Hawa Ka Jhonka Hindi Story' हवा का झोंका' भाग-1
यह विडंबना ही थी कि जो खुशियां श्वेता के हिस्से में आनी चाहिए थीं वे उस की छोटी बहन पल्लवी के दामन में चली गई थीं.
यह विडंबना ही थी कि जो खुशियां श्वेता के हिस्से में आनी चाहिए थीं वे उस की छोटी बहन पल्लवी के दामन में चली गई थीं. श्वेता ने भी हालात से समझौता कर लिया था. लेकिन यह वक्त का कैसा फेर था कि पल्लवी की वजह से खुशियां एक बार फिर उसे मिल रही थीं?
छोटी बहन पल्लवी की मृत्यु का तार पाते ही मैं व्यग्र हो उठी. मन सैकड़ों प्रकार की आशंकाओं से भर उठा. तार झूठा तो नहीं, भला बिना किसी बीमारी के पूरी तरह स्वस्थ युवती की मृत्यु हो सकती है? ऐसा कैसे हो सकता है?
मैं कई बार उलटपलट कर तार के कागज को घूरती रही, उस पर छपे अक्षरों को पढ़ती रही, कहीं भी कुछ जाली नहीं था. मेरे तनमन में शीतलहर सी दौड़ती चली गई. पिछले महीने ही तो मैं दिल्ली जा कर पल्लवी, उस के पति तरुण व 3 महीने की प्यारी सी रुई के गोले जैसी बिटिया नूरी से मिल कर आई थी. तब कहां सोचा था, कुछ दिन बाद मुझे पल्लवी की मृत्यु की सूचना मिलेगी.
उस वक्त पल्लवी मुझे देख कर प्रसन्नता से खिल उठी थी. अपनी बिटिया को छाती से चिपकाए, वह सैकड़ों प्रकार की सुखद कल्पनाओं में डूबी रहती थी. उस के राहतभरे संतुष्ट चेहरे से सुखी दांपत्य जीवन का आभास मिलता था. फिर अचानक ऐसा क्या हादसा हो गया? कौन सी आकस्मिक बीमारी ने पल्लवी को छीन कर उस हरीभरी बगिया को उजाड़ डाला?
अपने कमरे में लगी पल्लवी की मुसकराती तसवीर को देख कर मैं देर तक आंसू बहाती रही. रात में दिल्ली के लिए कोई गाड़ी नहीं थी. रातभर रोती रही. सुबह छुट्टी का आवेदनपत्र छात्रावास की एक सहेली को पकड़ा कर व पहली गाड़ी पकड़ मैं रवाना हो गई.
उस के घर पहुंची तो बाहर सड़क तक जनसमूह फैला हुआ था. लोगों की भीड़ ने सफेद चादर से ढकी पल्लवी की लाश को घेर रखा था. भीड़ में खड़ी कई महिलाएं, जो किसी महिला संस्था की सदस्याएं प्रतीत होती थीं, पल्लवी के ससुराल वालों के खिलाफ नारे लगा रही थीं, गिरफ्तारी की मांग कर रही थीं. भीड़ के लोग भी ससुराल वालों के विरुद्ध बोल रहे थे.
मैं भीड़ को चीर कर अंदर पहुंची तो देखा अंदर मांपिताजी, भैयाभाभी सभी उपस्थित थे. सभी चीखचिल्ला कर पल्लवी के सासससुर व पति पर दोषारोपण कर रहे थे कि उन्होंने पल्लवी को दहेज के लालच में आग में जला कर मार डाला है.
मुझे देखते ही शोकविह्वल मां मुझ से लिपट कर रो पड़ीं. पिताजी पल्लवी की लाश की ओर व तरुण की ओर इशारा कर के गरज उठे, ‘‘देख लिया, इस नराधम ने मेरी फूल सी बेटी को कितनी बर्बरता से जला कर मारा है? क्या कमी थी मेरी बच्ची में? कौन सी कमी छोड़ी थी मैं ने दहेज देने में? रंगीन टीवी, फ्रिज, स्कूटर सभी कुछ तो दिया था.’’
भैया बिफर उठे, ‘‘ये लोग दहेज के लालची हैं, ये दहेज में मोटरगाड़ी चाहते थे, हम लोग देने में असमर्थ थे. इसीलिए इन लोगों ने मेरी बहन को जला कर मार डाला, ताकि दूसरा विवाह कर के लाखों का दहेज फिर से पा सकें.’’
पहली बार मैं ने पिताजी व भैया के मुंह से तरुण व उस के मांबाप के लिए अशोभनीय शब्द सुने थे, मोटरगाड़ी के बारे में सुना था. कभी किसी ने तरुण को दहेज का लालची नहीं बतलाया था. सभी उन्मुक्त स्वर में उस के भले स्वभाव की प्रशंसा करते नहीं थकते थे.
भीड़ में तरुण भी था, जो लोगों की जलीकटी, आरोप, प्रत्यारोप, नफरत, आक्रोश बरदाश्त करता हुआ, आंसुओं में तरबतर निरीह चेहरा लिए मां के सान्निध्य को तरसती अपनी दुधमुंही बच्ची को चुप कराने, संभालने में लगा हुआ था.
उस के घबराए मांबाप लोगों के सामने अपनी सफाई पेश कर रहे थे कि उन को तरुण के अतिरिक्त अन्य कोई बेटा या बेटी नहीं है. वे खूब देखभाल कर अपनी पसंद की बहू घर में लाए थे. फिर वे अपनी प्यारी बहू को जला कर क्यों मारेंगे?
लेकिन उन की आवाज नक्कारखाने में तूती की भांति दब कर रह गई थी. उन की सुनने वाला कोई नहीं था. सभी उन्हें दोषी ठहराने के लिए कटिबद्ध थे.
आक्रोश से उबलते पिताजी व भैया ने मेरे आने से पूर्व ही थाने में तरुण व उस के मांबाप के खिलाफ दहेज कानून के अंतर्गत रपट लिखवा दी थी. पल्लवी की लाश का पोस्टमार्टम हो चुका था. मृत्यु का कारण, अत्यधिक जल जाना सिद्ध हो चुका था.
पुलिस वालों ने गिरफ्तारी से पूर्व तरुण व उस के मांबाप को पल्लवी की शवयात्रा में शामिल होने व शवदाह करने की अनुमति प्रदान कर दी थी.
लोग अरथी उठा कर बाहर ले जाने लगे तो तरुण शोकविह्वल हो कर पल्लवी की कोयला बन चुकी काया से लिपट कर फफकफफक कर रोने लगा. लोग व्यंग्य कसने लगे कि पुलिस, कानून व जनआक्रोश से बचने के लिए ही तरुण यह सब दिखावा कर रहा है, नहीं तो क्या दहेजलोभियों के सीनों में भी दिल हुआ करता है?
तरुण व उस के मातापिता से किसी को रत्तीभर सहानुभूति नहीं थी. पल्लवी का अंतिम संस्कार हो चुकने के बाद जब पुलिस वाले उन तीनों को गिरफ्तार कर के ले गए तभी लोगों का क्रोध शांत हो पाया.
इतनी बड़ी कोठी में मैं, मांपिताजी, भैयाभाभी व तरुण के पुराने बूढ़े नौकर के अतिरिक्त और कोई बाकी नहीं रहा. पल्लवी की ससुराल के दूर के रिश्तेदार भी पुलिस के पचड़े में पड़ने के डर से घबरा कर अपनेअपने घर चले गए.
मांपिताजी अपनी लाड़ली, दुलारी बेटी पल्लवी की असामयिक मृत्यु से कुछ इस प्रकार बौखलाए हुए थे कि तरुण व उस के मांबाप की गिरफ्तारी से भी उन के मन को शांति नहीं मिल पाई थी.
नींद किसी की आंखों में नहीं थी. सभी बैठक में सोफों पर बैठ कर परस्पर विचारविनिमय करने लगे कि तरुण व उस के मांबाप को कड़ी से कड़ी सजा किस प्रकार दिलवाई जाए. सभी तरुण को फांसी के फंदे पर लटका हुआ देखने को उतावले थे.
मैं पल्लवी की दुधमुंही बिटिया को छाती से चिपकाए न मालूम कहां, किस विचार में खोई हुई थी कि भैया के स्वर ने मुझे चौंका दिया, ‘‘श्वेता, तुम्हारे पास भी तो पल्लवी के पत्र आते होंगे. अपनी ससुराल में मिल रहे अत्याचारों के बारे में उस ने अवश्य लिखा होगा.’’
आगे पढ़ें- ऐसा तो कुछ भी नहीं लिखा? वह यहां हर तरह से खुश थी…
यह विडंबना ही थी कि जो खुशियां श्वेता के हिस्से में आनी चाहिए थीं वे उस की छोटी बहन पल्लवी के दामन में चली गई थीं.
यह विडंबना ही थी कि जो खुशियां श्वेता के हिस्से में आनी चाहिए थीं वे उस की छोटी बहन पल्लवी के दामन में चली गई थीं. श्वेता ने भी हालात से समझौता कर लिया था. लेकिन यह वक्त का कैसा फेर था कि पल्लवी की वजह से खुशियां एक बार फिर उसे मिल रही थीं?
छोटी बहन पल्लवी की मृत्यु का तार पाते ही मैं व्यग्र हो उठी. मन सैकड़ों प्रकार की आशंकाओं से भर उठा. तार झूठा तो नहीं, भला बिना किसी बीमारी के पूरी तरह स्वस्थ युवती की मृत्यु हो सकती है? ऐसा कैसे हो सकता है?
मैं कई बार उलटपलट कर तार के कागज को घूरती रही, उस पर छपे अक्षरों को पढ़ती रही, कहीं भी कुछ जाली नहीं था. मेरे तनमन में शीतलहर सी दौड़ती चली गई. पिछले महीने ही तो मैं दिल्ली जा कर पल्लवी, उस के पति तरुण व 3 महीने की प्यारी सी रुई के गोले जैसी बिटिया नूरी से मिल कर आई थी. तब कहां सोचा था, कुछ दिन बाद मुझे पल्लवी की मृत्यु की सूचना मिलेगी.
उस वक्त पल्लवी मुझे देख कर प्रसन्नता से खिल उठी थी. अपनी बिटिया को छाती से चिपकाए, वह सैकड़ों प्रकार की सुखद कल्पनाओं में डूबी रहती थी. उस के राहतभरे संतुष्ट चेहरे से सुखी दांपत्य जीवन का आभास मिलता था. फिर अचानक ऐसा क्या हादसा हो गया? कौन सी आकस्मिक बीमारी ने पल्लवी को छीन कर उस हरीभरी बगिया को उजाड़ डाला?
अपने कमरे में लगी पल्लवी की मुसकराती तसवीर को देख कर मैं देर तक आंसू बहाती रही. रात में दिल्ली के लिए कोई गाड़ी नहीं थी. रातभर रोती रही. सुबह छुट्टी का आवेदनपत्र छात्रावास की एक सहेली को पकड़ा कर व पहली गाड़ी पकड़ मैं रवाना हो गई.
उस के घर पहुंची तो बाहर सड़क तक जनसमूह फैला हुआ था. लोगों की भीड़ ने सफेद चादर से ढकी पल्लवी की लाश को घेर रखा था. भीड़ में खड़ी कई महिलाएं, जो किसी महिला संस्था की सदस्याएं प्रतीत होती थीं, पल्लवी के ससुराल वालों के खिलाफ नारे लगा रही थीं, गिरफ्तारी की मांग कर रही थीं. भीड़ के लोग भी ससुराल वालों के विरुद्ध बोल रहे थे.
मैं भीड़ को चीर कर अंदर पहुंची तो देखा अंदर मांपिताजी, भैयाभाभी सभी उपस्थित थे. सभी चीखचिल्ला कर पल्लवी के सासससुर व पति पर दोषारोपण कर रहे थे कि उन्होंने पल्लवी को दहेज के लालच में आग में जला कर मार डाला है.
मुझे देखते ही शोकविह्वल मां मुझ से लिपट कर रो पड़ीं. पिताजी पल्लवी की लाश की ओर व तरुण की ओर इशारा कर के गरज उठे, ‘‘देख लिया, इस नराधम ने मेरी फूल सी बेटी को कितनी बर्बरता से जला कर मारा है? क्या कमी थी मेरी बच्ची में? कौन सी कमी छोड़ी थी मैं ने दहेज देने में? रंगीन टीवी, फ्रिज, स्कूटर सभी कुछ तो दिया था.’’
भैया बिफर उठे, ‘‘ये लोग दहेज के लालची हैं, ये दहेज में मोटरगाड़ी चाहते थे, हम लोग देने में असमर्थ थे. इसीलिए इन लोगों ने मेरी बहन को जला कर मार डाला, ताकि दूसरा विवाह कर के लाखों का दहेज फिर से पा सकें.’’
पहली बार मैं ने पिताजी व भैया के मुंह से तरुण व उस के मांबाप के लिए अशोभनीय शब्द सुने थे, मोटरगाड़ी के बारे में सुना था. कभी किसी ने तरुण को दहेज का लालची नहीं बतलाया था. सभी उन्मुक्त स्वर में उस के भले स्वभाव की प्रशंसा करते नहीं थकते थे.
भीड़ में तरुण भी था, जो लोगों की जलीकटी, आरोप, प्रत्यारोप, नफरत, आक्रोश बरदाश्त करता हुआ, आंसुओं में तरबतर निरीह चेहरा लिए मां के सान्निध्य को तरसती अपनी दुधमुंही बच्ची को चुप कराने, संभालने में लगा हुआ था.
उस के घबराए मांबाप लोगों के सामने अपनी सफाई पेश कर रहे थे कि उन को तरुण के अतिरिक्त अन्य कोई बेटा या बेटी नहीं है. वे खूब देखभाल कर अपनी पसंद की बहू घर में लाए थे. फिर वे अपनी प्यारी बहू को जला कर क्यों मारेंगे?
लेकिन उन की आवाज नक्कारखाने में तूती की भांति दब कर रह गई थी. उन की सुनने वाला कोई नहीं था. सभी उन्हें दोषी ठहराने के लिए कटिबद्ध थे.
आक्रोश से उबलते पिताजी व भैया ने मेरे आने से पूर्व ही थाने में तरुण व उस के मांबाप के खिलाफ दहेज कानून के अंतर्गत रपट लिखवा दी थी. पल्लवी की लाश का पोस्टमार्टम हो चुका था. मृत्यु का कारण, अत्यधिक जल जाना सिद्ध हो चुका था.
पुलिस वालों ने गिरफ्तारी से पूर्व तरुण व उस के मांबाप को पल्लवी की शवयात्रा में शामिल होने व शवदाह करने की अनुमति प्रदान कर दी थी.
लोग अरथी उठा कर बाहर ले जाने लगे तो तरुण शोकविह्वल हो कर पल्लवी की कोयला बन चुकी काया से लिपट कर फफकफफक कर रोने लगा. लोग व्यंग्य कसने लगे कि पुलिस, कानून व जनआक्रोश से बचने के लिए ही तरुण यह सब दिखावा कर रहा है, नहीं तो क्या दहेजलोभियों के सीनों में भी दिल हुआ करता है?
तरुण व उस के मातापिता से किसी को रत्तीभर सहानुभूति नहीं थी. पल्लवी का अंतिम संस्कार हो चुकने के बाद जब पुलिस वाले उन तीनों को गिरफ्तार कर के ले गए तभी लोगों का क्रोध शांत हो पाया.
इतनी बड़ी कोठी में मैं, मांपिताजी, भैयाभाभी व तरुण के पुराने बूढ़े नौकर के अतिरिक्त और कोई बाकी नहीं रहा. पल्लवी की ससुराल के दूर के रिश्तेदार भी पुलिस के पचड़े में पड़ने के डर से घबरा कर अपनेअपने घर चले गए.
मांपिताजी अपनी लाड़ली, दुलारी बेटी पल्लवी की असामयिक मृत्यु से कुछ इस प्रकार बौखलाए हुए थे कि तरुण व उस के मांबाप की गिरफ्तारी से भी उन के मन को शांति नहीं मिल पाई थी.
नींद किसी की आंखों में नहीं थी. सभी बैठक में सोफों पर बैठ कर परस्पर विचारविनिमय करने लगे कि तरुण व उस के मांबाप को कड़ी से कड़ी सजा किस प्रकार दिलवाई जाए. सभी तरुण को फांसी के फंदे पर लटका हुआ देखने को उतावले थे.
मैं पल्लवी की दुधमुंही बिटिया को छाती से चिपकाए न मालूम कहां, किस विचार में खोई हुई थी कि भैया के स्वर ने मुझे चौंका दिया, ‘‘श्वेता, तुम्हारे पास भी तो पल्लवी के पत्र आते होंगे. अपनी ससुराल में मिल रहे अत्याचारों के बारे में उस ने अवश्य लिखा होगा.’’
आगे पढ़ें- ऐसा तो कुछ भी नहीं लिखा? वह यहां हर तरह से खुश थी…