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रितिका


रितिका 

 रविवार की रात सोने से पहले माँ से कहा," कल सुबह जल्दी निकालना है टिकेट विंडो पर भीड़ ज्यादा होती है, ट्रेन छूटने का डर रहता है ।" क्योंकि मुझे अलार्म पर भरोसा नही था । माँ ,"लेकिन बेटा तू तो जल्दी ही निकलता है और समय पर पहुच भी जाता है ...कितने बजे उठा दो तुझे , ट्रैन ५:४० की ही है न ??" हां माँ ५:४० की ट्रैन है .३ बजे उठा देना । कह तो दिया उठा देना लेकिन जब सोयेगे तब न उठेगे, तीन तो ऐसे ही बज जायेगा आज..ये अलार्म भी बेवफा है; सुनाई देगा नहीं अगर सो गए । बीते सोमवार की यात्रा का एहसास ही ऐसा है जो आज एक सप्ताह बाद भी नींद उड़ा ले गया। कल फिर सोमवार है और मुझे फिर से लखनऊ - कानपुर मेमो ट्रैन पकड़नी है, हर सोमवार की सुबह ऐसी ही होती है । कानपुर में बर्रा 8 में मेरा छोटा सा अल्पकालिक किराए पर लिया हुआ घोसला है । प्रत्येक शनिवार की रात को, शनिदेव की कृपा से लौह पथ गामिनी के माध्यम से मैं अपने घर आता हूँ और सोमवार सुबह फिर से अपने कार्य स्थल लोहिया मशीन लिमिटेड में अपने दिमाग का दही करके और अपने शरीर को गन्ने की की तरह निचोड़ कर वापस अपने घोसलें में पहुच जाते हैं। वाह! क्‍या नींद आती है, १०:३० के सोये ६ बजे उठते है और तैयार होकर निकल जाते, नाश्ता वगैरह सब बहार ही होता। दिन का भोजन कंपनी की कैंटीन में और रात का भोजन अपने घोसलें पर .कभी कभी बहार और कभी तो ऐसे की रात निकल जाती पारले जी के साथ | खयाली पुलाओ बनाते बनाते सो गए सुबह का अलार्म कुकड़ कू कर के सो गया, पानी की कुछ बूँदे मेरे चेहरे पर और आँखों पर पड़ी, अचानक आंख खोली ...माँ को जाते देखा वो जल्दी में है, टिफिन बना रही हैं, सोमवार को कैंटीन में नहीं खाना पड़ता । जल्दी से उठकर बन ठन कर चिल्लाने लगा माँ जल्दी करो देर हो रही हैं दिमाग में तो बस यही था की स्टेशन ५ बजे ही पहुँच जाऊ, कहीं वो नजरो से बच कर न चली जाए।



घर से निकल कर टैम्पू पकड़कर स्टेशन के लिए निकलता हूँ ,स्टेशन जो कि ११.२ किमी दूर था पहुंचने में २५ मिनट लगे और इतने समय में न जाने कितनी बार टेम्पू वाले पर चिललाया कि जल्दी चलो जल्दी चलो । 5 बजकर 6 मिनट पर मैं स्टेशन पहुच गया ..लखनऊ जंक्शन,लोग अक्सर इसे छोटी लाइन छोटी लाइन कहते है। ट्रेन आकर प्लेटफॉर्म नं ६ पर लग चुकी थी , मैं एंट्रेस्स गेट पर खड़ा एक एक शख्स को निहार रहा था। लोगो के देखते देखते ५बजकर 38 मिनट हो गए , ट्रैन जाने के तैयार थी कुछ लोग ट्रैन भाग कर पकड़ रहे थे। मैने भी उसी भीड़ की तरह ट्रेन पकड़ी..फिर बैठने के लिए जगह तलासने लगे। मुझे बस वही छहररा बदन, चमकता चेहरा जो आँखों को चकाचौन्ध कर दे...और उसके लंबे लंबे खुले हुए हवा मे लहराते बाल। उफ्फ पूरी भीड़ में बीते सोमवार को स्टेशन पर बस पल भर की झलक दिमाग में घर कर गयी...जाने कहां गायब हो गयी फिर ?


एकाएक मेरी सांसे थम सी गयी ...हां हां ये वही है जिसको मै स्टेशन पर खोज रहा था । जीवन में पहली बार किसी के लिए इतना व्याकुल हुआ था। वो विंडो सीट पर बैठी बाहर के दृश्य देख रही थी...हवा की वजह से उसके बालों ने आधे चेहरे को ढक रखा था। उसके पास बैठी आंटी जब हरौनी स्टेशन पर उतर जाती है तब मैं अपने कलेजे की धक धक को कंट्रोल करते हुए उसके पास वाली सीट पर बैठ गया। बीते सोमवार उसे 100 मीटर की दूरी से देखा था...आज यह दूरी 20 सेंटीमीटर रह गयी, यह सोच ही रहा था कि खटाक की आवाज आयी ...उसने खिड़की बंद कर दी और सामने देखने लगी। मैं बात करना चाह रहा था किन्तु हॉठ सिले हुये थे और शब्द बिखरे पड़े थे, कंठ मूक था और हृदय की धक धक अभी भी चालू थी। कुछ समय के समय के बाद अपनी ख़ामोशी को तोड़ते हुये आखिर बस इतना पूंछा "जी कानपुर जा रही है" ? और फिर दूसरी तरफ देखने लगे...कुछ सरसराहट की आवाज आयी ...वो मेरी ओर मुड़ कर देख रही थी, इतनी सी बात से मैं घबरा गया और इयरफोन कान में लगा के गाना सुनने लगा -" लो मान लिया हमने है प्यार नही तुमको..." फिर लगा मुझे दूसरा झटका...उसने लेफ्ट साइड की इयरफोन मेरे कान से निकाल कर अपने कान में लगा लिया। मै उसकी तरफ हल्की मुस्कान के साथ देखता हूँ ...मेरे चेहरे के हावभाव देख कर बोली -* ज्यादा मुस्कराओ नही वरना दूसरी साइड की भी निकाल लूंगी। वैसे मै ज्यादा गाने नही सुनती लेकिन जब कोई सुन रहा होता है तब मेरा भी मन करता सुनने को। तुम मुझे ऐसे क्यों देख रहे हो और बैठे भी कैसे बिलकुल मूरत बन कर ...हिल डुल भी नही रहे, देखने में तो अच्छे खासे हो इतना गंभीर क्यूँ रहते हो । हां कानपुर जा रही हूं इस ट्रेन और मेरा दोनों का सफर वही तक है "।


हम जिसको आम समझ रहे थे वह अचानक इमली जैसी बात करने लगी ...हमे एक शब्द बोलने में इतना डर और घबराहट लग रहा था और ये जब से बोलना शुरू की तो चुप ही नही हो रही जैसे सावन की बारिश होती है वैसे ही पहले धीरे धीरे फिर तेज़ तेज़ बरस रहे थे उसके शब्द और हम भीगते चले गए उसी बारिश में। जब बारिश थम गयी मतलब की जब वह चुप हुयी तो देखा क्या शुक्लागंज आ गया था । माँ गंगा के आँचल में बाल सूर्य के दर्शन हुए और मैने एक रुपये के सिक्के में अमूल्य कामनाये मन में विचार कर के सिक्‍का माँ गंगा क़ो अर्पित कर दिया । मैं सुबह के सूरज को गेट पर खड़े होकर निहार रहा था की तभी आवाज आयी ..." आप कहा जाओगे ?" मैंने उत्तर दिया बस कानपुर तक, मैं यही जॉब कर रहा हूँ | आप क्या कर रही है आजकल ?मैं तो अभी पढ़ रही हूँ , कानपुर यूनिवर्सिटी से बी.कॉम कर रही हूँ ।

इतना बात चीत के बाद अब मैं थीड़ा कम्फ़रटेबल महसूस कर रहा था। हिम्मत कर के पूछा कि आप किस समय स्टेशन पे आयी थी ?..क्यों ज़नाब आने जाने का टाइम क्यों पूछा जा रहा है ? कही मेरा पीछा करने का इरादा तो नही है ? वैसे मेरा कोई टाइम फिक्स नही है, हां ट्रेन के छूटने से पहले आ जाती हूँ | आस पास खड़े लोग मुझे घूर रहे थे आश्चर्य के भाव के साथ...बहुत अजीब लग रहा था मैं जैसे ही बोलना शुरू करता लोगो की आँखे मेरे ऊपर टिक जाती है और फिर मैं चुप होकर उसकी बाते सुनता रहता। ट्रैन कानपुर सेंट्रल स्टेशन पर प्लेटफॉर्म नंबर 9 पर पहुँच जाती है । पहुचते ही लोगो के चढ़ने और उतरने में अफरा तफरी का माहौल ...और इसी बीच वह चमकता चेहरा खो गया कहीं भीड़ में .बाहर तक देखा किन्तु नही दिखी। आज बात हुयी कुछ तो दिल को सुकून था और उम्मीद थी कि फिर इसी सफर में मुलाकात जरूर होगी। बस यही विचार करते करते स्टेशन से बाहर आकर नौबस्ता के लिए टैम्पू पकड़ कर चला जाता हु।

कंपनी पहुँच कर अपने काम में मन लगाने की कोशिश करता हूँ किन्तु मासूम सी दिखने वाली लड़की के चंचल और उर्जावान व्यवहार का असर ऐसा था कि कुछ और ना सोचने को विवश कर रहा था। किसी तरह मन में मचलते तूफ़ान को को शांत किया, ऐसा पहली बार हुआ था जब मैं खयालो में रहने लगा था। धीरे धीरे गुजर गया एक सप्ताह का समय ख़यालों और सपनो की दुनिया में। कल फिर सोमवार है और चाहत बस इतनी की वो दो घंटे जन्नत के मिल जाएँ । फिर दोहराई वही बीते सोमवार की दिनचर्या और पहुंच गए स्टेशन 5 बजकर 4 मिनट पर, फिर वही एंट्रैंस गेट से आते लोगो में उसको देख पाने की नाकाम कोशिश। आज न ही प्लेटफॉर्म पर दिखी और न ही ट्रैन में ही नजर आयी। लेकिन दिल आज न जाने क्यों कह रहा था की मुलाक़ात ज़रूर होगी, आज मायूसी नही उम्मीद का भाव था। ट्रैन में कुछ देर तलास करने के बाद मैं एक सीट पर बैठ जाता हूँ। एक अजीब बात लग रही थी मेरे बगल वाली सीट खाली थी लेकिन कोई बैठ नहीं रहा था। अमीौसी स्टेशन पर जब ट्रैन को देर तक सिग्नल नहीं मिला मैं बाहर चला गया था फिर जब वापस आया तो देखा क्या वह मेरी सीट पर बैठी थी, साथ वाली सीट खाली थी, उसने मुझे बैठने के लिए कहा ।

मैं उसके पास बैठ गया, ट्रैन पुनः चल दी। बैठते ही उसने मोबाइल और इयरफोन माँगा और एक अपने कान में दूसरा मेंरे कान में लगा दिया। उसके कंधे मेंरे कन्धों से स्पर्श कर रहे थे, वह गाना सुनते हुए गुनगुना रही थी, उसके बाल हवा से उड़ कर मेंरे चेहरे को ढक रहे थे। बहुत साहस के बाद मैंने उसके रेशमी बालों को समेट पीछे करना चाहा तभी मेरा हाथ उसके गाल को स्पर्श कर गया। यह बिलकुल अलग एहसास था, उसके कोमल और नाजुक दिखने वाली गालों का स्पर्श बर्फ सा कठोर व ठंडा था। उसने पूछा "क्या कर रहे है जनाब" ? ..मैंने कहा "कुछ नही, वैसे मेरा नाम अमन धवन है, आप मुझे नाम से बुला सकती है। आप का क्या नाम है" ? उसने अत्यंत तेजी के साथ उत्तर दिया * मेरा नाम रितिका भादौरिया है, मेरा जन्म कानपुर में हुआ,मेरे पापा योगेश्वर प्रताप भदौरिया मुम्बई में एक कंपनी के मालिक है। माँ बचपन में गुजर गयी, फिलहाल मैं अपने मामा जी के साथ लखनऊ में रहती हूँ। कॉलेज डेली जाना अच्छा लगता है इसलिये इसलिए सफर होता रहता है। बी कॉम करने के बाद मैं भी मुम्बई चली जाऊगी।

मैं मन में सोच रहा था की दिखने में एकदम शर्मीली लड़की इतनी बेबाकी से उत्तर दे गयी, सिर्फ नाम पूछने पर सब कुछ बता दिया शायद इसलिये की मैं फिर कोई सवाल न पूंछ लूँ। मैंने फिर उससे मोबाइल न॑ माँगा तो कहने लगी कि " नही मिल सकता, मैं मोबाइल फ़ोन नही रखती और होता तो तुम्हारे फ़ोन से सांग्स सुनने की जरुरत नहीं थी "। कैसी लड़की है ये लोग चाँद पर प्लॉट की बुकिंग करवा रहे है और ये मोबाइल नही रखती। अब मेरी उसके बारे में और अधिक जानने की इच्छा जाग्रत होने लगी, मैंने फिर पूंछा " तुम्हारे कॉलेज फ्रेंड नहीं दिखते साथ में ? तुम अकेले ही क्‍यों दिखती हो, कोई तो स्टूडेंट साथ आता जाता होगा" ?

रितिका:- " देखिये मुझे बात करना अच्छा लगता लेकिन ज्यादा फ्रेंड्स बनाना नही पसंद और बाकी सब स्टूडेंट्स कैसे जाते कब जाते ये सब नही पता मुझे। अब जरा आप सवाल पूंछना बंद करेगे" ? उसके ऐसा कहने के बाद मैं मौन हो जाता हूँ, वह कुछ देर बाद झपकी लेने लगती है। शायद मधुर संगीत और ठंडी हवा ने उसे निंद्रासन में ला दिया। थीड़ी देर बाद उसका सर मेरे कंधे पर आ गिरा, उसका पूरा शरीर अब मेरे शरीर को आधार बना चुका था। उसका बदन मुझे दूसरी तरफ झुकाता जा रहा था। अब मैं कमर से 45 डिग्री कोण पर स्थिर हो गया था। ट्रैन में लोगों की खूंखार आंखे घूर रही थीं। एकदम कड़क बदन मानो कोई एथलीट हो। इतनी चुलबुली की मानो 5-6 साल की बच्ची हो, फिर भी दोस्ती करना नही पसन्द, इसकी दोस्ती कौन नही चाहता , घमंडी तो बिलकुल नही है फिर कया बात होगी ? मन में विचारो का मेला चल रहा था उस मेले में खोये हुए उन्नाव पहुंच गए। कमर का हाल बताये या दिल का दोनों चरम पर थे, कमर दर्द से और दिल का समझ लो बस। वहां शोरगुल से उसकी नींद टूटी आँखे खोली ही कि लगी बरसने मुझ पर " कमाल करते है आप भी, कोई ऐसे सोने देता है क्या ? मुझे जगा भी तो सकते थे “? उसकी उस वक़्त की एक एक बात मुझे अमृत की बूँद लग रही थी और मैं भीगता गया उन बूंदों मे। मन से एक आवाज़ आयी कि यही है तेरी तलाश, तेरी हमराही और इसको अपना लो, अर्धागनी बना लो।

मैंने अंतर्मन से आयी इस आवाज़ कौ स्वीकार कर लिया। अगला पूरा दिन बस इसी विचार में बीत गया कि कैसे इज़हार करे ? कैसे समझायेंगे हम अपने मन की बात उसको ? उसके सामने आते ही घिष्गी बंध जाती मेरी, और गुस्सा आ गया उसे तब क्‍या करेगे ? बहुत सोचने के बाद जब कुछ नही समझ आया तो गए गूगल बाबा की शरण में। सर्च किया ' हाउ ट्‌ प्रोपोज़ अ गर्ल इफ आई एम शाय ? गूगल बाबा के ग्रन्थ से इज़हार ए इश्क़ के 8 चेष्टर पढ़े फिर उनमे से दो का चुनाव किया और उन दो में अक्कड़ बक्कड़ करके एक कौ चुना। फिर चार रात जाग कर इस इस प्रकार अभ्यास किया मानो किसी बॉलीवुड फिल्म में काम करने का मौका मिला हो। दिल का तो पता ही नही था, कहीं उड़ रहा था सातवें आसमान में। मेरा बदला हुआ खुशनुमा मिज़ाज़ देख कर ज्यादतर लोग सन्न से रह गए, उन्हें यकीन नही हो रहा था की यह पत्थर की मूरत जो बस काम काम किये रहता है वो भी मुस्कराता हुआ नजर आएगा। इसी बीच मेरा प्रोजेक्ट अनुमानित समय से पहले ही पूरा हो गया।

शुक्रवार को जब मैं कंपनी जाता हूँ, तब देखता हूं सब लोग मुझे बार बार देख रहे है। कुछ कहना चाह रहे है शायद, कहीं किसी ने मुझे रितिका के साथ तो नहीं देख लिया ? यह सोचते हुए अपने केबिन में जाता जाता हूं । मेरी टेबल पर दो लिफाफे पड़े हुए थे, मैं उन्हें खोल कर देखने वाला ही था कि बॉस का फोन आता है :- अमन, तुम्हे नेक्स्ट प्रोजेक्ट के लिए आर एंड डी टीम के साथ दो दिन बाद जमशेदपुर जाना है। इतना सुनते ही मानो बादल फट गए हो, मुह से बस एस सर निकला | अब यह कैसी घड़ी आ गयी ? मिलन से पहले जुदाई ? गायब हो गयी कुछ देर पहले वाली मुस्कराहट, फिर पत्थर से बनने लगे। व्याकुलता वश पूरी रात सो नहीं पाए,सुबह होते ही यूनिवर्सिटी के लिए निकलता हूं यही सोच कर कि यहाँ मिलन जरूर होगा, जाने से पहले थोड़ी बात हो जाये बस। यहाँ आया तो आप से मुलाकात हो गयी। अब आप बताएं प्रतीक सर कहां है हमारी रितिका ?

[ प्रतीक रितिका का क्लासमेट और फ्रेंड है, रितिका के बार में प्रतीक सब कुछ जानता था ...अमन जब रितिका के बारे में यूनिवर्सिटी में पूछता है तो उसे प्रतीक से मिलने को कहा जाता है ...प्रतिक अमन से पूछता है कैसे जानते हो रितिका को तो अमन ये कहानी सुनाता है...अब प्रतीक की बारी है कि वह रितिका के बारे में बताये...प्रतिक अमन से कंफर्म करने के लिए उसे रितिका की फोटो दिखता है.. ]

प्रतीक :- "क्या यही वो रितिका है" ??

अमन :- "हां हां यही है" ।

प्रतीक :- "अमन लंच टाइम है अभी, आओ कुछ खा ले चलकर फिर बात करते है"।

प्रतीक और अमन कुछ ही देर में अच्छे दोस्त बन जाते है, इसकी वजह रितिका ही है ...एक जो रितिका के बारे में सब कुछ जानता है और दूसरा जो उसके बारे में सब कुछ जानना चाहता है। लंच करते समय अमन प्रतीक से कुछ पूंछना चाहता है किन्तु प्रतीक उसे इशारे से मना कर देता है और बाद में पूछने को कहता है। लंच के बाद प्रतीक व अमन यूनिवर्सिटी में कुछ देर घूमते है फिर वापस दोनों प्रतीक के रूम पर चले जाते है।

प्रतीक :- "अमन रितिका से मिलना चाहोगे पहले या फिर उसके बारे में जानना चाहोगे" ?

अमन :- “मतलब आप रितिका से मिलवा भी सकते है" ?

प्रतीक :- "हां बिलकुल ...लेकिन यह तुम्हे सोचना है कि पहले मिलना है या उसके बारे में जानने के बाद"।

अमन :- “ प्रतीक जी कैसी बात कर रहे है..उसे मिलने के लिए ही तो यहां तक आया हूँ ..और अब ये पता चल जाने के बाद कि आप मिलवा सकते है, कैसे चैन आएगा मझे ? पहले मिलन करवा दीजिये फिर तीनो मिलकर बाते करेगे।

प्रतीक :- “अमन अब तक जो तुमने बताया उस बात पर मुझे अभी तक यकीन नही हो रहा। मैंने तुम्हारा विश्वास कर के बात सुनी, और अगर तुम सही हो तो तुम्हें मेरी बात पर यकीन करना मुश्किल होगा लेकिन तुम्हे यकीन करना होगा।

प्रतीक इतना कहने के बाद अपनी कुर्सी से उठ कर अलमारी खोलता है ...एक छोटा बैग निकलता है ..मेज पर रखकर बैग खोलकर लाल कपड़े में बंधी हुयी अस्थियां निकाल कर रखता है और कहता है.."अमन मिल लो यही हमारी रितिका है "। इसके बाद प्रतीक के छुपे हुए अश्क छलक पड़ते है। अमन के लिये यकीन करना नामुमकिन सा था, अमन के चेहरे पर आश्चर्य और करुणा के भाव एक साथ वार करते है। उसको जैसे कोई सदमा लग गया हो...एक टक्‍क बैग को देखता रहता है। अमन फिर पूछता है क्‍या ये सच है ? प्रतीक हाँ मे सर हिलाता है। अमन और प्रतीक लिपट कर रोने लगते है..अत्यंत करुणामय माहौल बन जाता है। रो कर अपने दिल को हल्का करने के बाद प्रतीक अमन को समझाता है।

प्रतीक अब अमन को रितिका के बारे में बताता है.....


रितिका कानपुर देहात के मूसानगर के जमींदार योगेश्वर प्रताप की अभागी पुत्री थी। योगेश्वर प्रताप जो अब मुम्बई में एक प्लास्टिक कंपनी के मालिक है...करोड़ो रूपये का टर्नओवर है, पहले यहीं खेती किया करते थे। 5 वर्ष की उम्र में शादी और 20 की उम्र में दों बेटियां हो गयी। इस साल सूखा और मौसम की अनियमतता की वजह से पैदावार बिलकुल न हुयी। योगेश्वर हर अनहोनी की वजह अपनी पत्नी मालती को ही मानता था , बात बात पर उससे कहता रहता कि कैसी बला आ गयी...जब से पैर पड़े है घर में तब से सब मुसीबतें चली आ रहीं है। ऊपर से ये दो-दो बेटियां, पता नही कहाँ से मेरे गले लग गयीं। कोई बेटा होता तो कुछ हाथ बंटाता आगे चलकर ...इनका क्या, बस खायेगी और जब जायेगी तो सब बाँध कर ले जायेगी ससुराल। योगेश्वर अपनी पत्नी और दोनो बेटियों को अत्यंत ही हीन भावना से देखता था। जब उसकी बड़ी बेटी को पीलिया हो गया तो ..इलाज़ नहीं करवाया और न करने दिया..वह चल बसी। यह देख कर मालती रितिका ( छोटी बेटी ) को लेकर अपने मायके लखनऊ आ गयी। यहाँ से योगेश्वर और मालती के बीच की दूरियां बढ़ने लगती है। मालती जहां अपनी बड़ी बेटी की मौत का जिम्मेदार योगेश्वर को मानती थी और नाराज रहती वही दूसरी योगेश्वर को उससे अलग होने का बहाना मिल गया । उसने मालती को कभी वापस आने को नहीं कहा ।

दो साल के अंदर ही योगेश्वर ने अपनी 90 लाख में सारी जमीन बेंच कर मुम्बई चला गया, इस काम में मदद की उसके नए ससुर ..जी हाँ नए ससुर ने । योगेश्वर ने दूसरी शादी भी कर ली और मुम्बई में नया घर बना लिया, अपने ससुर की मदद से मुम्बई में एक कम्पनी की शुरुआत करता है। मालती को शादी की बात पुरे एक साल बाद बतायी। मालती जो बस इसी चीज का इंतज़ार कर रही थी कि उसे वापस बुलाया जाये और वह जाये...उसके कान में यह बात जाते ही मानो उसके कान के परदे फट गए हों, सर चकराया और वह गिर पड़ी जमीन पर । रितिका अभी 8 वर्ष की हुई थी, माँ की हालत देख व्याकुल हो उठी | घुट घुट कर उसकी माँ ने दो वर्ष और गुजारे और फिर गुजर गयी। रितिका अनाथ सी हो गयी, न पिता का प्रेम मिला न माँ का साथ रहा...सब कुछ देख लिया उसने 40 वर्ष की उम्र में | पता नही कहाँ से शक्ति आयी उसे यह सब सहन करने की । अब रितिका को यहीं अपने ननिहाल में रहना था।

इसके बाद एक दिन रितिका को उसके पापा का फोन आया, उन्होंने रितिका से माफ़ी मांगी। एक बेटी ज कब से पिता के प्यार से महरूम रही हो, जो कब पापा के के प्यार पर नफ़रत का रंग चढ़ा कर अब तक घुट घुट के जी रही हो , जिसको पता ही नहीं एक बाप का प्यार क्‍या होता है । जिसने अब तक सारा जीवन बस जिम्मेदारियों से लड़ते हुए बिताया हो, जिसने अपनी माँ को कभी हंसते हुए न देखा हो । जिसके मन में हमेशा से पापा के वापस आने और उसको साथ ले जाने की बात रही हो। आखिर कैसे न माफ़ करती अपने पापा को । अपने पिता के अत्याचार और गैर जिम्मेदाराना रवैया, माँ के साथ धोखेबाजी ...सब कुछ भूल गयी एक झटके में सिर्फ कुछ मीठे बोल सुन कर। वह करती भी क्या ? मां को खो चुकी थी और माँ बाप के प्यार की कीमत की कहाँ होती है। रितिका सूखते तालाब की उस मछली की तरह थी जो बस बादलो की गर्जना सुन कर बारिश की कल्पना कर लेती। रितिका को योगेश्वर ने आस्वस्त कर दिया को वो उसको साथ ले जायेगा। मालती ने अपने मायके में मिली 5 एकड़ जमीन को अंतिम समय में रितिका के नाम कर दिया था। योगेश्वर को कही से इस बात का पता चल गया, तभी से उसने गिरगिट की तरह अपना रंग बदल लिया। रितिका इस बात को समझ नहीं पायी, उसे लगा कि उसके पापा उसे बी कॉम कम्पलीट होते ही साथ ले जायेगे । योगेश्वर ने रितिका से 5 एकड़ जमीन यह कह कर अपने नाम करवा लिया कि उसे जल्दी अपने साथ ले जाएगा, साथ रखेगा और एक पिता का फर्ज निभाएगा, और कंपनी भी उसी के नाम कर देगा । भावुक रितिका को बस इतना समझ आ रहा था कि वह फिर से अपने पापा के साथ रहेगी, उसे अब तो पापा का प्यार मिलेगा।

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