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Classic shayar best shayari collection

Classic shayar best shayari collection
Classic shayar best shayari collection

अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फ़ैसला
जिस दिए में जान होगी वो दिया रह जाएगा
- महशर बदायूंनी



तेरी आंखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हां मुझी को ख़राब होना था
- जिगर मुरादाबादी


जानवर आदमी फ़रिश्ता ख़ुदा
आदमी की हैं सैकड़ों क़िस्में
- अल्ताफ़ हुसैन हाली


दम-ए-विसाल तिरी आंच इस तरह आई
कि जैसे आग सुलगने लगे गुलाबों में
- अनवर सदीद


अमीर मीनाई (1829 - 1900)

तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर
सरफ़रोशी की तमन्ना है तो सर पैदा कर


गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है 'अमीर'
क़द्र खो देता है हर रोज़ का आना जाना


हुए नामवर बे-निशां कैसे कैसे
ज़मीं खा गई आसमां कैसे कैसे


'अमीर' अब हिचकियां आने लगी हैं
कहीं मैं याद फ़रमाया गया हूं


दाग़ देहलवी (1831-1905)

हज़ारों काम मोहब्बत में हैं मज़े के 'दाग़'
जो लोग कुछ नहीं करते कमाल करते हैं


आप का एतिबार कौन करे
रोज़ का इंतिज़ार कौन करे


सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं


ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
मैं जो कह दूं आप पर मरता हूं मैं


ख़्वाजा मीर दर्द (1720-1785)

सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहां
ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहां


ज़िंदगी है या कोई तूफ़ान है!
हम तो इस जीने के हाथों मर चले


दुश्मनी ने सुना न होवेगा
जो हमें दोस्ती ने दिखलाया


है ग़लत गर गुमान में कुछ है
तुझ सिवा भी जहान में कुछ है


मीर तक़ी मीर (1723-1810)

दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया


पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है


शाम से कुछ बुझा सा रहता हूं
दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का


इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवां से उठता है


शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ (1790-1854)

ऐ 'ज़ौक़' तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर
आराम में है वो जो तकल्लुफ़ नहीं करता


अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे


तुम भूल कर भी याद नहीं करते हो कभी
हम तो तुम्हारी याद में सब कुछ भुला चुके


बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल-लगी चले

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