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अपना-अपना प्रारब्ध



“सर, मैं अपर्णा, ठाकुर साब के घर से !", मोबाइल पर अनजाने नंबर की कॉल को अनमने ढंग से उठाते ही उधर से आठाज आई.
“अपर्ण....हां, हां, ठाकुर साब के यहाँ से न? बोलो अपर्णा", मैंने यथासंभठ अपनी आठाज़ को संयत रखते हुए कहा, पर किसी अनिष्ट की आशंका से मेरी धडकनें संयत रहने में असफल-सी प्रतीत हो रही थी. पर, वही हुआ, जिसका मुझे भय था.


“बाबू जी नहीं रहे", अपर्णा ने रुंधे गले से कहा, “रात भर बेचैनी के बाद जब सवेरे लगभग साढ़े पांच बजे उनके शरीर में जब निश्चेतना के भाव दिखे तो उन्हें नर्सिंग होम ले जाया गया, जहाँ डॉक्टर्स ने उन्हें मृत बता दिया", अपर्णा ने आगे बताया. “ओह", के अतिरिक्त मैं कुछ बोल पाता उससे पूर्द ही अपर्णा ने नमस्ते कर कॉल विच्छेदित कर दी थी. शायद उसे और लोगों को भी सूचित करना था.

मैंने अपनी घड़ी पर नज़र डाली. सवेरे के ७.४० हुए थे, आधा घंटा ही हुआ था अभी मुझे मार्निंग वाक से लौटे. बस एक कप चाय पीते-पीते सवेरे के अखबारों पर एक दृष्टि डाल रहा था. मन व्यथित-सा हो गया. अखबार के पन्ने समेत कर एक किनारे सरका दिए. आँखें अनायास मुंदी-सी जा रही थी. सामान्यतः मैं मॉर्निंग ठाक से लौटकर चाय पीने और पेपर पढने के बाद नींद का एक झटका फिर से लेता था. पर, नींद तो उड़ ही चुकी थी, और जागे रहने का भी मन नहीं था. बस मन करता था कि समय यूँ ही ठहर जाए, जब तक कि मैं तन्हाई में जाकर अपने मित्र अजेय प्रताप सिंह की यादों को समेट न लूं.

हालांकि ठाकुर साब से मेरी मित्रता अधिक पुरानी भी नहीं थी. मात्र लगभग साढ़े तीन साल हुए थे, उनसे मुलाक़ात हुए, और वह भी वाकिंग प्लाजा में. कॉलोनी का यह पार्क टहलने वालों के लिए स्वर्ग से कम नहीं था. ठाकुर साब अपने आठ-दस लोगों की मण्डली में चुटकुले और अपने किस्से सुनाते हुए तेज़ और सधे क़दमों से जब पार्क की दूरियां नापते तो कोई अनजान व्यक्ति भी समझ सकता था कि यह छ: फीट का इंसान जरूर किसी पुलिस, सेना या ऐसी ही किसी संस्था से जुडा होगा, जहाँ चुस्ती और फिटनेस की अलग ही महत्ता है.

यह बात मुझे टहलते हुए लगभग दो-तीन हफ्ते बाद बाद पता चली कि सिंह साब पुलिस में फिलहाल डिप्टी एस पी के पद पर कार्यरत हैं और जल्दी ही सेठानितृत होने ठाले हैं. बाद में पता चला कि मूल रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया के निवासी ठाकुर साब ने आगरा में ही बसने का फैसला किया था और आठास-विकास कॉलोनी में एक घर भी बनठा लिया था, जो निश्चित रूप से उनके रुतबे और पद की अपेक्षा कहीं अधिक ठिलासितापूर्ण था. उनके तीन बेटे थे, जिनमें से दो अनुग्रह प्रताप सिंह और प्रबल प्रताप सिंह विवाहित थे और उनके साथ ही रहते थे. सिंह साब ने दोनों के लिए ही अपने मकान में अलग-अलग पोर्शन बनवा रखे थे, बड़े बेटे के लिए निजी व्यदसाय भी सिंह साब ने ही जमवाया था. मंझला बेटा शिक्षा के क्षेत्र में था. उनकी गृहस्थी अच्छी चल रही थी. तीसरा अठिवाहित बेटा रचित प्रताप सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय से मास्टर्स की पढाई के साथ सिविल सर्विसेज की परीक्षाओं की तैयारी में जुटा था.

उन्हें रिटायर हुए बमुश्किल आठ माह ही हुए होंगे, अचानक सिंह साब का यूँ चले जाना किसी के लिए भी विश्वसनीय नहीं था. पर सच का सामना तो एक-न-एक दिन करना ही होता है. और सच यही था कि अजय प्रताप सिंह अब इस दुनिया में नहीं रहे. मैंने जल्दी से स्नान किया और नाश्ता किये बिना ही उनके आठास की ओर चल पड़ा, जो मेरे घर से लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर रहा होगा.

सिंह साब की विशाल कोठी के बाहर से दिख रहा था एक अजीब-से किस्म का पसरा हुआ सन्नाटा. न जाने मौत को भी सन्नाटा कितना अच्छा लगता है. मेरा इस मकान में पिछले तीन सालों में न जाने कितने बार आना-जाना हुआ होगा. कितनी महफ़िलें जमी होंगी, कितने किस्से-कितनी बातें-- पर आज, आज जो सन्नाटा और नीरवता का माहौल था वह बहुत गहन उदासी की चादर ओडढ़े था. मैंने अपनी गाडी जिस जगह पार्क की, उसके आसपास पांच और गाड़ियाँ और कई स्कूटर- मोटरसाइकिल पहले से ही खड़ी थीं, ड्राइंग रूम से सटे दरांडे में सफ़ेद चादर में लिप्त था ठाकुर साब का निष्प्राण शरीर. वह शरीर जो दिन में न जाने कितनी बार ठहाके लगाया करता और लोगों को अपने चुटकुलों से हंसाते रहता था.आस-पास दरी पर बैठे लोग बिलकुल शांत थे. मेरी पहचान के तो केठल उनके घर के लोग थे, शेष सब अनजान से थे वहां,

मैंने उनके शरीर पर श्रद्धा सुमन के रूप में गुलाब की पंखुड़ियों को अर्पित किया. मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सा उनके आत्मारहित शरीर के पास खड़ा रहा. अपने स्थान पर वापिस जाने की न तो मुझमें इच्छा थी, और न ही साहस, बस एकटक देखता रहा मैं उनकी मुंदी आँखों को! उस निस्तेज शरीर को जो कुछ कहानियों को जीता रहा था, ताउम्र. कोई उदासी, कोई दुःख, कोई उलझन-- किसी को भी फटकने तक न दिया था अपने जीते-जी ठाकुर साब ने, कभी किसी पर मोहताज़ नहीं रहे. पर आज.. ठह तो निश्चेत थे, और हम निस्सहाय !

ठाकुर साब कुछ चमत्कारिक से व्यक्तित्व के स्वामी थे. पुलिस की नौकरी और उनका मजाकिया लह॒जा आपस में ज्यादा मेल नहीं खाता था. उनके बारे में तरह-तरह के किस्से भी सुने जाते थे. सिंह साब के बारे में चर्चा थी कि वह ठीक-ठाक घूसखोर टाइप के पुलिस अधिकारी रहे थे. कई बार उनकी ठाकुर बुद्धि शिकायतकर्ता और अपराधी दोनों पर ही सामान रूप से चोट कर जाती. यानी, दोनों तरफ से अच्छी-खासी ठसूली के बाद ही मामले को रफा-दफा करते. हालाँकि छोटे- मोटे केस के लिए वह रॉबिनहुड की भूमिका में आ जाते. उनके निर्देश थे कि इन्हें ऐसे ही रफा-दफा कर दिया जाए, बिना किसी लिखापढ़ी के. चूँकि ठाकुर साब ने पुलिस में पहले पायदान, यानि हवालदार या सिपाही के पद से अपनी नौकरी आरम्भ की थी, और घिसते-घिसते वह डिप्टी एस पी की पोस्ट तक जा पहुंचे थे, तो यकीनन उन्हें कानून और पुलिसिया पेंचों की अपनी जानकारी के कारण चलते-फिरते एनसाइक्लोपीडिया के नाम से भी जाना जाता था. किसी केस को पक्ष में करना हो या खिलाफ, दोनों तरह के उपाय करना, और जरूरत पड़ने पर दोनों पक्षों से घूस ऐंठना उन्हें ढखूबी आता था.

असली किस्से तो उन्होंने स्वयं रिटायरमेंट के बाद अपनी मण्डली में साझा करने का एक दस्तूर-सा बना लिया था. कई बार तो बातों का सिलसिला चलता रहता और मॉर्निंग वाक का समय खत्म हो जाता. तब गेट के पास लल्लन के चाय-बन- मक्खन पर शेष कड़ियों का निपटारा होता. खंडेलवाल जी, और अग्निहोत्री जी तो रोज़ ही उन्हें उकसा-उकसा कर नई-नई कहानियों की फरमाइश करते और ठाकुर साब भी बस, मूड बना लेते. फिर जो ढातें शुरू होती तो तभी खत्म होती जब या तो अग्निहोत्री जी के घर से दो-तीन बार फोन ना आ जाता या खंडेलवाल जी का बेटा स्वयं ही उन्हें ढूंढने लललन के खोखे तक न आ पहुँचता. उन कहानियों में कितनी वास्तविकता होती और कितना मसाला, यह तो स्वयं ठाकुर साब ही जानते होंगे.

लेकिन इस सब के बाठजूद पिछले काफी दिनों से, और ख़ास तौर से उनके रिटायरमेंट के बाद, एक बात साफ़ दिखती थी. अब से तीन साल पहले ठाले ठाकुर साब अब नहीं रहे थे अजय प्रताप सिंह. उनकी मूंछों की रौनक कहीं हल्की पड़ चुकी थी, और आँखों की चमक तथा सीने का कसाव भी ढलान पर आ गया था. उनकी चाल और हाव-भाव में जो अंतर आया था, वह स्वाभाविक था, पर न जाने क्यूँ मुझे तथा और लोगों को ठह सब कुछ अस्वाभाविक सा लगता था. रिटायरमेंट के बाद अठसाद और घर के लोगों से तालमेल न बैठने के किस्से आम होते हैं, लेकिन उनसे मेरी घनिष्टता में न तो मैंने स्ठयं ऐसा कुछ देखा था, और न ही उन्होंने कभी मुझसे साझा किया. कभी हल्का सा भी कोई गुबार उनके मन में नहीं दिखा. बाठजूद इसके यह भी उतना ही सही था कि कुछ था जो कतरा-कतरा उनकी जिन्दगी को खा रहा था.

ठाकुर साब अपने तीनों बच्चों की तारीफों के पुल बांधते नहीं थकते थे, ठे उनको सोना बताते थे. कहते थे, यह मेरे पिछले जन्म के कर्मों का फल है, जो उसने मुझे तीनों बच्चों के रूप में मुझे लौटाया है. उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं थी. यह भी उन्होंने बताया था कि स्वयं को व्यस्त रखने के लिए वह अपने आप को बार काउंसिल में पंजीकृत कराकर प्राइवेट प्रैक्टिस आरम्भ करने ठाले हैं. बहुत आशान्वित थे वह अपनी इस प्रैक्टिस को लेकर. पत्नी के देहावसान के बाद पिछले छः

साल से ठाकुर साब अपने ठिशाल भवन के स्टडी रूम और ड़ाइंग रूम तक ही सिमट कर रह गए थे. वह अपने शयन कक्ष में शायद ही कभी सोते हों. 22९२

वह बात जुलाई के पहले सप्ताह की थी. दिन भी रविवार का था. जब लोग हफ्ते भर की भागदौड़ की जिन्दगी के विपरीत आलस्य में रहना ज्यादा पसंद करते हैं. रात से ही रुक-रूक कर कभी तेज़ और कभी मंद बारिश हो रही थी. आसपास के इलाकों में तो पानी भी इकठ्ठा हो गया था. आज पार्क में जाने की मेरी तो हिम्मत नहीं हुई, पर ठाकुर साब तो कुछ अलग ही मिट्टी के बने थे. हमेशा की तरह ४.३० बजे के अलार्म के सहारे उठने वाले ठाकुर साब आज भी उसी तरह पार्क में आये थे टहलने. पानी और कीचड के बाठजूद ट्रैक तक पहुँचने का अपना रास्ता बनाते. आम तौर पर चालीस से साठ लोग पार्क में टहलते थे, भोर से शुरू कर और सूरज की गर्मी आरम्भ होने तक लेकिन उस दिन दूर-द्वर तक कोई नहीं दिख रहा था. ठाकुर साब अपने सफ़ेद जॉगिंग शू और हल्के नीले ट्रैक सूट में बारिश की धीमी-धीमी बूंदाबांदी से मोर्चा ले आ पहुंचे थे पार्क में. बारिश हालाँकि खत्म हो चुकी थी, फिर भी कभी-कभी हल्की फुहारों से मौसम की सौम्यता का अनुमान हो रहा था उसदिन भी .

अकेले टहल रहे थे उस दिन ठाकुर साब जब अचानक ठह ट्रैक के एक किनारे पर इकट्ठा काई पर पैर रखते ही असंतुलित होकर जो नीचे गिरे तो उनका सर निकट की फेंसिंग से ऐसा टकराया कि वह मूर्छित हो गए. उनके सिर के एक हिस्से से हल्का सा रक्त स्राठ भी हुआ. दुखद बात यह थी कि उनको कोई इस अवस्था में देख भी नहीं पाया. जब देखा गया तब तक काफी रक्त भी बह चुका था. जब उन्हें स्थानीय मेडिकल कॉलेज के आकस्मिक चिकित्सा ठिभाग में उन्हें पहुँचाया गया, उस समय लगभग सवेरे के ७.४५ बजे थे. अर्थात, मोटे तौर पर लगभग दो घंटे वह लावारिस स्थिति में पड़े रहे थे. चौकीदार की ड्यूटी बदलने के समय उन पर निगाह पड़ी थी, तब जाकर आनन-फानन में उनके घर सूचित किया गया और उन्हें इमरजेंसी में पहुँचाया गया.

मजबूत शरीर था, और उस पर फिटनेस का मुलम्मा. ठाकुर साब बच गए थे. लेकिन चोट गहरी पहुंची थी और देर तक पड़े रहने से हुए नाजुक हिस्से के रक्‍तस्राव से उनकी स्थिति यदि मेडिकल भाषा को सरल करके बताया जाए तो “असहज" हो गई थी. एम आर आई तथा कैट स्कैन से कुछ ऐसे स्पॉट पर ब्लड क्लार्टिंग की जानकारी प्राप्त हो गई थी जिसने उनके शरीर के दाहिने हिस्से में पक्षाघात का रूप ले लिया था, उस दिन जब जानकारी पर मेडिकल कॉलेज पहुंचा तो देख कर विश्वास ही नहीं हुआ, कि यह वही जिंदादिल इंसान है जो मेडिकल कॉलेज के न्यूरो वार्ड में ऐसे पड़ा है जेसे किसी ने इसके प्राण चूस लिए हों-- निस्तेज शरीर जो तीन-चार दिन की कोशिशों के बाद हिलने-डुलने की स्थिति में आ पाया था. हर दिन तिल-तिल जिन्दगी से हार मानते शरीर को देखना. और उस व्यक्ति की जिजीठिषा जो दुनिया को हँसता था, एक समय में पुलिसिया क़ानून का बड़ा स्तम्भ था, जैसे दरक रहा हो...हर पल.

काफी दिन और तमाम तरह के टेस्ट्स के बाद डॉक्टर्स ने उन्हें दो विकल्प दिए-- या तो दिल्ली के फोर्टिस अथवा मेदान्ता में रेफर कर दिया जाए या किसी निजी न्यूरो सर्जन की देखरेख में इनकी सेठा सुश्रुषा की जाए. दोनों ही स्थिति में जीठन बचने की संभावनाएं क्षीण थीं, पर जिन्दगी के शेष दिनों को घसीटने के अदसर अधिक ! बस. यही थी उनकी जिन्दगी, जिसका समय चंद डॉक्टर्स निर्धारित कर रहे थे, अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर, और जो वह कह रहे थे ठह बात पूरी तरह व्यावहारिक थी.

ठाकुर साब कुल अदद २२ दिन मेडिकल कॉलेज के प्राइवेट न्यूरो वार्ड में रहे, और १२ दिन साधारण वार्ड में. कुल मिलाकर ३४ दिन. इसके ढाद उन्हें घर पर शिफ्ट कर दिया गया. स्टडी रूम का छोटा दीठान ही उनकी दुनिया बन गया. मेदांता और फोर्टिस की बात आई-गई हो गई थी. मेडिकल कॉलेज में भर्ती रहे इन चौंतीस दिनों में एक वह अद्भुद बात हुई, जिसे ठाकुर साब पता नहीं कब से दुनिया से छिपाते आ रहे थे. अब यह साफ़ हो गया था कि उनके तीन बच्चों में से दो को अपने पिता की कोई ख़ास चिंता नहीं है. बस अगर सेवा के नाम पर कोई था तो मंझला बेटा और उसकी बहु अपर्णा. जी, अपर्णा-- जिसे ठाकुर साब ने कभी मन से अपनाया ही नहीं. क्यों ? क्योंकि बेटे प्रबल प्रताप ने उनसे विद्रोह कर अपर्णा के रूप में अपने जिस जीवनसाथी को चुना था वह न तो स्व-जातीय थी, न उनके स्तर की. वह हॉस्टल में रहकर स्कॉलरशिप की राशि से पढाई पूरी करने वाली एक साधारण ग्रामीण परिठार की कस्बाई मानसिकता और परिवेश की लड़की थी, पर मेधावी इतनी कि उसे हाई स्कूल से लेकर मास्टर्स तक हर बार मेडल्स मिले, अंततः वह शहर के प्रतिष्ठित महिला कॉलेज में अस्थायी रूप से सहायक प्राध्यापक के लिए चयनित भी हो गई थी. बेटा पहले से ही विश्वविद्यालय में जंतु विज्ञान विभाग में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत था ही.


तब, शायद ही कोई दिन बीतता हो जब मैं घंटे-दो घंटे मेडिकल कॉलेज में ठाकुर साब के पास बैठकर न आता हूँ. अब ठह धीरे-धीरे लोगों को पहचानने लगे थे, लेकिन केठल आँखें उनकी मूक अभिवादन करती. न मुंह, न जुबान, न मुस्कुराहट, न हिलना-डुलना, न गर्मजोशी से हाथ मिलाना-- कुछ भी नहीं बचा था उस बेहतरीन इंसान के पास. वह बस या तो कुछ देर लोगों की आँखों में अपने लिए सहानुभूति के भाठ पढ़कर नैराश्य के जंगल में भटकने लगते, या फिर सीलिंग की ओर देखते, चुपचाप ! ऐसा लगा भी कि एक बार उन्होंने अपनी जुबान पर जोर डालने की कोशिश भी की, पर उनके बोल तालू से चिपक कर रह गए, और वह फिर से उदास हो गए. इसी बीच मैंने उनकी आँखों को न जाने कितनी बार नम और बेबस होते देखा ! कमजोरी इतनी कि न जाने कितनी ग्लूकोज की बोतलें और उनमें औषधियों की डोज़ उन्हें चढ़ाई गई हो. हाथ में अभी भी ग्लूकोज चढाने के लिए कैनुला लगा था. न जाने फिर कब चढ़ाना पड जाए ग्लूकोज!

इस बीच प्रबल और अपर्णा ने जितनी सेवा की ठाकुर साब की, उसे देखकर मन भर आता और वाकई गर्व होता उनके संस्कारों पर. ऐसा शायद ही कोई अठसर हो, जब मैं उनके वार्ड में गया हूँ और अपर्णा तत्पर खड़ी, सेठा करते हुए न मिली हो, पूरी जिम्मेदारी और मन से ! ऐसा ही बेटा प्रबल था. वह बाहर की पूरी जिम्मेदारी संभाले हुए था. इसके विपरीत बड़ी बह अमृता तथा पुत्र अनुग्रह का व्यवहार विचित्र और आश्चर्यजनक रूप से उपेक्षा से भरा था, न जाने क्यों ! इन चौंतीस दिनों में मेरी उससे दो बार भेंट हुई. वह भी किसी मेहमान की तरह, अनुग्रह का न मिलना तो और भी अचरज भरा था.

“किसने कहा था बारिश में भी पार्क में जाने को ?",

झल्लाते हुए अनुग्रह ने उस दिन जब वार्ड में कई लोगों के सामने बोला तो मैं चकित रह गया. जो होना था वह तो हो चुका. अब तो पिता की सेठा-टहल करने की बात थी न, बस. न अवसर था और न जरूरत. झुंझलाने से क्या होने वाला था. पर, उसे अनावश्यक गुबार निकालना था, सो निर्लाज्ज़ता से बोलता गया,

“अब उन्हें मालूम था कि मुझे खुद १२ लाख रुपयों की सख्त जरूरत थी. पर मेरा तो कुछ सोचा ही नहीं उन्होंने. न यह पता कि उनके अकाउंट में कितना बैलेंस ही. सब तो छिपाकर रखा उन्होंने, अब इलाज के लिए भी पता नहीं कब तक, कहाँ- कहाँ से उधार मांगता फिरूं?*,

तब तक प्रबल भी आ पहुंचा था. उसने भाई को मान से समझाने की कोशिश की और दठाओं का पर्चा अपने भाई के हाथ से ले लिया.


“सब ठीक होगा. आप परेशान न हों भैया",

कहा अवश्य उसने पर बड़े भाई को तो न जाने और क्या कहना शेष था. मेरा मन इतना खिन्न हुआ कि एकबारगी वहां से चलने का मन हुआ, पर कदम नहीं उठ पाए. बस, इतना जरूर कहा मैंने, कि जो भी खर्च है ट्रीटमेंट का, वह तो सरकार से वापिस मिलना ही है, अंततः.परन्तु अनुग्रह को तो आज सारा ही हिसाब करना था, जैसे उसके पिता बेटे से उधार लेकर विश्व यात्रा के लिए निकल रहे हों.

“देखेंगे वो भी, न जाने कितने साल लगेंगे" और लम्बी सांस खींचकर वह वार्ड के बहार दरांडे में टहलने के लिए चला गया.

ठाकुर साब का बेड उस जगह से थोडा दूर था, जहाँ यह अनावश्यक प्रसंग चल रहा था. पर, यह जगह उतनी भी दूर नहीं थी की शब्द उनके कानों तक न आ सकें. उन्हें सब समझ में आ रहा था. अफ़सोस, कि वह अभी भी अपने शरीर, और इन्द्रियों के गुलाम थे, और अपने भाव को अभिव्यक्त करने से मजबूर. मैं उनके सिरहाने एक स्टूल खींचकर बैठ गया. मैंने उनको सांत्वना देने की दृष्टि से एक झूठी मुस्कान डालनी चाही. पर, ठाकुर साब की आँखों में नमी, और दृष्टि में कातरता के भाव-- दोनों ने इतना विचलित किया कि चाह कर भी वह दृश्य मेरे दृष्टि पटल से ओझल नहीं हो पा रहा है.

यह वही बड़ा बेटा था जिसमें उनकी जान बसती थी. अपने प्रोविडेंट फण्ड तथा अन्य देयकों के लगभग 48 लाख रूपये उन्होंने अनुग्रह के कंप्यूटर व्यवसाय में लगा दिए थे. एक गाडी भी खरीद कर दी थी. पर, फिर भी उसका उपेक्षित तथा विचित्र व्यवहार कुछ नासमझी वाली बात थी.

दरअसल मानद स्वभाव और रिश्ते इतने जटिल होते हैं कि हम जितना समझते हैं उससे कहीं अधिक ठह हमारी समझ से परे होते हैं. संस्कारों का व्यक्ति के साथ ऐसा सम्बन्ध है जैसा जल का जमीन के साथ, व्यक्ति के कुछ संस्कार तो उसके अपने होते हैं. हम जीवन को उसकी गहराई तक जाकर देखते है तो बोध होता है कि हर व्यक्ति अंतत: संस्कारों का ही एक पुतला है. व्यक्ति एक जन्म का नहीं जन्म जन्मान्तर के संस्कारों का परिणाम है. व्यक्ति जो कुछ होता है, करता है वह सब उसके भीतर इस जन्म के और पूर्व जन्म के संस्कारों का एक प्रठाह गतिशील रहता है. कहते हैं कि हम पिछले जन्म में जो कर्म करते हैं वह वर्तमान में भाग्य बनकर आता है. भाग्य दिखता नहीं है अन्धकार में हमें दृष्टिपात नहीं होता है इसलिए उसके आधार पर जीवन कैसे जिया जाये यह बस विचारणीय हो सकता है.

अपर्णा और प्रबल-- बस यही दो लोग संस्कार की तैयारी में जुटे थे. बीच-बीच में अपर्णा अपनी नम आँखों को पल्लू से पोंछती जाती. प्रबल उसे ढाढस बंधाता. तब तक दिल्ली से रचित भी आ चुका था. एकबारगी उसकी आँखें छलछला आई, फिर संयत होकर वह भी शांत बैठ गया था. वह बस अपने पिता के निष्प्राण शरीर को एक टक देर तक निहारता रहा. ठाकुर साब की मॉर्निंग ठाक की मण्डली में से कोई दिख नहीं रहा था. अधिकांश घर-परिवार और मोहल्ले के लोग थे.



“अब देर न करें आप लोग, जल्दी करें दाह संस्कार के लिए !*,

...अचानक लन्‍्द्रा टूटी तो देखा अनुग्रह प्रताप सिंह लकदक सफ़ेद कुरता-पायजामे में तैयार खड़े थे, अपने पिता ठाकुर अजय प्रताप सिंह की अंतिम विदा की रस्म अदायगी के लिए ! उसकी पत्नी दूर खड़ी देख रही थी. हाँ, आठ साल का बेटा अनुरूप जरूर अपने दादा के पास खड़ा था, विचलित और अचंभित सा-- क्योंकि जन्म-मृत्यु के विस्तृत रिश्तों, और उनकी जटिलताओं से अभी तक परे जो था!

सच है..अपने हिस्से का हिसाब हमें स्वयं ही करना पड़ता है !

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