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छपाकवीरों का मौसम, Chhapakveero ka mausam


छपाकवीरों का मौसम 
कुछ लोग हमेशा तपाक से जवाब देते हैं । तपाक से दिए हुए जवाब बुजुर्गों को अच्छे नहीं लगते ।


छपाकवीरों का मौसम, Chhapakveero ka mausam
छपाकवीरों का मौसम, Chhapakveero ka mausam



 बुजुर्ग नाराज हो जाएं तो पिटाई का डर बना रहता है । कई बुजुर्गों ने तो अपनी औलादों को संपत्ति से बेदखल कर तपाक को तड़ाक में बदल डाला । शायद यही कारण है कि अब लोग छपाक तक आ गए हैं ।



लेकिन अपना तो छपाक का अनुभव भी बहुत अच्छा है । बचपन में बारिश के मौसम में सड़क किनारे किसी गड्ढे में पानी भरा देखकर छपाक की कोशिश करते थे

तो नौबत अक्सर तू तड़ाक तक पहुंच जाया करती थी । कई लोग तो कमजोर बच्चा जानकर चटाक - पटाक भी कर देते थे । हम मन ही मन अपने साथ मारपीट करने वाले को कुंभीपाक नर्क में सड़ने की बद्दुआ देते हुए घर लौट जाया करते थे । छपाक फिर छप - छप कर रहा है ।


इस बार तो बड़े - बड़े लोग छपाक के कारण तू तड़ाक में उलझ रहे हैं । मैं बचपन से लेकर आज तक नहीं समझ सका कि आखिर कुछ लोगों को छप - छप या छपाक से इतनी परेशानी क्यों होती है ? अरे भाई , छपाक - छपाक खेलने से कुछ लोगों का दिल बहलता है तो बहल जाने दो । दुनिया में औरों को भी तो इस बात का हक है कि वे मन की बात कर लें । वैसे भी थोड़ी देर छपाक - छपाक खेल कर सब अपने - अपने घर लौट जाते हैं ।




उम्र भर कौन बारिश के पानी से खेलने में अपना समय बर्बाद करता है ? हम बचपन में बारिश के पानी में कागज की नाव तैराया करते थे । टीचर से आंख बचाकर कक्षा में कागज के हवाई जहाज उड़ाया करते थे । तब हमें मालूम नहीं था कि लोकतंत्र में कागज की नावें चलाकर बड़े बड़े संकटों से पार हुआ जा सकता है । कागज के जहाज चलाकर बड़े बड़े युद्धों को जीता जा सकता है । लोकतंत्र तो कागजी घोड़ों के दम पर दौड़ रहा है ,



लेकिन छपाक छपाक खेलने वालों को यह बात समझ में नहीं आती । वे तो जहां पानी से भरा गड्ढा देखते हैं , छपाक - छपाक खेलने के लिए उसमें कूद पड़ते हैं । कोई उन्हें कैसे समझाए कि दुनिया में पानी का कितना बड़ा संकट पैदा होने वाला है । वे छपाक से पानी बर्बाद करने की बजाए , बचाने की कोशिश करें तो सभ्यता का ज्यादा भला होगा । छपाक - छपाक करने में पानी इधर आमद उधर फैलता है । पानी की कागज से भी पुरानी दुश्मनी है । छपाक से बाहर आया पानी कागज के घोड़ों को भी तो नुकसान पहुंचा सकता  है ।



कागज के घोड़े गल गए तो लोकतंत्र पंगु हो जाएगा । फिर छपाक - छपाक का मजा लेने वाले ही शोर मचाएंगे कि लोकतंत्र ठीक ढंग से नहीं चल रहा है । हालत यह है कि अब तो छुपे रुस्तम खुद को छपाक रुस्तम कहलाने की जुगत में जुटे हैं और छुटभैयों की कोशिश है कि कोई छपाक - वीर उन्हें भी अपना शागिर्द बनाकर छपाक - भैया घोषित करवा दे ।




लेखकों के छपास रोग को कोसने वाले आलोचक छपाक पर बात करने में मशगूल हो गए हैं । कुल मिलाकर हर तरफ एक छपाक महोत्सव - सा चल रहा है और आप तो जानते हैं कि छपाक से उड़ने वाले छींटों को यह पता ही नहीं होता कि वे किस पर गिर रहे हैं और क्यों गिर रहे हैं । आइए , हम भी छपाक - छपाक खेलें ।




अतुल कनक


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