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Kaifi Azmi 101st Birth Anniversary : कैफ़ी आज़मी की 101वीं जयंती (Kaifi Azmi 101st Birth Anniversary )पर पढ़ें उनकी मशहूर गजल

Kaifi Azmi  101st Birth Anniversary कैफ़ी आज़मी की 101वीं जयंती (Kaifi Azmi 101st Birth Anniversary )पर पढ़ें उनकी मशहूर गजल



Kaifi Azmi  101st Birth Anniversary:



Kaifi Azmi  101st Birth Anniversary : मशहूर गीतकार और शायर कैफ़ी आज़मी की आज 101वीं जयंती है। आज़मी साहब का जन्म 11 जनवरी 1919 में आजमगढ़ में हुआ था। उन्हें बचपन से ही पढ़ने लिखने का शौक था, जिसे उन्होंने आगे तक बरकरार रखा। आज़मी साहब ने बॉलीवुड को कई बेहतरीन गीत दिए, जो कि आज तक लोग गुनगुनाते हैं। उनकी जयंती के मौके पर पढ़ें उनकी लिखी यह खास गजल...


कैफ़ी का जन्म 14 जनवरी 1919 को आजमगढ़ के मिजवां में हुआ था। उ्न्होंने मात्र 11 साल की उम्र में अपनी पहली नज़्म कह दी थी। इसके बाद मुशायरों का दौर शुरु हो गया और वह जल्द ही देश के साथ-साथ विदेश में भी प्रसिद्ध हो गए। कैफ़ी के वालिद ज़मींदार थे, लेकिन कैफ़ी का मिज़ाज अलग था। जब वे सात साल के थे, तब ईद पर नए कपड़े इसलिए नहीं पहनते थे क्योंकि किसानों के बच्चों को नए कपड़े नहीं मिलते थे। वे कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य हो गए और उन्हीं के मुंबई स्थित रेड फ़्लैग हॉल में रहते थे। जहां उनके साथ 8 परिवार रहा करते थे। उनकी विवाह शौकत से हुआ जिनसे उनके दो बच्चे शबाना और बाबा आज़मी हैं। शबाना आज़मी प्रसिद्ध हिंदी फ़िल्म अदाकारा हैं।

कैफ़ी आज़मी के लिखे शेर कैफ़ी आज़मी की मुशायरों में आमद बेहद ख़ास होती थी। लोगों की दाद नहीं रुकती थी और हर शेर पर मुकर्रर कहा जाता था। मुशायरे ही थे कि उनकी मुलाक़ात शौकत से हुई और उन्हें उनकी बेग़म मिल गयीं। यहां पढ़ें मुशायरों से कैफ़ी आज़मी के चुनिंदा शेर



शोर यूँ ही न परिंदों ने मचाया होगा
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा


पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा


बानी-ए-जश्न-ए-बहाराँ ने ये सोचा भी नहीं
किस ने काँटों को लहू अपना पिलाया होगा


बिजली के तार पे बैठा हुआ हँसता पंछी
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा


अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे
हर सराब उन को समुंदर नज़र आया होगा



होंटों को सी के देखिए पछ्ताइएगा आप
हंगामे जाग उठते हैं अक्सर घुटन के बाद


इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद


की है कोई हसीन ख़ता हर ख़ता के साथ
थोड़ा सा प्यार भी मुझे दे दो सज़ा के साथ
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गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो
डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ


ख़ार-ओ-ख़स तो उठें रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया क़ाफ़िला तो चले


बेलचे लाओ खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ़्न हूँ कुछ पता तो चले


बस्ती में अपनी हिंदू- मुस्लमां जो बस गए
इंसां की शक्ल देखने को हम तरस गए



कच्चे मकान चंद गिरे भी तो क्या हुआ
बादल बरसने आए थे आकर बरस गए

कहीं अँधेरे से मानूस हो न जाए अदब
चराग़ तेज़ हवा ने बुझाए हैं क्या क्या


जब उस ने हार के ख़ंजर ज़मीं पे फेंक दिया
तमाम ज़ख़्म-ए-जिगर मुस्कुराए हैं क्या क्या

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