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शेष अग्निपरीक्षा


लेखिका: मंगला रामचंद्रन



इधर कुछ दिनों से वैदेही इसी तरह से महसूस कर रही है. रमण से मुलाक़ात के बाद वो कुछ असहज-सा महसूस करने लगी है. मन में असमंजस की स्थिति बनी रहती. कारण तो वो स्वयं भी ठीक से समझ नहीं पा रही है. पर यह स्थिति पिछले चंद महीनों में अधिक स्पष्ट रूप से महसूस कर पा रही है. रमण से वो पिछले डेढ़ वर्षों से परिचित हुई है. न तो कोई पहली नज़र का प्यार वाला मामला था ना ही ऑफ़िस में साथ काम करते हुए रोज़ मिलते रहने का सिलसिला. वैदेही को तो ये भी याद नहीं आ रहा है कि पहली बार रमण उसे कहां और किन हालात में मिला. अब सोचने पर लगता है कि शायद वो स्वाभाविक या प्राकृतिक रूप से निर्मित वातावरण नहीं था. तभी तो उसकी याद दिल में बसी हुई नहीं है.

छब्बीस वर्षीय वैदेही दो-ढाई वर्षों से इस बैंक में काम कर रही है. युवा, ज़हीन और आत्मविश्वास से लबालब भरी हुई अपना काम इतनी मुस्तैदी से करती कि आसपास के लोगों में भी सकारात्मक ऊर्जा पैदा हो जाती. उसके घर में माता-पिता, भाई-भाभी उसके व्यवहार और कार्यकुशलता से प्रभावित थे और वो उन सबकी लाड़ली ही थी. एक बड़ी दीदी जो वैदेही से पंद्रह साल बड़ी थी शादीशुदा थीं. दीदी उसे बिल्कुल अपनी बेटी की तरह प्यार करती थीं. उनकी स्वयं की बेटी और वैदेही में मात्र चार वर्ष का अंतर था. वन्दिता उसे मौसी तो बुलाती ही नहीं थी. कभी-कभी दीदी का संबोधन भले ही दे दे. वन्दिता और वैदेही की ख़ुब घुट-घुट कर बातें हुआ करती थीं. जब मिलते, तब तो दोनों चिड़ियों की तरह चहचहाती रहतीं. जब दूर होतीं तो फ़ोन पर बतियाती रहतीं. वन्दिता के लिए तो वैदेही रोल मॉडल थी. मैं दीदी की तरह ये करूंगी, वो करूंगी, ऐसी बनूंगी आदि उसके सूत्र वाक्य होने लगे (जब से समझ आई). अपनी इस मनोदशा में वैदेही को लग रहा था कि दीदी और वन्दिता से बातें करना ज़रूरी है. दीदी अनुभवी और धीर गंभीर स्वभाव की हैं. किसी भी समस्या या बात के हर पहलू को अच्छे से जांचे बिना कुछ नहीं कहतीं या करतीं. वहीं वन्दिता वर्तमान पीढ़ी की प्रगतिशील विचारों की ऐसी युवती है, जिसकी उम्र विवाह योग्य हो रही है.


जब रमण की ओर से वैदेही का हाथ मांगा गया तो वैदेही के घर सबको बड़प्पन का एहसास हुआ. अपनी बेटी के गुणों की क़द्र करनेवालों का एहसान भी महसूस हुआ. जब आया हुआ रिश्ता स्वीकार लिया गया तो फिर रमण को वैदेही से मुलाक़ात करने का भी मानों लाइसेन्स मिल गया. पहली बार जब वो वैदेही के ऑफ़िस पहुंचा तो वैदेही का ध्यान उसकी ओर गया ही नहीं! वो भी क़तार में लग गया और जब उसकी बारी आई तो बजाय बैंक से लेन देन या कोई और काम बताने के बोला- ‘‘मैं रमण कुमार, आपसे....’ वैदेही को याद भी नहीं आता कि आगे उसने वाक्य किस तरह पूरा किया. रमण कुमार सुनते ही वो हड़बड़ा गई और समझ नहीं पाई कि क्या जवाब दिया जाए. फिर स्वयं को सहेज कर सहजता लाने का प्रयत्न करती हुई बोली,‘‘जी बताइए क्या काम है आपको?’’

‘‘बस, आपसे मिलने आया हूं, आप काम ख़त्म कर लें तो कहीं चल कर बैठते और बातें करते हैं.’’ रमण कुमार की विश्वास भरी आवाज़ ने वैदेही को प्रभावित नहीं किया ऐसा नहीं कहा जा सकता. उसके पीछे क़तार में खड़े लोगों में कोई ग़लत धारणा न बन जाए इस डर से वैदेही अतिरिक्त सहज और दोस्ताना अंदाज़ में बोली,‘‘आप कुछ इंतज़ार कर लीजिए, मैं काम ख़त्म करके जल्दी ही आती हूं.’’

वैदेही को रमण का साथ भला लग रहा था. पर इसके बाद उसका जब-तब असमय बैंक में मिलने आना ठीक नहीं लगता था. बैंक के सहयोगी भी धीरे-धीरे ताने मारने लगे. ऊपर के अफ़सरों का भी थोड़ा डर लगा रहता था. आख़िर वैदेही ने रमण को एक दिन कह ही दिया कि बैंक में काम के समय वो नहीं आए तो अच्छा रहेगा. बैंक छूटने के बाद दोनों मिलते तो वैदेही को घर पहुंचते हुए रात हो जाती. हालांकि घर के सभी सदस्य प्रगतिशील विचारों के थे, पर रोज़ ही रात को देर हो जाने से वैदेही कुछ अटपटा महसूस करने लगी. आख़िर उसने रमण को साफ़-साफ़ कह दिया,‘‘हम दोनों सप्ताह में किसी एक दिन शनिवार या रविवार को मिलें वो भी दिन ही दिन में, जिससे शाम तक मैं घर पहुंच जाऊं. छुट्टी के दिन मुझे ख़ुद के भी कुछ काम निपटाने पड़ते हैं.’’

रमण ने बड़ी नाटकीयता से कहा,‘‘जैसे भी हुजूर चाहें, कहें वैसा ही होगा. पर हुजूर ये बताने की तक़लीफ़ तो करें कि अब आपका ख़ुद का अलग-सा वो काम क्या है भला, जिसमें हम शामिल न हों?’’
वैदेही ने उसकी बात को हल्के अंदाज़ में ही लिया और मुस्कुरा कर कह दिया,‘‘मुझे ही नहीं सभी को यहां तक कि आपको भी कुछ व्यक्तिगत काम तो होते ही हैं.’’ बहुत जल्द ही वैदेही रमण के स्वभाव से कुछ असहजता महसूस करने लगी. वो तो ये समझा करती थी कि रमण उदार विचारों का बहुत ही भला और बड़े दिलवाला युवक है. पर चंद महीनों से उसकी बातचीत, हाव-भाव, सभी... कुछ और ही इंगित करने लगे. कभी कभी तो वैदेही को लगता कि रमण उस पर अपनी मिल्क़ियत समझने लगा है. एक दो बार तो उसे लगा कि वो प्यार का हक़ जता रहा है. पर धीरे-धीरे यह हक़ नियंत्रण रखने की तरह होने लगा. ऐसे हालात् बनने लगे कि वैदेही चिंतित होने लगी. उसने अभी तक स्वाभिमान और आत्मविश्वास का पाठ ही पढ़ा और सीखा था. उसी के बल पर प्रगति करते हुए अपने पैरों पर खड़े होकर आत्मनिर्भर भी बनी.

जब भी पति के रूप में किसी के बारे में सोचती तो भले ही चेहरा धुंधला और अस्पष्ट रहे, पर मित्रवत व्यवहार और पत्नी को व्यक्तिगत स्वतंत्रता देनेवाले, एक भले सहयोगी के रूप में ही उसकी कल्पना करती.
वैदेही की मानसिक दुविधा बढ़ती जा रही थी. रमण वैदेही के वेतन की जानकारी लेकर आगे की योजना बनाने लगा था.
‘‘देखो वेदू, सबसे पहले तुम कार लोन ले लेना. तुमको भी कितना आराम हो जाएगा. ड्राइवर तो तुम्हारा ये दास शोफ़र रमण कुमार ही बन जाएगा.’’ उसका यूं अंतरंगता से वेदू बुलाने लगना उसे शायद अच्छा भी लगता, पर आगे के वाक्य ने उसे चौंका भी दिया और अवचेतन में वो सचेत हो गई.
वैदेही से कोई जवाब न पाकर रमण ने उसके चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ा और असंतुष्टता की महीन जाली बुनते हुए देखा. तुरंत ही अपना सुर बदल कर बोला,‘‘कहां सोच में पड़ गईं, मैं तो यूं ही कह रहा था. हम पहले तो हनीमून की प्लानिंग करेंगे.’’
अब तक वैदेही मन ही मन कुछ निश्चय कर चुकी थी. उन दोनों के विवाह की तारीख़ तीन महीने बाद की तय हुई है. इससे पहले दीदी और वन्दिता से मिलकर चर्चा करने का उसका निश्चय दृढ़ हो गया था. घर पर मां-पापा और भाई-भाभी से बातें की और उसने इलाहाबाद के लिए दो सप्ताह बाद के ट्रेन के टिकट बुक करवा लिए. अब उसे रमण का मिलने आना कुछ नागवार सा लगने लगा था. अभी से यदि वो वैदेही को और उससे जुड़ी चीज़ों को अपने नियंत्रण में रखने की कोशिश कर रहा है तो विवाह के बाद किस हद तक जा सकता है ये सोचकर वो घबरा गई.


वैदेही ने अपने इलाबाद जाने के बारे में रमण को बताया ही नहीं. उसके जाने से दो दिन पहले रमण उससे मिलने आया. वैदेही उसके सामने यूं भी कम ही बोलती थी. उस दिन तो वो एक तरह से गूंगी ही बनी रही. उस दिन रमण अधिक उत्साह में था और वाचाल भी बहुत था. वही लगातार बातें करता रहा. यह भी अच्छा ही हुआ क्योंकि उसका ध्यान वैदेही के मौन की तरफ़ गया ही नहीं.


‘‘वेदू सोचकर देखो ये कितना अजीब है कि पिछले वर्ष हम एक-दूसरे को जानते भी नहीं थे. अब देखो अगले चंद महीनों में पति-पत्नी बन जाएंगे. तब तक दोनों एक-दूसरे से अच्छे से वाकिफ़ भी हो चुके होंगे. वरना किसी अजनबी के साथ सुहागरात मनाने का सोचकर अजीब नहीं लगता!’’
अच्छा हुआ कि उसने वैदेही की चिंतित मुद्रा पर अधिक ग़ौर नहीं किया और आगे भी कुछ ऐसी ही बातें बोलता रहा.
अब तक वैदेही उकता भी गई और जाने को छटपटा रही थी. तभी रमण के मुंह से एक ऐसी बात निकल गई कि वैदेही की दुविधा बिल्कुल ही समाप्त हो गई.
‘‘मैं सोचता हूं कि हमें बच्चों के बारे में सोचना नहीं चाहिए. इस बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है?’’
अब तक बोर हो चुकी वैदेही के मुंह से निकला,‘‘मैं तो बहुत आगे का वैसे भी नहीं सोचती. जीवन में आज का महत्व मेरे लिए सबसे ज़्यादा मायने रखता है. आज की घड़ी बता रही है कि बहुत देर हो गई, मुझे अब चलना चाहिए.’’ यह कहते-कहते वो अपने पर्स को समेट कर खड़ी हो गई.



‘‘चले जाना भई. कुछ देर-सबेर से इतना फ़र्क़ नहीं पड़ जाएगा. पर मेरे मन की आख़िरी बात तो सुन कर जाओ,’’ रमण अपनी आवाज़ में उत्सुकता का पुट मिलाकर इस तरह बोला कि वैदेही ठिठक कर रुक गई और रमण के चेहरे की ओर देखने लगी कि न जाने अब कौन-सा बम फूटने वाला है. सच ही रमण के मुंह से निकला वाक्य छोटा-मोटा बम ही था,‘‘वेदू, हम दोनों बच्चा पैदा ही नहीं करेंगे. हम दोनों के बीच कोई तीसरा नहीं होगा, जो हमारी ख़ुशी में अड़चन पैदा करे. तुम भी इस बात से सहमत होगी, है ना?’’ वैदेही से सकारात्मक जवाब पाने की उत्सुकता में टिकी रमण की निगाहें उसकी पीठ पर ही जम सकीं, क्योंकि वैदेही बिना कुछ कहे ही निकल चुकी थी.



काफ़ी समय बाद वैदेही को रुई की तरह हल्कापन महसूस हो रहा था. दिमाग़ में कोई उलझन बाक़ी नहीं रह गई थी. रमण से रिश्ता तोड़ने के ख़्याल से ही वो ख़ुशी महसूस करने लगी. अब तो उसने फ़ैसला ही कर लिया कि वो भले ही कंवारी रह जाए पर रमण से विवाह तो किसी भी क़ीमत पर नहीं करेगी. बीच में एक दिन था और उसके अगले दिन का इलाहाबाद का टिकट था. उसे लगा कि भाभी को कम से कम अपनी मनोदशा और फ़ैसले के बारे में बता देना चाहिए. उसी दिन रात को उसने पिछले कुछ समय से रमण का जो व्यवहार था उसका खुलासा भाभी के सामने किया. भाभी चौंकी ज़रूर, पर उन्होंने यही कहा,‘‘गुड्डी, अच्छा हुआ अभी ही उस आदमी की प्रवृत्ति का अंदाज़ा लग गया नहीं तो तुम्हारा जीवन ही बर्बाद हो जाता. मैं तुम्हारे भैया से बात करती हूं और रमण से छुटकारा पाने का रास्ता खोजते हैं. तब तक तुम दीदी के यहां चार दिन रह कर कुछ तरोताज़ा हो जाओ और इसे बुरा सपना सोचकर भूल जाना.’’
दीदी और भैया उसे गुड्डी ही बुलाते थे. भाभी को उसका नाम अच्छा लगता था, सो पूरा नाम लिया करती थी और सभी को कहती थीं कि नाम को बिना बिगाड़े पूरा लिया करें. उनके मुंह से गुड्डी सुनकर वैदेही को लगा कि भाभी उसका रक्षा कवच हैं.


इलाहाबाद दीदी के यहां पहुंचकर तो वो अपनी पुरानी मन:स्थिति में आ चुकी थी. जीजाजी स्टेशन से उसे लेकर आए और दीदी से बोले,‘‘गुड्डी के चेहरे पर कितनी चमक और आत्मविश्वास का नूर बरस रहा है.’’
मनोरमा दीदी ने भी मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा और पति से बोलीं,‘‘आप कहीं उसे नज़र न लगा देना.’’
ये बातें सुनते हुए वन्दिता बाहर आई और बोली,‘‘मेरी दीदी के चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक है और आत्मनिर्भरता की रंगत.’
जीजाजी के ऑफ़िस चले जाने के बाद वैदेही ने दीदी को सारी बातें खुलकर बताईं. साथ ही अपना फ़ैसला भी सुना लिया. हालांकि दीदी ने कहा,‘‘गुड्डी ये बहुत बुरा हुआ. मां-पापा को तो जैसे सदमा ही लग जाएगा,’’ पर अगले ही पल बोल पड़ीं,‘‘तू चिंता न कर, तूने जो भी किया ठीक किया. शादी से पहले ही जो व्यक्ति इतना पज़ेसिव है, वो शादी के बाद तो तुझे ग़ुलाम की तरह रखने लगता. मैं भाई से बात करती हूं और उसे भी समझाती हूं कि तुम एक बड़े हादसे से बचकर आई हो.’’


वन्दिता ने भी सारी बातें सुनी. वैदेही के विवाह में मौज-मस्ती करने का जो उसका प्लान था वो चौपट होता देखकर थोड़ा मलाल ज़रूर हो रहा था, पर उसके ख़ुराफ़ाती दिमाग़ ने तुरत-फुरत अपने पापा से कहकर पिकनिक का कार्यक्रम बनवा लिया. पहले भी एक-दो बार सीतामढ़ी जाने का कार्यक्रम बनाने की कोशिश की थी पर कुछ जम नहीं पाया था. इलाहाबाद से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर है सीतामढ़ी. सुबह-सुबह शीतल हवा के झकोरे लेते हुए कार में चले गए. पहाड़ी पर बहुत ही बड़े हनुमानजी की प्रतिमा थी. सीताजी का मंदिर बाहर से इतना सुंदर और भव्य है. वहीं तीनों ओर से तमसा और गंगा नदी का पानी उसे और भी मनमोहक बना देता है. पास के तालाब में खिले असंख्य लाल कमल देखकर तो उन चारों का मन एक अकथ्य शांति और प्रसन्नता से भर गया.

आख़िर जीजाजी ही बोले,‘‘तुम लोग बस यही देखते रहोगे कि मंदिर के अंदर भी जाओगे.’’
मंदिर के प्रथम तल में सजी-धजी लाल रंग की साड़ी में सीताजी की बहुत ही सुंदर मूर्ति है. उसे निहारने से दिल भरता ही न था. निचले तल में गेरुए वस्त्र में अवनि में समाहित होती हुई सिया की जीवंत मूर्ति यूं लग रही थी कि जैसे आंखों के सामने ही सिया भूमि में समा रही हों. वातावरण कुछ ग़मगीन और भारी हो गया था. वन्दिता ने चुप्पी तोड़ी,‘‘भगवान राम सीता के प्रति कितने निर्दयी हो गए थे. तब भी सिया रानी हर जन्म में श्रीराम को ही पति परमेश्वर के रूप में चाहती थीं. महिलाएं सेंटीमेंटल होती हैं या कुछ मेंटल...’’
दीदी बोलीं,‘‘वो ज़माना तो कुछ अलग ही था. तब पुरुष भी मर्यादावान होते थे. आज की नारी पति की अह्वेलना या उपेक्षा सहन नहीं करेगी, करे भी क्यों? जब दोनों समकक्ष है तो सहयोगी की तरह रहना चाहिए.’’
वन्दिता ही नहीं उसके पापा भी दीदी के विचार जान कर ज़ोर से कह उठे,‘‘वाह, वाह!’’ फिर वन्दिता बोली,‘‘ममा, अब आप भी दीदी और मेरे क्लब में शामिल हो गईं. अब हमारी ताक़त बढ़ गई है.’’
वैदेही को लगा मानों उसके फ़ैसले पर सही मुहर लग गई हो. उसे परम शांति का अनुभव हो रहा था.

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