अंग्रेजी साहित्यकार विलियम वर्ड्सवर्थ ने कहा था कि ''पोएट्री इज़ द स्पोंटेनियस ओवरफ्लो ऑफ़ द पावरफुल फीलिंग'' यानि अनुभूतियों या संवेदनाओं का छलक जाना ही कविता है। जाॅन एलिया ने अपनी शायरी में कभी कोई सीमारेखा नहीं खींची। उन्होंने ज़िंदगी के हर उतार-चढ़ाव को न सिर्फ़ शायरी में ढाला बल्कि उसको मस्ती से जिया भी। प्रस्तुत है उनकी 3 चुनिंदा ग़ज़लें-
बे-क़रारी सी बे-क़रारी है
वस्ल है और फ़िराक़ तारी है
जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
निघरे क्या हुए कि लोगों पर
अपना साया भी अब तो भारी है
बिन तुम्हारे कभी नहीं आई
क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है
आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन
साँस जो चल रही है आरी है
उस से कहियो कि दिल की गलियों में
रात दिन तेरी इंतिज़ारी है
हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो
हम हैं और उस की यादगारी है
इक महक सम्त-ए-दिल से आई थी
मैं ये समझा तिरी सवारी है
हादसों का हिसाब है अपना
वर्ना हर आन सब की बारी है
ख़ुश रहे तू कि ज़िंदगी अपनी
उम्र भर की उमीद-वारी है
वस्ल- मिलन
फ़िराक़- वियोग
हिज्र- जुदाई
विसाल- मिलाप
सारी दुनिया के ग़म हमारे हैं
और सितम ये कि हम तुम्हारे हैं
दिले-बर्बाद ये ख़याल रहे
उसने गेसू नहीं सँवारे हैं
उन रफ़ीक़ों से शर्म आती है
जो मिरा साथ दे के हारे हैं
और तो हम ने क्या किया अब तक
ये किया है कि दिन गुज़ारे हैं
उस गली से जो हो के आये हों
अब तो वो राहरौ भी प्यारे हैं
‘जॉन’ हम ज़िन्दगी की राहों में
अपनी तन्हारवी के मारे हैं
रफ़ीकों- मित्रों
राहरौ- पथिकों
तन्हारवी- अकेला चलना
दिल जो दीवाना नहीं आख़िर को दीवाना भी था
भूलने पर उस को जब आया तो पहचाना भी था
जानिया किस शौक़ में रिश्ते बिछड़ कर रह गये
काम तो कोई नहीं था पर हमें जाना ही था
अजनबी सा एक मौसम एक बेमौसम सी शाम
जब उसे आना नहीं था जब उसे आना भी था
जानिए क्यूं दिल की वहशत दर्मियां में आ गयी
बस यूं ही हम को बहकना भी था बहकाना भी था
इक महकता सा वो लम्हा था कि जैसे इक ख़याल
इक ज़माने तक उसी लम्हें को तड़पाना भी था
कभी-कभी तो बहुत याद आने लगते हो
कि रूठते हो कभी और मनाने लगते हो
गिला तो ये है तुम आते नहीं कभी लेकिन
जब आते भी हो तो फ़ौरन ही जाने लगते हो
ये बात 'जाॅन' तुम्हारी मज़ाक है कि नहीं
कि जो भी हो उसे तुम आज़माने लगते हो
तुम्हारी शाइरी क्या है भला, भला क्या है
तुम अपने दिल की उदासी को गाने लगते हो
सुना है कहकशानों में रोज़ो-शब ही नहीं
तो फिर तुम अपनी ज़ुबां क्यूं जलाने लगते हो
दिल जो है आग लगा दूँ उस को
और फिर ख़ुद ही हवा दूँ उस को
जो भी है उस को गँवा बैठा है
मैं भला कैसे गँवा दूँ उस को
तुझ गुमाँ पर जो इमारत की थी
सोचता हूँ कि मैं ढा दूँ उस को
जिस्म में आग लगा दूँ उस के
और फिर ख़ुद ही बुझा दूँ उस को
हिज्र की नज्र तो देनी है उसे
सोचता हूँ कि भुला दूँ उस को
जो नहीं है मिरे दिल की दुनिया
क्यूँ न मैं 'जौन' मिटा दूँ उस को