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रूमानियत से इंक़लाबियत तक मजाज़ के शेर


रूमानी



कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था

मुझ को ये आरज़ू वो उठाएं नक़ाब ख़ुद
उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई
ये मेरे इश्क़ की मजबूरियां मआज़-अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूं मैं


बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना
तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है


बताऊं क्या तुझे ऐ हम-नशीं किस से मोहब्बत है
मैं जिस दुनिया में रहता हूं वो इस दुनिया की औरत है


इस इक हिजाब पे सौ बे-हिजाबियां सदक़े
जहां से चाहता हूँ तुम को देखता हूं मैं


इंक़लाबी तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था


बहुत कुछ और भी है इस जहां में
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है
इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमां से हम
हट कर चले हैं रहगुज़र-ए-कारवां से हम


आह क्या दिल में अब लहू भी नहीं
आज अश्कों का रंग फीका है


औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया
- साहिर लुधियानवी



तन्हाई के लम्हात का एहसास हुआ है
जब तारों भरी रात का एहसास हुआ है
- नसीम शाहजहांपुरी


मैं तिरे दर का भिकारी तू मिरे दर का फ़क़ीर
आदमी इस दौर में ख़ुद्दार हो सकता नहीं
- इक़बाल साजिद


कहां तो तय था चराग़ां हर एक घर के लिए
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
- दुष्यंत कुमार


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