दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया
इसका रोना नहीं क्यों तुमने किया दिल बरबाद
इसका ग़म है कि बहुत देर से बरबाद किया
एक ऐसा शायर जो ज़िंदगीभर वतन परस्त रहा, मानवता जिसका धर्म रहा, उसे अचानक हिंदुस्तान में अपना भविष्य धूमिल दिखाई देने लगा और अंतत: एक समय ऐसा भी आया कि उर्दू अदब का यह मक़बूल शायर पाकिस्तान चला गया लेकिन उसकी रूह हिंदुस्तान में ही रही और नतीजा यह निकला कि पाकिस्तान ने वादाख़िलाफी की और वहां उस शायर की दुर्गति हुई और हिंदुस्तान के वे रहे नहीं।
मैं बात बात कर रहा हूं उर्दू के मशहूर शायर जोश मलीहाबादी की। जोश उत्तर प्रदेश के लखनऊ के मलीहाबाद में 1896 में पैदा हुए। इनके पूर्वज मुहम्मद बुलंद खां नवाबी शासनकाल में काबुल से भारत आए। कुछ समय फर्रुखाबाद में गुजारने के बाद स्थाई रूप से मलीहाबाद में बस गए और अवध राज्य के उच्च पदों पर प्रतिष्ठित रहे।
जोश ने शायराना वातावरण में ही आंखें खोली, शायराना माहौल में ही ठुमक ठुमक कर चलना सीखा। विरासत में जागीर के बदले शायरी मिली। लेकिन जोश के पिता नहीं चाहते थे कि वे शायरी करें। जोश पर उनके वालिद ने पहरे बिठा रखे थे कि शेर न कहने पाएं लेकिन शायरी जिसकी रगों में हो उसे कौन रोक सकता है।
जोश मलीहाबादी जवाहरलाल नेहरू के नज़दीकी थे और नेहरू जोश के मुरीद। कई बार दोनों की शामें एक-दूसरे की सोहबत में गुज़रती थीं। नेहरू ने उनके कई मुशायरे सुने थे। कहा जाता है कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे के बाद नेहरू ही वह असल वजह थे जिसके कारण 'जोश' हिन्दुस्तान का दामन थामे बैठे हुए थे।
जोश की शिक्षा-दीक्षा मुस्लिम संस्कृति में हुई लेकिन होश संभालते ही जोश मज़हबी बंधनों से मुक्त हो गए और मानव धर्म में दीक्षित हो गए। और उन्होंने लिखा-
जब कभी भूले से अपने होश में होता हूं मैं
देर तक भटके हुए इंसान पर रोता हूं मैं
फिर रहा है आदमी भूला हुआ भटका हुआ
इक न इक लेबिल हर इक माथे पै है लटका हुआ
सन 1955 की बात है एक मुशायरे के सिलसिले में जोश को पाकिस्तान जाना पड़ा और वहां उन्होंने 2-3 महीने बिताये। उसी दौरान जोश के सामने उनके पुराने पाकिस्तानी मित्र सैयद अबूतालिब नक़वी चीफ़ कमिश्नर,करांची ने ये प्रस्ताव रखा कि- 'यदि आप भारत को छोड़कर पाकिस्तान को अपना वतन मान लें तो 19000 रुपया मासिक की आय का स्थायी प्रबंध किया जा सकता है, जो आपके बाद आपके संतान को भी मिलती रहेगी। पाकिस्तान सरकार उर्दू के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए एक समिति बनाना चाहती है जिसकी अध्यक्षता आप स्वीकृत कर लें।'
भटक के जो बिछुड़ गए हैं रास्ते पर आएंगे
लपक के एक दूसरे को फिर गले लगाएंगे
15 अगस्त 1947 को अपने मनोभाव इस प्रकार व्यक्त करने वाले जोश मलीहाबादी को अब पाकिस्तान बसने का चीफ़ कमिश्नर का प्रस्ताव रास आने लगा।
प्रस्ताव सुनकर जोश साहब ने फ़र्माया अपने भारतीय मित्रों से राय-मशवरे के बाद ही तस्वीर क्लियर हो सकती है। भारत आने पर जोश साहब ने पं. नेहरू, मौलाना आज़ाद आदि अपने हितैषियों से राय-मशवरा किया तो सभी ने पाकिस्तान जाकर बसने के लिए असहमति प्रकट की।
अपनी आत्मकथा 'यादों की बारात' में जोश मलीहाबादी ने लिखा है- नेहरू जी ने पहले तो मना कर दिया लेकिन बाद में जब जोश के दबाव डालने के बाद उन्होंने कहा- अगर आप अपने बच्चों का आर्थिक और सांस्कृतिक भविष्य संवारने के लिए पाकिस्तान जाना चाहते हैं( जैसा कि आपने कहा) तो फिर आप ऐसा करें कि अपने बच्चों को पाकिस्तानी बन जाने दें और आप यहीं रहें और हर साल पूरे 4 महीने पाकिस्तान में रहकर आप उर्दू की ख़िदमत कर आया करें। भारत सरकार आपको हर साल पूरी तनख़्वाह 4 महीने की छुट्टी दे दिया करेगी। पाकिस्तान जाकर जोश मलीहाबादी ने जब यह बात चीफ़ कमिश्नर अबूतालिब नक़वी को बताई तो नक़वी साहब ने जोश की खुशियों पर पानी फेर दिया। उन्होंने कहा ऐसा क्यों होगा कि आप पाकिस्तानी बाशिंदे न बनें और यहां ज़मीन का अलाॅटमेंट आपके नाम हो जाए, हमारे वास्ते यह नामुमकिन हो जाएगा कि हम आपके वास्ते सिनेमा हाॅल बनवाएं, बाग़ लगवाएं। यहां के लोग आपको पाकिस्तानी समझेंगे। जोश साहब ! दो किश्तियों में पांव रखकर दरिया पार नहीं किया जा सकता। जोश चीफ़ कमिश्नर की बातों में फंस गये।
और बुढ़ापे में जोश पाकिस्तान चले गए लेकिन उनका यह निर्णय उन पर बहुत भारी पड़ा और पाकिस्तान में उनकी हालत और भी ख़राब हो गयी। वहां जो उन पर गुज़री वह किसी सदमे से कम नहीं।
सरकार ने वहां बसने के एवज में उनके लिए काफ़ी इंतज़ाम और वादे किये थे इससे पाकिस्तानी नाख़ुश थे। तमाम शायर फिर बीच-बीच में वे हिंदुस्तान भी आते थे और पाकिस्तानी उनके नेहरू प्रेम से नावाकिफ़ नहीं थे। लिहाज़ा, पाकिस्तान में उनके ख़िलाफ़ हो एक वातावरण बन गया था। लोगों ने कहा कि सरकार ने आधा पाकिस्तान जोश को घूस में दे दिया है। तमाम अदीब, शायर और कार्टूनसाज़ों ने अपनी-अपनी कलमों की तलवारें म्यान से निकालकर जोश के ख़िलाफ़ लेख, कविता और कार्टूनों की भरमार कर दी। उन्हें गद्दार और भारत का एजेंट तक बताया गया। नाकामियों का तांता लग गया।
- जहांगीर रोड का सिनेमा प्लाट और बाग लगाने की ज़मीन जोश ने ख़ुद वापस कर दी।
- एक सोसािटी का सिनेमा प्लाट जोश के नाम छूटा, क़ीमत अदा न कर सके,इसलिए हाथ से निकल गया।
- काश्तकारी के लिए डेप्युटी कमिश्नर करांची ने 50 एकड़ ज़मीन दी थी जिसे अल्ताफ़ गौहर साहब ने ज़ब्त कर ली।
- साइकिल- रिक्शा के परमिट मिले, भाव गिर गया, परमिट हवा में उड़ गये।
- किसी तरह कोल्डस्टोरेज की इज़ाजत मिली, रूपया लगाने वालों को बरगला दिया गया।
- टेक्सटाइल का इजाज़तनामा मिलने ही वाला था कि वज़ीर बदल गया।
हालात इस कदर बिगड़ गए कि जोश साहब का मुशायरों में जाना बंद हो गया और वे वहां स्वयं को तन्हा महसूस करने लगे। 1967 में वे एक दफ़ा चंद महीनों के लिए हिन्दुस्तान आये और इस दौरान उन्होंने मुंबई में एक अखबार में इंटरव्यू दिया।
उसका नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान सरकार ने उनकी सरकारी नौकरी छीन ली। जोश मलीहाबादी के जीवन आख़िर के कुछ साल गुमनामी में गुज़रे और इसी अफ़सोस में 22 फरवरी 1982 को वे इस दुनिया से रुख़सत हो गए।
जोश का इंतकाल तो पाकिस्तान में हुआ लेकिन उनकी आत्मा आज भी लखनऊ के मलीहाबाद के आम के बाग़ों में ही फिरती होगी।