने के लिए जेब ज़रूर टटोल लेता हूं. और जब पांच का सिक्का नहीं मिलता तो क्रेडिट कार्ड भर देने वाली अपनी तनख़्वाह भी कम लगने लगती है. सोचता हूं वो सिक्के आज भी खोटे नहीं हुए और यह कार्ड आज भी प्लास्टिक मनी ही है, इस कार्ड में सिक्के की खनक और सिक्का मिल जाने पर होने वाली ख़ुशी का अहसास ढूंढ़ता हूं. एक सिक्के में कितनी सारी ख़ुशी सुनाई पड़ती थी. जया के साथ बिताए पल का भला मैं क्या मोल करूंगा. क्या जया के पर्स में आज भी सिक्के होते होंगे? माने उसके पास एक बेहतर जीवन जीने के पैसे होंगे या नहीं यह ख़्याल अक्सर मन को उदास कर देता था.
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मैंने मेरठ से निकलकर अपना भविष्य बना लिया, क्या उसकी शादी किसी ऐसे शख़्स से हुई होगी जो उसे ख़ुशी देता हो और प्यार से रखा हो? क्या जया को मिल पाई होगी वो जॉब जहां उसे उसकी मेहनत की सही शाबाशी मिलती हो? मुझे याद है एक बार बहुत ज़िद कर बैठी थी वो कि मेरे घर चलो और पापा-मम्मी को अपनी शक्ल दिखाकर आओ. मुझे पता था वह शादी के लिए बुनियाद तैयार करना चाहती थी. उसकी ज़िद पर मुझे जाना पड़ा था उसके घर. जाते वक़्त उसने बाज़ार से समोसे पैक करवाए. घर पहुंचे तो उसके मम्मी-पापा हमारा इंतज़ार कर रहे थे. वो शाम मेरे जीवन की सबसे उदास शाम थी. उस दिन मैं अपने आप से हार गया था. जया की आंखें उम्मीद से टिमटिमा रही थीं. दिनभर की थकान भूलकर कैसे वह इधर से उधर भाग रही थी. कभी चाय, कभी बिस्किट और फिर समोसे भी तो पैक करवाए थे उसने. उसके पापा ने मुझसे हाल-चाल के बाद जैसे ही बातचीत शुरू की, मैं कुछ बेचैन-सा हो गया. एक बेकार फ़ोन कॉल को मम्मी का अर्जेंट कॉल बताकर मैं वहां से जाने को जैसे ही उठा तो जया ने मेरी प्लेट की ओर देखा, बड़ी उदासी से. ‘तुम कुछ भी नहीं खाओगे?’ जैसे पूछ रही हो, तुम मुझसे शादी नहीं करोगे. ‘नहीं, अभी तो जाना होगा.’ बाज़ार में जया के साथ खाए समोसों की महक मेरे नथुने में घुस गई थी. बहुत बुरा लगा था अपने बारे में. जया से फिर कभी नहीं मिलने की कसम मन में खाकर मैं चला गया था वहां से. क्या वो मुझे भुला पाई होगी? उसे तो आज भी रिक्शा में बैठकर बाज़ार घूमना याद होगा.
ख़ैर, सोचते-सोचते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. सुबह उठा तो मोबाइल पर दफ़्तर जल्दी पहुंचने के मैसेज थे. अब तनख़्वाह लेता हूं तो ऑफ़िस तो जाना ही होगा. अपने रेडियो शो की तैयारी भी करनी है. जया के ख़्याल से बाहर आने के लिए मैंने तय किया कि मैं आज पूरे मन से अपना काम मन लगा कर करूंगा और शो के दौरान किसी भी ख़्याल को मन पर हावी नहीं होने दूंगा. ऑफ़िस पहुंचा तो मेरे शो की प्रोड्यूसर शिखा मुझे देर से आने पर कोसने लगी. ‘अरे भई, ट्रैफ़िक में अटक गया था. बोलो क्या है आज का शेड्यूल?’ मैंने पूछा तो वह तपाक से शुरू हो गई. ‘आज हमें शहर के कॉलेजेस में चल रही एडमिशन पर बात करनी है. गेस्ट के तौर पर डीएवी कॉलेज की प्रिंसिपल इन्वाइटेड हैं.’ मेरे मन में शो के लास्ट सेग्मेंट का ख़्याल घूम रहा था, जब मैं जया के नाम का एक गाना चला पाऊंगा. बस शो के अंत में एक गाना. शो की डीटेल समझाकर शिखा अपने काम में लग गई. मैंने अपने म्यूज़िक शेड्यूलर रमन से पूछा,‘अरे रमन, अपने पास वो मेरा साया फ़िल्म का टाइटल सांग है क्या?’ थोड़ा खोजने पर रमन को गाना मिल गया और उसने मेरे लिए वह गाना शो के अंत में सेट करके दे दिया.
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तीन बजे के अपने शो पर कॉलेजेस में एडमिशन्स पर बात करने और प्रिंसिपल से एक्स्पर्ट व्यूज़ डिस्कस करने के बाद आख़िरकार मेरी बारी आ ही गई अपनी बात कहने की. लास्ट सेग्मेंट में मुझे अक्सर रिक्वेस्ट कॉल्स आते हैं.
‘हैलो, जी कहिए.’
‘हैलो, गुड ईवनिंग क्या आप सिटी रेडियो से बोल रहे हैं?’
‘जी हां, कहिए.’
‘ओह ओके, जी मुझे एक रिक्वेस्ट सॉन्ग प्ले करवाना है अपनी वाइफ़ के लिए. आज उनका बर्थडे है. और हमें मिले आज पांच साल भी हो गए हैं.’ सुनकर न जाने क्यूं दिल धक्क-सा रह गया!
‘ओके’ मैंने अपने आपको संभालते हुए पूछा,‘क्या नाम है आपकी वाइफ़ का? मैं आपका गाना ज़रूर प्ले करूंगा.’
‘उनका नाम जया कुलश्रेष्ठ है और मेरा नाम अमित कुलश्रेष्ठ. हम अक्सर चंडीगढ़ आते रहते हैं. तो प्लीज़ आप मेरा साया फ़िल्म का टाइटल सॉन्ग प्ले कर दीजिए, मेरी वाइफ़ को यह गाना बहुत पसंद है.’
मैंने रुंधे गले से कहा,‘जी ज़रूर. जया जी को मेरी ओर से हैपी बर्थडे.’
मैंने लता मंगेशकर का गाया गीत प्ले किया और शो को ख़त्म करके अपना बैग लेकर निकल पड़ा.
जेब टटोली तो पांच का सिक्का हाथ आ ही गया, क्यूं न आज मैं चंडीगढ़ पहुंच ही जाऊं. कब से मेरठ के रास्ते में ही अटका हूं. मेरी भर्राई आवाज़ टैक्सी नहीं बुला पाई और अब मैं एक नए सफ़र के अपने पहले पड़ाव को शुरू करने जा रहा था.
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