‘समाज’ पर शायरों के अल्फ़ाज़
लोग दिल की कहें तो कैसे कहें
चाहता है समाज सन्नाटा
- सलमान अख़्तर
क्या क्या न तरस तरस गए हम
क्या क्या न समाज हम ने देखा
- गौहर होशियारपुरी
इस के आईन नहीं अब जो अमल के क़ाबिल
तो इसे कर दो रिटाइर कि पुराना है समाज
- शौक़ बहराइची
अभी है वक़्त संभालो समाज को लोगों
तमाम क़द्रों का ढहना कोई मज़ाक़ नहीं
- डॉक्टर आज़म
हुकूमतों को बदलना तो कुछ मुहाल नहीं
हुकूमतें जो बदलता है वो समाज भी हो
- निदा फ़ाज़ली
दोस्तो वक़्त की ज़रूरत है
फिर बनाएं नया समाज कोई
- मंसूर फ़ाइज़
सौंपोगे अपने बाद विरासत में क्या मुझे
बच्चे का ये सवाल है गूँगे समाज से
- अशअर नजमी
गिर गई हैं समाज की क़द्रें
चढ़ गया आदमी बुलंदी पर
- सिराज फ़ैसल ख़ान
चलो के मिल के बदल देते हैं समाजों को
मिटा दें सारे ज़माने के बद रिवाजों को
- तासीर सिद्दीक़ी
लाला माधव राम जौहर के चुनिंदा शेर
तुझ सा कोई जहान में नाज़ुक-बदन कहां
ये पंखुड़ी से होंट ये गुल सा बदन कहां
थमे आंसू तो फिर तुम शौक़ से घर को चले जाना
कहां जाते हो इस तूफ़ान में पानी ज़रा ठहरे
जो दोस्त हैं वो मांगते हैं सुल्ह की दुआ
दुश्मन ये चाहते हैं कि आपस में जंग हो
समझा लिया फ़रेब से मुझ को तो आप ने
दिल से तो पूछ लीजिए क्यूं बे-क़रार है
आ गया 'जौहर' अजब उल्टा ज़माना क्या कहें
दोस्त वो करते हैं बातें जो अदू करते नहीं
मोहब्बत को छुपाए लाख कोई छुप नहीं सकती
ये वो अफ़्साना है जो बे-कहे मशहूर होता है
दुनिया बहुत ख़राब है जा-ए-गुज़र नहीं
बिस्तर उठाओ रहने के क़ाबिल ये घर नहीं
कटते किसी तरह से नहीं हाए क्या करूं
दिन हो गए पहाड़ मुझे इंतिज़ार के
दिल में आओ मज़े हों जीने के
खोल दूं मैं किवाड़ सीने के
हो न दुश्मन को मोहब्बत से सरोकार कभी
कोई दुनिया में किसी को न करे प्यार कभी
झगड़े-फ़साद पर चुनिंदा शेर...
मिरे वजूद से कम तेरी जान थोड़ी है
फ़साद तेरे मिरे दरमियान थोड़ी है
- शुजा ख़ावर
तुम अभी शहर में क्या नए आए हो
रुक गए राह में हादसा देख कर
- बशीर बद्र
गुज़रा था अपने शहर से रावन फ़साद का
ज़ालिम मोहब्बतों की कथाएँ भी ले गया
- फ़ारूक़ अंजुम
दुश्मन नहीं वह अपने ही थे राज़ खुल गया
रौशन फ़साद में ये मकाँ इस क़दर हुआ
- तासीर सिद्दीक़ी
जुनूँ को होश कहाँ एहतिमाम-ए-ग़ारत का
फ़साद जो भी जहाँ में हुआ ख़िरद से हुआ
- इक़बाल अज़ीम
फ़साद, क़त्ल, तअस्सुब, फ़रेब, मक्कारी
सफ़ेद-पोशों की बातें हैं क्या बताऊँ मैं
- मुजाहिद फ़राज़
इल्ज़ाम अपनी मौत का मौसम पे क्यूँ धरूँ
मेरे बदन में मेरे लहू का फ़साद था
- हिमायत अली शाएर
अब तो वो नस्ल भी मादूम हुई जाती है
जो बताती थी फ़सादात से पहले क्या था
- शनावर इस्हाक़
ये कौन आग लगाने पे है यहाँ मामूर
ये कौन शहर को मक़्तल बनाने वाला है
- ख़ुर्शीद रब्बानी
रह भी सकता है तिरा नाम कहीं लिक्खा हुआ
सारे जंगल की तो पड़ताल नहीं कर सकते
- नादिर अरीज़
चंद लम्हों का नहीं ये उम्र भर का है सफ़र
राह की पड़ताल कर ले राहबर को देख ले
- तनवीर सिप्रा
ज़र्फ़ की बात न कर फूट पड़ें तो लावे
ख़ुद पहाड़ों के दहानों से निकल जाते हैं
- नक़्क़ाश आबिदी
'राही' हर एक सम्त फ़साद ओ इनाद के
छाए हुए फ़ज़ाओं में बादल हैं आज भी
- दिवाकर राही
हर-चंद सहारा है तिरे प्यार का दिल को
रहता है मगर एक अजब ख़ौफ़ सा दिल को
-शोहरत बुख़ारी