लुका-छुपी
कभी-कभार कोई सोच परछाईं जैसी बन जाती है। हम उससे लाख पीछा छुड़ाने की कोशिश करें लेकिन वो हमसे, हमारे दिल से, हमारे दिमाग से दूर नहीं हो पाती। हम जितना भी तेज़ उससे दूर भागें, उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। हम दुनियावी चीज़ों से दूर भाग सकते हैं लेकिन खुद से दूर भागना असम्भव है। राहुल सिर्फ़ एक इंसान या दीप्ति का दोस्त ही नहीं था बल्कि पिछले चौबीस घंटों में उसकी सोच बन गया था। वह उससे दूर तो भाग सकती थी लेकिन उसकी याद फिर भी परछाई बनकर हर पल उसके साथ थी। वह किसी न किसी बहाने से दिल को बहलाना चाहती थी। शायद इस कोशिश में वह कुछ-कुछ कामयाब भी हो जाती लेकिन तभी एक कॉल ने दीप्ति के सब मंसूबों को मलिया-मेट कर दिया।
“हैलो! हैलो!! क्या मेरी आदाज़ सुन रही हो?", दीप्ति की तरफ से कोई आदाज़ ना पाकर राहुल फिर बोला मगर दीप्ति इस बार भी मौन थी। वह इसी असमंजस में थी कि राहुल से मिले या नहीं? आख़िर क्या बात हो सकती है जो मुझे इतना ज़रूरी मिलना चाहता है?
“हुह???", दीप्ति अचानक से चौंक कर अपने ख्यालों से बाहर निकलती हुई बोली, "वो... आज मुझे कुछ काम है। आज मैं नहीं आ पाऊँगी।"
"ठीक है, फिर कल कॉलेज में मिल तेहैं", राहुल की आदाज़ में मायूसी छलक रही थी लेकिन उसकी आदाज़ से उसकी सदाबहार मुस्कान की मिठास का अहसास उसके कान अभी भी कर रहे थे। उसने बाय बोलकर फोन रख तो दिया लेकिन उसे ऐसा लग रहा था कि राहुल उसे देख रहा था और अपना झूठ पकड़े जाने पर वह झेँप गई थी। राहुल का मुस्कुराता चेहरा दीप्ति की आँखों में ढसा हुआ था।
“किसकी कॉल थी दीपू?", दीप्ति खड़ी-खड़ी ख्यालों में गुम थी कि मॉम ने उसे देखकर पूछा।
“वो... दो... प्रिया थी। आज मैं कॉलेज नहीं गई तो पूछ रही थी कि ठीक तो हूँ", उसने बहाना सोचते हुए कहा। दीप्ति अपनी मॉम और नानी से कुछ नहीं छुपाती थी मगर आज उसने दोनों से शायद पहली बार झूठ बोला था।
दीप्ति इस झूठ के बोझ से ज़मीन में गढ़ी जा रही थी लेकिन उसने समझ नहीं आ रहा था कि उसने अपनी मॉम और नानी से झूठ क्यों बोला था। झूठ तो दह खुद से भी बोल रही थी। लेकिन बार-बार उसके मन में यह विचार उधल-पुथल मचा रहा था कि इतने सालों दाद दोनों अचानक क्यों मिले और अचानक ही वह राहुल के लिए इतनी खास कैसे हो गई? क्या राहुल उसे भूला नहीं था? ऐसी कौन-सी ज़रूरी बात थी जिसके लिए वह कल तक का इन्तज़ार नहीं कर पा रहा था? अगर उसने कोई ऐसी-वैसी बात कह दी तो? वह न तो उसे अपनी मजबूरी बता सकती थी और न ही मना कर सकती थी। वह उसका दिल तोड़ने से भी डर रही थी। राहुल उसके बचपन का दोस्त, शायद उससे भी कुछ ज़्यादा ही था।
शाम के ७ बज चुके थे और बुटीक पर ग्राहकों की चहल-पीहल ज़्यादा थी। आस-पास के इलाके में यह एक ही बुटीक था। दीप्ति की नज़र सब देख रही थी लेकिन उसका मन कोई ले उड़ा था। कुछ देर पहले उसके मोबाइल पर एक-एक करके दो मैसेज आए थे जिन्हें दह व्यस्तता के कारण देख नहीं सकी थी। उसने मोबाइल देखा तो राहुल के मैसेज थे। एक दोस्ती ठाला प्यारा-सा मैसेज था और दूसरा एक चुटकुला था जिसे पढ़कर उसे हँसी तो नहीं आई लेकिन एक मुस्कान उसके दोनों नर्म गुलाबी होंठों को जुदा करती हुई उसके उदास मन को थोड़ा हल्का कर गई जैसे पूरे दिन बादलों के पीछे छुपे सूरज ने दर्शन दिए हों लेकिन अगले ही पल फिर से राहुल का ख्याल आते ही वह उदास हो गई और उम्मीद के सूरज को दोबारा फिक्र के बादलों ने घेर लिया। दीप्ति की राहुल की यादों से लुक्का-छुपी सारा दिन चलती रही, मगर उठते-बैठते उसके दिल-ओ-दिमाग पर फिर वही ख्याल उमड़-उमड़ कर आने लगे।
घर लौट कर उसने कब खाना खायाऔर कब बिस्तर पर लेटी उसे स्वयं पता न चला। दह थक कर सोने का प्रयास कर ही रही थी कि मोबाइल पर आए एक संदेश ने उसका ध्यान अपनी तरफ खींचा। राहुल ने "शुभरात्रि मेरे सबसे प्यारे दोस्त" लिख कर भेजा था। उसने भी झट से जदाब में 'शुभरात्रि' लिखा और भेजने ही वाली थी कि उसकी उँगलियाँ दहीं रुक गईं। पिछली रात को खुद से किया वादा उसे याद आ गया। दिल जवाब भेजने को कह रहा था और दिमाग मना कर रहा था। तभी उसने लिखा हुआ जवाब मिटा दिया और अपनी आँखें ज़ोर से बन्द कर ली। गुस्से में उसकी साँसें तेज़ हो रही थी।
यह गुस्सा किस पर था वह ख़ुद नहीं जानती थी। उसने मोबाइल को बिस्तर पर अपनी पहुँच से दूर फैँका और तकिये में मुँह दबा कर सो गई।
जो इन्सान ज्यादा हँसता है, वह अन्दर से उतना ही दुःखी होता है और जो खुद को मज़बूत दिखाता है, दह अन्दर से उतना ही से कमज़ोर होता है। दीप्ति भी ऐसी ही दिखती थी। वह स्वयं को इतना मज़बूत दिखाती थी कि सारी दुनिया से लड़ लेगी, लेकिन उसके अन्दर की छुई-मुई सी लड़की पता नहीं कैसे अचानक से जाग गई थी।
अगली सुबह भी उसका कॉलेज जाने का मन नहीं कर रहा था मगर जाना तो था ही। आज दीप्ति ने यह सोच लिया था कि राहुल से दूर रहने की फिर से कोशिश करेगी। उसका ऐसा व्यवहार देख कर राहुल भी खुद-ब-खुद उससे दूर हो जाएगा। रास्ते में प्रिया के घर से होते हुए दोनों अपनी-अपनी स्कूटी पर कॉलेज के लिए निकल पड़ी। प्रिया का चेहरा थीड़ा उतरा हुआ था। उसे डर था कि उसकी कल दाली गलती पर दीप्ति उसे डाँट न दे मगर दीप्ति को इसका ख्याल भी नहीं था। वह तो ज़बरदस्ती ख़ुश दिखने की कोशिश कर रही थी और प्रिया पर ज्यादा मेहरबान थी। कॉलेज में उसने राहुल को अपनी और देखा तो प्रिया से हँस कर बातें करती हुई राहुल को अनदेखा करके जल्दी से क्लास में घुस गई।
अगले कुछ दिन ऐसा ही चलता रहा। दीप्ति जब भी राहुल को देखती, किसी न किसी बहाने से उससे दूर चली जाती थी। उसकी कॉल पर भी सही से बात नहीं करती थी और मैसेज का जवाब तो कभी दिया ही नहीं था। यूँ ही तीन महीने बीत गए थे लेकिन दीप्ति राहुल से छुपती-छुपाती फिर रही थी। राहुल भी नादान नहीं था, उसे बस सही वक़्त का इन्तज़ार था।
सर्दियाँ शुरु हो चुकी थीं। दरअसल यौदन पर थी। शीत लहर की ठजह से दिल्ली ही नहीं अपितु समस्त उत्तर भारत कंपकंपा रहा था। उस दिन ठिदुरती हुई ज़मीन को कई दिनों बाद सूरज ने टकोर की थी। धूप निकलने पर मानो पूरी प्रकृति किसी मासूम बच्चे की तरह अठखेलियाँ कर रही थी। दीप्ति और प्रिया कॉलेज के ही मैदान की सीढ़ियों पर बैठी धूप सेक रही थी। इस समय वैसे भी पार्क में भीड़ थी जैसे पूरा कॉलेज ही आज धूप के लालच से खुद को रोक न पाया हो। लेकिन दीप्ति का खेल के मैदान में जाने का भी कारण भी राहुल की नज़रों से बचना ही था। जिससे दह इतने समय से भाग रही थी। प्रिया की प्यारी और मासूम ढातों सुनकर वो हँसी से लोट-पोट हुई जा रही थी। उसे अब पता चला था कि प्रिया तो चुटकलों की चलती-फिरती किताब थी। वह दोनों हँस ही रही थी कि उनके कान में एक आवाज़ पड़ी, *"दीप्ति"।
"दीप्ति"।
पीछे राहुल खड़ा था। उसने आज मौका देख कर उससे बात करनी चाही। आज उसे दीप्ति का मूड भी अच्छा लग रहा था। लेकिन उसे देख कर दीप्ति थोड़ा-सा घबरा गई। उसे पता था कि राहुल के सामने वह ज्यादा देर टिक न पाएगी। अगर राहुल दीप्ति को कुछ ऐसी बात कह देता तो दीप्ति भले ही मना कर देती लेकिन सोचने को मजबूर ज़रूर हो जाती क्योंकि उसकी अपनी एक मजबूरी थी।
“तुम मुझे नज़र-अन्दाज़ क्यों कर रही हो?", राहुल ने उसके पास ढैठते हुए पूछा। “न.. नहीं तो", दीप्ति ने हकलाते हुए जवाब दिया। हालांकि उसे भी पता था कि उसकी चोरी पकड़ी जा चुकी थी। “मुझसे तुमसे कुछ बात करनी है", राहुल की आवाज़ में संजीदगी थी।
“कहो", उसने न चाहते हुए भी ज़रा रूखेपन से कहा। राहुल ने प्रिया की तरफ़ देखा से तो वह समझ गई कि वह अकेले में बात करना चाहता था। अपना उतरा-सा मुँह लेकर प्रिया उठ कर जाने लगी तो दीप्ति ने बैठे हुए ही लपक कर प्रिया की कलाई थाम ली।
“प्रिया कोई पराई नहीं, मेरी दोस्त है। जो भी कहना है वह इसके सामने कहो।" दीप्ति के इतना कहते ही प्रिया कभी उसे और कभी राहुल को देख रही थी।
बेपनाह भाग-१०
जब दिल में तेरी याद का मेला लगता है, मैं अक्सर एक बच्चे सा खो जाता हूँ।
अश्क मेरे मुझसे ज्यादा वफ़ादार तेरे, तब भी बहते हैं जब मैं चुप हो जाता हूँ।
अहसास बहुत बड़बोले होते हैं। इतने ज्यादा कि कभी-कभी शब्द उनसे विद्रोह कर बैठते हैं लेकिन फिर भी अहसास अपनी बातें दूसरे दिल तक बिना शब्दों के सहारे पहुँचा ही देते हैं। इन्हें अपने इर्द-गिर्द शब्दों का ताना-बाना बुनने की ज़रूरत नहीं होती। ऊपर वाले की इन्सान को दी गई सबसे प्यारी चीज़ अहसास ही तो है। सिर्फ़ साँस लेना ही ज़िन्दगी नहीं। जो अहसासों की जुबान समझ सके वही इन्सान है लेकिन कोई क्या करे जब गूँगे अहसास खामोशी की ऊँची दीवारें फाँद न पाएं। मान लो अगर बामुशकिल वहाँ तक पहुँच भी जाए तो सामने वाला अगर समझने की कोशिश ही ना करे तो यह काम नामुमकिन हो जाता है। गूँगे अहसास और सामने वाले का बहरा दिल, बात समझना लगभग नामुमकिन सा हो जाता है।
उधर दीप्ति भी राहुल से ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहती थी। वह चाहे उससे रुखाई से बात कर रही थी लेकिन उसके ये शब्द-बाण उसके अपने दिल को ही घायल कर रहे थे जो राहुल को देखते ही धड़क उठता था। उसने अपने दिल को लाख समझाने का प्रयास किया था कि राहुल के लिए उसका आकर्षण उस अल्हड़ उम्र का एक ख़ुमार ही था जो समय के साथ उतर जाना चाहिए था लेकिन उसका दिल बेलगाम घोड़े की तरह सरपट राहुल की ओर भागा जा रहा था।
प्रिया यह सब देख रही थी। ये बातें उसके प्यारे से दिल को छूती थी लेकिन उसके मासूमियत से भरे दिमाग में घर नहीं कर सकती थीं। दह समझ नहीं पा रही थी कि रुके या जाए। दीप्ति के यूँ रोकने पर उसे खुशी भी थी कि वह उसे अपना समझती थी।
राहुल अब भी सोच रहा था और वह बात कैसे शुरू करे। उसने प्रिया की हाज़िरी को दरकिनार करते हुए दीप्ति की तरफ़ देखा, "दीपू!"
राहुल के उसके इस तरह पुकारने से दीप्ति पिघल सी गई। उसके दिमाग का पारा नीचे होने लगा और चेहरे के भाव बदल गए। वह चाहती थी कि राहुल यूँ ही उसे पुकारता रहे। उसे घर से बाहर अगर मॉम या नानी इस नाम से पुकारती थी तो वह खीझ जाती थी कि वह अब एक बच्ची नहीं थी परन्तु राहुल की पुकार में एक कशिश थी। "तुम्हें याद है बचपन में हम एक बार मेले में गए थे और तुम खो गई थी?", राहुल ने बात शुरू करते हुए कहा जिसे सुनकर दीप्ति हैरान थी कि राहुल को आज भी सब कुछ याद था।
“हाँ मैं रोती रही थी और जब २ घंटे बाद मिली थी तुम्हारा भी रो-रो कर बुरा हाल था", दीप्ति भी उसे जताना चाहती थी कि उसकी स्मृति-पटल से कुछ भी साफ नहीं हुआ था।
राहुल को भी ख़ुशी थी की दीप्ति भूली नहीं थी। "मैंने कहा था न कि मेरा हाथ पकड़े रहना।" उसने इस तरह से अधिकार जमा कर कहा जैसे दह अभी उसे मेले से मिली हो।
"और फिर एक दिन अचानक तुम ही हाथ छोड़ गए थे", दीप्ति के मुँह से अचानक निकल तो गया लेकिन ढाद में उसे ख्याल आया कि वह क्या बोल गई थी। “उस समय मैं मजबूर था लेकिन मैं अपनी सबसे अच्छी दोस्त को कभी नहीं भूला था", राहुल ने दीप्ति की आँखों में झाँकने की कोशिश करते हुए देखा से दीप्ति ने नज़र घुमा ली लेकिन आज वह बात करने का मन बना कर आया था।
“दिल्ली आने के बाद सब कुछ बदल गया। एक ढड़ा-सा घर, नौकर-चाकर, गाड़ियाँ, ऐश-ओ-आराम, सब कुछ है। लेकिन इन सब की कीमत भी चुकानी पड़ी। मेरे आस-पास के रिश्तों को यह दौलत खा गई। डैड को अपने कारोबार से फुर्सत नहीं और मम्मा को अपनी सोशल लाइफ से। अप्पू भी उसी रंग में रंगी हुई है। लोगों की भीड़ में ऐसा एक भी इन्सान नहीं जिससे दिल की बात कह सकूँ। सब कमल रैना का बेटा होने की वजह से मेरी इज्ज़त करते हैं लेकिन राहुल को कोई नहीं जानता। सब कहते हैं कि हमेशा मस्कराता रहता हैँ लेकिन इस मस्कान के पीछे का दर्द कोई नहीं देख पाता। मैं इस भीड़
में भी खुद को अकेला महसूस करता हूँ। मेरी एक दोस्त हुआ करती थी जिससे मैं अपना हर सुख-दुःख, हर जज़्बात बाँटता था। शायद वह दुनिया के मेले में कहीं खो गई है। उसे ढूँढने में मेरी मदद करेगी?" इतना कह कर राहुल ने अपनी और दीप्ति की बचपन की कुछ तस्वीरें उसके सामने रख दी।
यह सब देख सुनकर दीप्ति एकदम भावुक हो गई। राहुल ने अब तक उसकी तस्वीरें वैसे ही सहेज कर रखी थीं। समय की धूलन तो उसकी यादों पर जमी थी और न ही तस्वीरों पर। वह प्रत्येक तस्वीर को बार-बार गौर से देख रही थी। हर तस्वीर की एक कहानी थी और हर कहानी के साथ एक याद, जो फिर से दीप्ति के दिमाग में किसी फिल्म की तरह चल रही थी। उसकी आँखें शर्म से झुकी जा रही थी। उसे स्वयं की गलती अनुभव हो रही थी। उसने राहुल को कुछ और समझा था लेकिन वह अब भी दैसा ही था, दिल की ढात मुँह पर कह देने वाला। उसने नज़र उठा कर देखा तो राहुल के हमेशा मुस्कुराते चेहरे पर एक उदासी थी।
"मुझे माफ़ कर दो राहुल। अब मैं तुम्हें कभी अकेलापन महसूस नहीं होने टूँगी। समझो तुम्हें वही दीपू फिर से मिल गई", दीप्ति ने आँखों में नमी लेकर सिर झुका लिया और राहुल का हाथ अपने हाथों में लेकर उसे आश्वासन दिया।
दीप्ति के मन में अब कोई सदाल नहीं था। उसकी सारी शंकाओं का समाधान हो चुका था। अब उसे अपनी मनचली हसरतों को इतनी गहराई में दफ़नाना था कि दोबारा सिर न उठा सकें।
समय से बड़ा न तो कोई क्रूर है और न ही उससे बड़ा कोई दयावान। समय अगर ज़ख्म देता है तो मरहम भी वही लगाता है। राहुल से मिल कर दीप्ति का पुराना ज़ख्य ताज़ा ज़रूर हो गया था लेकिन इस ज़ख्य का मरहम भी उसे राहुल से ही मिल सकता था। दो भी ऐसा ज़ख्य जिसका निशान भी वह किसी को न तो दिखा सकती थी और न ही उसके बारे में बात कर सकती थी।
दिन-ब-दिन दोनों की दोस्ती पुराने रंग में लौटने लग गई थी। दीप्ति ने राहुल की बात घर पर बताई तो उसकी मॉम और नानी ने उसे घर बुलाने को कहा। राहुल तो था ही सबके साथ घुल-मिल जाने वाला। उसने आते ही दोनों का दिल जीत लिया था। वह तो नानी से भी बातें करता रहता था। कभी-कभार तो वह दीप्ति की अनुपस्थिति में भी नानी से मिलने आ जाता था।
राहुल जितना मस्त-मौला था, उतना ही भावुक भी। दीप्ति पर भी उसकी संगत का ज़रा-सा ही सही लेकिन असर ज़रूर हुआ था। वह अब छोटी-छोटी ढातों में खुशी ढूँढने लगी थी लेकिन बाकी मामलों में वह पहले जैसी ही थी। प्रिया तो भोली- भाली लेकिन ज़िंदा दिल लड़की थी। दीप्ति की तरह राहुल भी उसका ढच्चों की तरह ख्याल रखता था। तीनों की दोस्ती गहरी होती जा रही थी।
यूँ ही कुछ महीने और बीत गए और परीक्षा की हृदय-विदारक घड़ियाँ अपना खट्टे-मीठे अनुभव छोड़ती हुई बड़ी मुश्किल से रेंगती हुई गुज़रीं। अपनी-अपनी परीक्षाएं खत्म होने के बाद एक शाम दीप्ति और राहुल एक रेस्त्रां में तनाद उतारने के लिए बैठे थे।
"तुम्हें नहीं लगता कि प्रिया में कुछ बदलाव आ गया है?” दीप्ती ने अपनी मनपसन्द बटरस्कॉच आइसक्रीम खाते समय राहुल से पूछा।
"हाँ पहले कुछ सहमी सी रहती थी लेकिन अब उसमें जैसे आत्म-विश्वास जाग गया है", राहुल ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा।
"दो तो है लेकिन मैं कुछ और कहना चाहती हूँ। आजकल वह मुझसे दूर-दूर रहने लगी है", दीप्ति ने अपनी कुलबुलाहट बताई क्योंकि इतने दर्षों में उसे भी प्रिया की आदत पड़ गई थी।
"अब तुम उसे हर समय अपने पल्लू से तो बाँध कर नहीं रछ सकती। उसकी अपनी ज़िन्दगी है, जी लेने दो उसे", राहुल ने अपने हमेशा दाले बेफ़िक्री दाले अन्दाज़ में कहा। दैसे भी उसे दीप्ति से ही मतलब था। प्रिया अब भी उससे कुछ दूर ही थी।
"अच्छा छोड़ो यह सब। यह बताओ, तुम्हारी पढ़ाई तो पूरी हो गई। आगे की क्या योजना है? मेरा मतलब तुम्हारा क्या सपना है?" दीप्ति ने बात बदलते हुए उसके भविष्य की योजना जानने की जिज्ञासा से पूछा मगर राहुल ने लम्बी साँस छोड़ी तो दीप्ति ने आश्चर्य से आँखें बड़ी करते हुए उसकी तरफ देखा।
राहुल के होठों पर एक रूखी-सी मुस्कान थी मगर आँखों में अफसोस उभर आया था। "दोनों अलग-अलग बातें हैं। योजना तो डैड के कारोबार में हाथ बँटाने की है और सपना...", अपनी बात कहते हुए राहुल रुक गया जैसे उसके लिए यह बात करना भी निषिद्ध हो।
दीप्ति को लगा जैसे उसने राहुल की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। दह राहुल की दढात समझ नहीं पाई थी और उसने आइसक्रीम से ध्यान हटा कर प्रश्नात्मक दृष्टि से राहुल की ओर देखा।
“मैं एक गायक बनना चाहता हूं। मैं गायन में एक राष्ट्रीय स्तर प्रतियोगिता में भी भाग लिया था। लेकिन जब डैड को पता चला तो उन्होंने मुझे मजबूर किया प्रतियोगिता से अपना नाम वापस लूँ और साथ ही उन्होंने मेरी गिटार भी तोड़ दी। उसके बाद इतना डाँटा कि गिटार को आज तक हाथ नहीं लगाया। कभी-कभी सोचता हूँ कि सब कुछ छोड-छाड़ कर किसी ऐसी जगह चला जाऊँ जहाँ कोई जानता ना हो। उन गरीब बच्चों को संगीत सिखाना चाहता हूँ जो प्रतिभावान होते हुए भी पैसों की कमी के कारण आगे नहीं बढ़ पाते", राहुल ने विचारों के समुद्र की तलहटी तक डूढते हुए शून्य में देखकर कहा। दीप्ति ने ताली बजाते हुए उसकी तारीफ़ की तो वह अपने सपने से बाहर आया। उन दोनों की नजरें मिलीं और इससे पहले कि दीप्ति उसकी आँखों में खो जाती, उसने नज़र चुरा ली। उसका दिल एक अजीब-सी चाल में धड़क रहा था।
तभी दीप्ति ने कुछ दूरी पर एक व्यक्ति को अपनी ओर गौर से देखते हुए पाया जैसे उसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो परन्तु दीप्ति उसे पहचान गई थी। उस व्यक्ति के सामने एक औरत बैठी थी जिसकी पीठ दीप्ति की ओर होने के कारण वह उसका चेहरा नहीं देख पाई थी।
दीप्ति उस व्यक्ति को देखकर हैरान रह गई। उसने उस व्यक्ति को होंठों पर अपना लाते हुए उसने देख लिया था हालांकि दूरी ज्यादा होने के कारण वह सुन नहीं पाई थी मगर हिलते होंठों से वह समझ गई थी कि वह उसी का नाम बड़बड़ाया था। उसके मुँह से यह नाम सुनकर उस व्यक्ति के सामने बैठी औरत ने पीछे मुड़कर देखा और फिर शायद कुछ कठोर शब्द उस व्यक्ति से कहे जिससे दोनों में हो रही ढात बहस में बदल गई। दीप्ति को इसका अन्दाज़ा उन दोनों के चेहरे के भाव और उनकी ऊँची आवाज़ से हो गया था।
“यहाँ से चलो राहुल", दीप्ति ने राहुल को उठने का इशारा किया और खुद भी उठ कर चल दी। “क्या हुआ?" राहुल ने उसकी घबराहट भाँपते हुए पूछा। उसे दीप्ति का यह अजीब व्यवहार समझ में नहीं आया था। “कुछ नहीं। बस चलो यहाँ से", दीप्ति ने राहुल का हाथ पकड़ा और बाहर की ओर बढ़ गई। राहुल भी बिना और कुछ पूछे उसके साथ चल पड़ा। दीप्ति ने जाते हुए देखा कि उन आदमी और औरत की बहस अब झगड़े में बदल चुकी थी। औरत उसे डाँट रही थी और दह भी सबके सामने अपमानित नहीं होना चाहता था। वहाँ मौजूद लोगों का मुफ्त में मनोरंजन हो रहा था। दीप्ति ने रेस््त्रां से बाहर निकल कर भी उसका हाथ न छोड़ा और उसे वहाँ से दूर ले गई।
“आखिर हुआ क्या दीपू?”, राहुल कुछ समझ न पाया था। राहुल ने हाथ छुड़ा कर उसे कन्धे से पकड़ा तो दीप्ति अपने ख्यालों से बाहर निकली। उसका चेहरा किसी अनजाने डर से पीला पड़ गया था।
किस्मत शायद आज ही दीप्ति को सब तरह से चौंकाने वाली थी। जैसे आज ही वह उसकी सब परीक्षाएं लेने दाली थी। अभी दीप्ति सम्भली भी नहीं थी कि उसकी नज़र एक और चीज़ पर पड़ी जिसने उसे एक और झटका दिया।
“प्रिया!” दीप्ति बीच सड़क पर चिल्लाई। वह तो सिर्फ निश्चिन्त होना चाहती थी लेकिन मन ही मन चाह रही थी कि दो लड़की प्रिया न हो। लेकिन उसका हवा में चलाया गया तीर उस समय ठीक निशाने पर बैठा जब उस लड़की ने इधर-उधर देखा। हालांकि वह यह नहीं जान पाई थी कि उसे किसने पुकारा था लेकिन उसकी घबराहट ने सब साफ कर दिया था कि ठह प्रिया ही थी। उसके बाइक वाले के साथ चले जाने के बाद भी दीप्ति फटी आँखों से मुँह खोले उधर देखती रही और राहुल अबोध बालक की तरह उसे।
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