वतन में पैदा हुए हर शख़्स के मन में उसके लिए एक जज़्बा और गर्व का भाव होता है। प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता है कि वह कहीं न कहीं अपने देश के लिए कुछ कर सके, उसके लिए काम आ सके। इसी पर शायरों ने भी कुछ अल्फ़ाज़ यूं कहे हैं।
दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फ़त
मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वफ़ा आएगी
- लाल चन्द फ़लक
बोझ उठाए हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मीं माँ तेरी ये उम्र तो आराम की थी
- परवीन शाकिर
इसी जगह इसी दिन तो हुआ था ये एलान
अंधेरे हार गए ज़िंदाबाद हिन्दोस्तान
- जावेद अख़्तर
उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता
जिस मुल्क की सरहद की निगहबान हैं आंखें
- अज्ञात
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलसिताँ हमारा
- अल्लामा इक़बाल
ग़ुर्बत की ठंडी छाँव में याद आई उस की धूप
क़द्र-ए-वतन हुई हमें तर्क-ए-वतन के बाद
- कैफ़ी आज़मी
दिलों में हुब्ब-ए-वतन है अगर तो एक रहो
निखारना ये चमन है अगर तो एक रहो
- जाफ़र मलीहाबादी
जहाँ जाऊँ वतन की याद मेरे साथ रहती है
निशाते-महफ़िले- आबाद मेरे साथ रहती है
- सीमाब अकबराबादी
वतन के जां-निसार हैं वतन के काम आएंगे
हम इस ज़मीं को एक रोज़ आसमां बनाएँगे
- जाफ़र मलीहाबादी
काम वतन के आ न सके जो वह जीवन भी क्या जीवन है
करके कुछ दिखला न सके जो वह जीवन भी क्या जीवन है
- महावीर प्रसाद ‘मधुप’