मधुशाला
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊंगा प्याला
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला
पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला
सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला
मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर,
उनकी हाला
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला
यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूंगा पी हाला
पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला
क्रूर,
कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के
डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला
निशा निमन्त्रण
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
हो जाए न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को,
भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
आकुल अंतर
कैसे आंसू नयन संभाले।
मेरी हर आशा पर पानी,
रोना दुर्बलता, नादानी,
उमड़े दिल के आगे पलकें, कैसे बांध बना लें।
कैसे आंसू नयन संभालें।
समझा था जिसने मुझको सब,
समझाने को वह न रही अब,
समझाते मुझको हैं मुझको कुछ न समझने वाले।
कैसे आंसू नयन संभाले।
मन में था जीवन में आते
वे, जो दुर्बलता दुलराते,
मिले मुझे दुर्बलताओं से लाभ उठाने वाले।
कैसे आंसू नयन संभाले।
मिलन यामिनी
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
दिवस में सबके लिए बस एक जग है
रात में हर एक की दुनिया अलग है,
कल्पना करने लगी अब राह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
भूमि के उर तप्त करता चंद्र शीतल
व्योम की छाती जुड़ाती रश्मि कोमल,
किंतु भरतीं भवनाएँ दाह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
कुछ अँधेरा, कुछ उजाला, क्या समा है!
कुछ करो, इस चाँदनी में सब क्षमा है;
किंतु बैठा मैं सँजोए आह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
चाँद निखरा, चंद्रिका निखरी हुई है,
भूमि से आकाश तक बिखरी हुई है,
काश मैं भी यों बिखर सकता भूवन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
प्रणय पत्रिका
एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ
जड़ जग के उपहार सभी हैं
धार आँसुओं की बिन वाणी
शब्द नहीं कह पाते तुमसे
मेरे मन की मर्म कहानी
उर की आग, राग ही केवल
कंठस्थल में लेकर चलता
एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ
जान-समझ मैं तुमको लूँगा
यह मेरा अभिमान कभी था
अब अनुभव यह बतलाता है
मैं कितना नादान कभी था
योग्य कभी स्वर मेरा होगा
विवश उसे तुम दुहराओगे?
बहुत यही है अगर तुम्हारे अधरों से परिचित हो जाऊँ
एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ