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Gopaldas neeraj best songs and poems collection Hindi Poem and Songs



गोपालदास ‘नीरज’ यानि गीत गगन का ध्रुवतारा...



Gopaldas neeraj best songs and poems collection


गीत जब मर जाएंगे फिर क्या यहां रह जाएगा
एक सिसकता आंसुओं का कारवां रह जाएगा।
प्यार की धरती अगर बंदूक से बांटी गई
एक मुरदा शहर अपने दरमियां रह जाएगा।



ये पंक्तियां हिंदी के यशस्वी कवि और गीत ऋषि गोपालदास नीरज ने लिखी थीं। दरअसल, वे प्रेम के सच्चे पुजारी थे और इसकी अहमियत से दुनिया को वाकिफ भी कराया। उन्होंने बताया कि बिना प्यार के, बिना गीतों के यह जीवन सिसकते आंसुओं का कारवां भर रह जाता है। यही वजह रही कि वे आखिरी सांस तक गीत रचते रहे और गाते रहे। एक ही ख़्वाहिश रही कि जब सांसें साथ छोड़ें तब भी होठों पर कोई खू़बसूरत नगमा हो। वे तमाम उम्र प्रेम की भाषा में ही बात करते रहे और इसी को अपनी रचनाओं का मूलाधार बनाया। उन्होंने हिंदी कविताओं को तो नया सौंदर्य दिया ही, हिंदी सिनेमा के गीतों को भी सतरंगी छटा से भर दिया। ऐसे-ऐसे गीत गढ़े, जो बरसों बाद भी लोगों की ज़ुबान पर हैं और रहेंगे।

मंचों और महफ़िलों की शान रहे गोपालदास नीरज को गीत गगन का ध्रुवतारा कहें, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे ऐसी इकलौती शख्सियत थे, जिन्हें शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में दो बार पद्म पुरस्कार दिया गया। भारत की सरकार ने एक बार उन्हें पद्मश्री से नवाजा तो दूसरी बार पद्मभूषण से। हिंदी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ गीतकार के रूप में तीन बार 'फिल्मफेयर पुरस्कार' मिला सो अलग। गोपालदास 'नीरज' का असली नाम गोपालदास सक्सेना था। नीरज उनका तख़ल्लुस था, जो उन्होंने बाद में अपने नाम में जोड़ा। उनका जन्म 4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के पुरावली गांव में हुआ था। पिता का नाम ब्रजकिशोर सक्सेना था। बचपन में ही सिर से पिता का साया उठ गया। इसके बाद तो उन्होंने जीवन से मानो रार ही ठान दी। समस्याओं से जूझते हुए नीरज ने 1942 में हाई स्कूल की परीक्षा फर्स्ट डिवीजन से पास की।


गुजर-बसर के लिये उन्होंने इटावा की कचहरी में टाइपिस्ट का काम शुरू कर दिया। इसके बाद एक सिनेमा हाॅल की दुकान पर नौकरी की। लंबे समय तक बेकार रहने के बाद वे दिल्ली चले गए और वहां सफाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी करने लगे। यह नौकरी भी छूट गई। इसके बाद उन्हें कानपुर के डीएवी काॅलेज में लिपिक का काम मिला। यही नहीं एक प्राइवेट कंपनी में पांच सालों तक टाइपिस्ट के रूप में नौकरी की।


जीवन-यापन के लिये नौकरी जरूरी थी, लेकिन इस बीच उन्होंने अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ी। प्राइवेट छात्र के रूप में 1949 में इंटर किया। फिर 1951 में बी.ए. की परीक्षा पास की और 1953 में हिंदी से एम.ए. किया। संघर्षों के बीच गीत रचते रहे। कवि सम्मेलनों के मंचों से खुद ही अपनी रची कविताएं और गीत गाते रहे। कहते हैं कि एक रोज हिंदी फिल्मों के निर्माता आर चंद्रा ने उनका एक गीत सुना और उनके मुरीद हो गए। उन्होंने नीरज से अपनी फिल्म ‘नई उमर की नई फसल’ के लिए गीत लिखने की गुज़ारिश की। घर की माली हालत देखते हुए नीरज ने यह पेशकश कबूल ली, हालांकि अपनी शर्तों पर, और मुंबई चले गए। वह 1965-66 का समय था। नीरज ने आर चंद्रा की फिल्म के लिये गीत लिखे। पहली ही फिल्म के गीतों ने अपनी अलग छाप छोड़ी। उनकी कलम से निकले ‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’ और ‘देखती ही रहो आज दर्पण न तुम/प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा’ जैसे गीत बेहद लोकप्रिय हुए। इसके बाद उन्होंने कई फिल्मों के गीत लिखे और सिनेमा की दुनिया के उम्दा गीतकारों में शुमार किये जाने लगे।


नीरज हिंदी सिनेमा के शो मैन राजकपूर और सदाबहार अभिनेता देवानंद के काफी क़रीब थे। उन्होंने राजकपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के लिये ‘ए भाई जरा देख के चलो’ जैसा छंदमुक्त गीत लिखा। इसे हिंदी सिनेमा का पहला छंदमुक्त गीत कहा जाता है, जिसे रचने का श्रेय नीरज को जाता है। 1968 में आई फिल्म ‘कन्यादान’ के गीत ‘लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में हजारों रंग के नजारे बन गए....' ने पूरे सिनेमा जगत का ध्यान नीरज की तरफ खींचा।


इसके बाद 1971 में आई ‘शर्मीली’ और ‘गैम्बलर’ जैसी कई फिल्मों के यादगार गीत भी नीरज ने ही लिखे। सत्तर के दशक में उन्हें गीत लिखने के लिये लगातार तीन बार 'फिल्मफेयर पुरस्कार' मिला। यह थी नीरज की काबिलियत। वैसे कुछ ही सालों में मायानगरी से उनका मोहभंग हो गया और 1973 में वे फिर से अलीगढ़ चले आए। उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिये सवा सौ से ज्यादा गीत लिखे। खास बात यह कि हर गीत अपने आप में अनूठा, नशीला, दिल को छू जाने वाला। ठीक नीरज की तरह। सचबयानी करें तो नीरज ने वही लिखा, जो भोगा। और इसे शब्दों में ढालने की अदभुत कला उनका गुलाम थी। दिल की बात जुबां पर लाने का तरीका कोई नीरज से सीखे। उन्होंने गीतों में प्यार भरा। तभी तो खुद ही कहा भी-

आज भले तुम कुछ भी कह लो, पर कल सारा विश्व कहेगा
नीरज से पहले गीतों में सब कुछ था पर प्यार नहीं था।


उनकी कविताओं में गेयता है। उसके भीतर गीतों की लहर है, जिसे नीरज के गाते ही सुनने वाले महसूस करने लगते थे। उन्होंने हिंदी को नई उड़ान दी। कविता को जीवन से जोड़ा और जन-जन के कंठहार बन गए। लोगों के दिलों पर राज करने वाले नीरज को हिंदी साहित्य के झंडाबरदारों ने कवि मानने से एतराज जताया, उन्हें मंचीय कवि माना, जबकि कविताओं और गीतों की पहुंच के मामले में वे महाकवि थे।


हालांकि यह कोई नई बात नहीं रही है, हिंदी के जिन कवियों ने मंचों या सिनेमा जगत का रूख किया, उनके साथ झंडाबरदारों ने मजे में नाइंसाफी की। और नीरज तो दोनों जगहों पर धूम मचा चुके थे। उपेक्षा के इस भाव का एहसास नीरज को भी था। तभी तो उन्होंने कहा था कि कवि सम्मेलन उनके लिये घातक साबित हुए। हिंदी के झंडाबरदार इसी आधार पर उन्हें आंकने लगे। वैसे उन्होंने यह कहकर पहले ही जता दिया था कि लाख भुलाने की कोशिश करोगे, सदियों तक नीरज याद आयेगा-


इतने बदनाम हुए हम तो इस जमाने में
लगेंगी आपको सदियां हमें भुलाने में
न पीने का सलीका न पिलाने का शउर
ऐसे भी लोग चले आए हैं मयखाने में।



हकीकत इसके ठीक उलट रही, हर कोई नीरज की तरह हो जाना चाहता है, लेकिन हो नहीं पाता। यह बड़ा मुश्किल है। राष्ट्रकवि दिनकर यूं ही नहीं उन्हें ‘हिंदी की वीणा’ कहा करते थे। भदंत आनंद कौसल्यायन उन्हें ‘हिंदी का अश्वघोष’ कहते थे। हालांकि नीरज खुद को लोकप्रिय और जनवादी कवि मानते थे। उन्होंने चमचम चूनर-चोली पर लिखने की बजाय फटी कमीजों के गुण गाने का जोखिम मोल लिया। मज़हबों का कोई मतलब उनके लिये नहीं था। उनके लिये दुनिया सबकी थी। वे सिर्फ और सिर्फ मोहब्बत का पैगाम बांटते थे, जैसा कि उनके निधन के बाद मशहूर शायर राहत इंदौरी ने कहा। खुद नीरज ने भी लिखा है-


अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिस में इंसान को इंसान बनाया जाए



जिस की ख़ुश्बू से महक जाए पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सम्त खिलाया जाए



आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जा के नहाया जाए



प्यार का ख़ून हुआ क्यूँ ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए



मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूका तो तुझ से भी न खाया जाए


जिस्म दो हो के भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आँसू तेरी पलकों से उठाया जाए


गीत अनमन है ग़ज़ल चुप है रुबाई है दुखी
ऐसे माहौल में 'नीरज' को बुलाया जाए



यकीनन, नीरज का न होना अखरता है। उनके जाने से गीत गुमसुम है, ग़ज़ल चुप है और रूबाई दुखी है। वे ऐसे रचनाधर्मी थे, जिन्होंने आदमी को आदमी होने की तहज़ीब सिखाई। ताउम्र प्रेम की भाषा में बात करते रहे। आदमी से प्यार करने जैसा ‘अपराध’ नीरज ही कर सकते थे और उन्होंने खुले मंचों से इसे गाया भी, कहा कि जमाने वालों ! मैं तो करता ही हूं, यह अपराध तुम सब करो-

बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं
आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं


एक खिलौना बन गया दुनिया के मेले में
कोई खेले भीड़ में कोई अकेले में
मुस्कुरा कर भेंट हर स्वीकार करता हूं
आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं


मैं बसाना चाहता हूं स्वर्ग धरती पर
आदमी जिसमें रहे बस आदमी बनकर
उस नगर की हर गली तैयार करता हूं
आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं।


गोपाल दास 'नीरज' को भारत सरकार ने 1991 में पद्मश्री पुरस्कार दिया। 2007 में उन्हें पद्मभूषण से नवाजा गया। इसके अलावा भी उन्हें 'यश भारती' और 'विश्व उर्दू पुरस्कार' जैसे कई सम्मान मिल चुके थे। हालांकि वे शोहरत के लिये कभी नहीं जिये। उनकी बस एक ही ख़्वाहिश थी, जो वे कहा भी करते थे कि अगर दुनिया से रूख़सती के वक्त आपके गीत और कविताएं लोगों की जुबान पर हों, दिलों में हों, तो यही आपकी सबसे बड़ी पहचान होगी। ऐसी ख़्वाहिश हर फ़नकार को होती है, लेकिन नसीब विरलों को होती है। नीरज विरले ही थे। नीरज जब तक रहे तब तक अपने नग़मों की बदौलत लोगों के दिलों पर एकछत्र राज किया और जाने से पहले इसका मुकम्मल इंतजाम कर गए कि खाक में मिल जाने के बाद भी दुनिया याद करे। उन्हीं की लिखी ये पंक्तियां मौजू हैं-

आंसू जब सम्मानित होंगे मुझको याद किया जाएगा
जहां प्रेम की चर्चा होगी मेरा नाम लिया जाएगा
मान पत्र मैं नहीं लिख सका, राजभवन के सम्मानों का
मैं तो आशिक रहा जन्म से, सुंदरता के दीवानों का
लेकिन था मालूम नहीं ये, केवल इस गलती के कारण
सारी उम्र भटकने वाला, मुझको शाप दिया जाएगा।

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