Rahat Indori best shayari collection
उर्दू तहज़ीब के वटवृक्ष डाॅ. राहत इंदौरी के शेर...
डाॅ, राहत इंदौरी उर्दू तहज़ीब के ऐसे वटवृक्ष हैं जिसकी छाया में कई नवांकुर शायर और कवि बैठे हैं जिन्होंने उस वृक्ष की छाया महसूस की है। लंबे अरसे से श्रोताओं के दिल पर राज करने वाले राहत साहब की शायरी में हिंदुस्तानी तहज़ीब का नारा बुलंद है। कहते हैं शायरी और ग़ज़ल इशारे का आर्ट है, राहत साहब इस आर्ट के मर्मज्ञ हैं। वे कहते हैं कि अगर मेरा शहर अगर जल रहा है और मैं कोई रोमांटिक ग़ज़ल गा रहा हूं तो अपने फ़न, देश, वक़्त सभी से दगा कर रहा हूं।
राहत साहब का जन्म 1 जनवरी 1950 को इंदौर में स्वर्गीय रिफ़तुल्लाह क़ुरैशी एवं मक़बूल बी के घर चौथी संतान के रूप में हुआ। राहत साहब ने आरंभिक शिक्षा देवास और इंदौर के नूतन स्कूल से प्राप्त करने के बाद इंदौर विश्वविद्यालय से उर्दू में एम.ए. और 'उर्दू मुशायरा' शीर्षक से पीएच.डी. की डिग्री हासिल की। उसके बाद 16 वर्षों तक इंदौर विश्वविदायालय में उर्दू साहित्य के अध्यापक के तौर पर अपनी सेवाएं दी और त्रैमासिक पत्रिका 'शाखें' का 10 वर्षों तक संपादन किया। पिछले 40-45 वर्षों से राहत साहब राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मुशायरों की शान बने हुए हैं। प्रस्तुत है राहत इंदौरी की ग़ज़लों से चुनिंदा शेर-
आसमां ओढ़ के सोए हैं खुले मैदां में
अपनी ये छत किसी दीवार की मोहताज नहीं
हमसे पहले भी मुसाफ़िर की गुज़रे होंगे
कम से कम राह का पत्थर तो हटाते जाते
मुहब्बतों का सबक़ दे रहे हैं दुनिया को
जो ईद अपने सगे भाई से नहीं मिलते
मां के क़दमों के निशां हैं कि दिए रौशन हैं
ग़ौर से देख यहीं पर कहीं जन्नत होगी
ये ज़िंदगी जो मुझे क़र्ज़दार करती है
कहीं अकेले में मिल जाए तो हिसाब करूं
पहले दीप जलें तो चर्चे होते थे
और अब शहर जलें तो हैरत नहीं होती
ख़्वाबों में जो बसी है वो दुनिया हसीन है
लेकिन नसीब में वही दो गज़ ज़मीन है
आग में फूलने-फलने का हुनर जानते हैं
न बुझा हमको के जलने का हुनर जानते हैं
लोग हर मोड़ पे रुक रुक के संभलते क्यूं हैं
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यूं हैं
नींदें क्या-क्या ख़्वाब दिखाकर गायब हैं
आखें तो मौज़ूद हैं मंजर गायब हैं
कभी दिमाग़, कभी दिल, कभी नज़र में रहो
ये सब तुम्हारे ही घर हैं, किसी भी घर में रहो
ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था
मैं बच भी जाता तो इक रोज मरने वाला था
बुलंदियों का नशा टूट कर बिखरने लगा था
मेरा जहाज़ ज़मीं पर उतरने वाला था
दरबदर जो थे वो दीवारों के मालिक हो गए
मेरे सब दरबान, दरबानों के मालिक हो गए
लफ़्ज गूंगे हो चुके तहरीर अंधी हो चुकी
जितने मुख़बिर थे वो अक़बारों के मालिक हो गए
अब ना मैं हूं, ना बाकी हैं ज़माने मेरे
फिर भी मशहूर है शहरों में फसाने मेरे
ज़िंदगी है तो कई ज़ख्म भी लग जाएंगे
अब भी बाकी हैं की दोस्त पुराने मेरे
दिए बुझे हैं मगर दूर तक उजाला है
ये आप आए हैं या दिन निकलने वाला है
रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है
रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं
रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है
उस की याद आई है साँसों ज़रा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है
साभार: राहत इंदौरी, दो क़दम और सही, नुमाइंदा शायरी,