Chhote Nawab Bade Nawab Part 1 Hindi Kahani छोटे नवाब बड़े नवाब हिंदी कहानी |
छोटे नवाब बड़े नवाब हिंदी कहानी
आखिर फैसला हो ही गया। हालांकि इससे न छोटा खुश है, न बड़ा। बड़े को लग रहा है-छोटे का इतना नहीं बनता था।
ज्यादा हथिया लिया है उसने। छोटा भुनभुना रहा है-बड़े ने सारी मलाई अपने लिए रख ली है। मुझे तो टुकड़ा भर देकर
टरका दिया है, लेकिन मैं भी चुप नहीं बैठंगा। अपना हक लेकर रहूंगा।
छोटा भारी मन से उठा, "चलता हूं बड़े। वह इंतज़ार कर रही होगी।"
“नहीं छोटे। इस तरह मत जा।" बड़े ने समझाया, "घर चल। सब इकट्ठे बैठेंगे। खाना वहीं खा लेना। फोन कर दे उसे। वहीं
आ जाएगी। होटल से चिकन दगैरह लेते चलेंगे।"
छोटा मान गया है।
फोन उठाते ही छोटे की बीदी ने पूछा, "क्या-क्या मिला? कहीं बाउजी के लिए तो हां नहीं कर दी है?"
“तुमने मुझे इतना पागल समझ रखा है क्या?" छोटा आदाज दबा कर बोला। साथ दाली मेज पर बड़ा दूसरे फोन पर अपनी
बीवी से बात कर रहा है।
“मैं माना ही बिज्जी को रखने की शर्त पर।" छोटे ने बताया।
“नकद भी मिलेगा कुछ?"
"हां, मुझे सिर्फ तीन देगा बड़ा। उसके पास फिर भी बीस लाख से ऊपर है नकद अभी भी।" छोटा फिर भुनभुनाया।
"तो ज्यादा क्यों नहीं मांगा तुमने? और क्या-क्या मिलेगा?" छोटे की बीवी फोन पर ही पूरी रिपोर्ट चाहती है।
“अभी ढड़े के घर आ ही रही हो। सब बता टूंगा।" और छोटे ने फोन रख दिया।
उधर बड़े की बीवी उसकी तेल मालिश कर रही है फोन पर ही, "आपकी तो, पता नहीं अक्ल मारी गई है। हां कर दी है
बाउजी के लिए। आपका क्या है, संभालना तो मुझे पड़ता है। एक मिनट चैन नहीं लेने देते। अब आप ही दुकान पर बिठाया
करना सारा दिन।"
“समझा करो भई। ढिज्जी को रखने की शर्त पर ही छोटा इतने कम पर माना है।" बड़े ने तर्क दिया, "दरना वह तो..."
"और क्या-क्या दे दिया है उसे? कहीं पालम दाला फार्म हाउस तो नहीं दे दिया? आपका कोई भरोसा नहीं।"
“नहीं दिया बाबा वह फार्म हाउस। अभी आ ही रहे हैं। सब बता टूंगा।" कहकर बड़े ने फोन रख दिया और पसीना पोंछा।
दोनों ने घर पहुंचते ही अपनी-अपनी बीवी को फैसले की संक्षिप्त रिपोर्ट दे दी है। दोनों औरतें कुछ और पूछना चाहती हैं
लेकिन उनके हाथ और अपनी आंख दबाकर दोनों ने इशारा कर दिया है-"अभी नहीं।"
दोनों समझदार हैं। मान गई हैं, लेकिन जितनी खबर मिल चुकी है, उसे भी अपने भीतर रखना उन्हें मुश्किल लग रहा है।
किसी को ढतानी ही पड़ेगी। उन्होंने बच्चों के कान खाली देखकर बात वहां उंडेल दी है। बच्चे तो बच्चे ठहरे। सीधे दादा-
दादी के कमरे की तरफ लपके। खबर प्रसारित कर आये।
Chhote Nawab Bade Nawab
बड़े ने इंपोर्टेड व्हिस्की निकाल ली है - चलो पिंड छूटा। जब से इसे पार्टनर बनाया था, तब से चख-चख से दुःखी कर रखा
था। तब पार्टनर बनने की जल्दी थी और अब चार साल में ही अलग होने के लिए कृद-फांद रहा था। पिछले कितने दिनों से
तो रोज़ फैसले हो रहे थे, लेकिन दोनों ही रोज़ अपनी बीवियों के कहने में आकर रात के फैसले से मुकर जाते थे। फिर वहीं
पंजे लड़ाना, फूं-फां करना...॥ आज निपटा ही दिया आखिर। बड़ा मन-ही-मन खुश है।
बड़े ने बाउजी को भी बुलवा लिया है। उन्हें यह सौभाग्य कभी-कभी ही नसीब होता है। सिर्फ एक या दो पैग। आज वे समझ
नहीं पा रहे - यह दावत खुशियां मनाने के लिए है या ग़म गलत करने के लिए। अलब्त्ता, वे अपने हिसाब से उदास हो गए
हैं."प्रॉपर्टी के साथ-साथ मां-बाप का भी बंटवारा। अब तक तो दोनों घर अपने थे। कभी यहां तो कभी दहां। कभी वे इधर तो
कभी ढिज्जी उधर। कोई रोक-टोक नहीं थे। उठाई साइकिल और चल दिए। कहीं कोई तकलीफ नहीं, लेकिन... लेकिन...
अब मुझे यहीं रहना होगा। अकेले। बिज्जी उधर अलग। सारे दिन इस बड़े की बीवी के ज़हर बुझे तीर झेलने होंगे। कैसे
रहेंगी बिज्जी अकेली! बेशक ऑपरेशन के बाद कोई खतरा नहीं रहा। फिर भी कैंसर है। कोई छोटी-मोटी बीमारी नहीं।
कौन बचता है इससे! दोनों कहीं भी रह लेते। आखिर हम दोनों का खर्चा ही कितना होगा। कुकी के ट्यूटर से भी कम।
उदिता की पोकेट मनी भी ज्यादा होगी हम दोनों के खर्चे से!"
बाउजी बिना घूंट भरे, गिलास हाथ में लिये ऊभ-चूभ हो रहे हैं - कहें भी तो किससे! इस घर में मेरी सुनता ही कौन है!
कहते-सुनाते सब हैं। बड़ों की देखा-देखी छोटे भी। बस, फैसला कर दिया और कहलवाया भी किसके हाथ? बच्चों के। मैं
तो एकदम फालतू हूं। घर के पुराने सामान से भी गया-बीता? पड़े रहो एक कोने में। क्या मतलब है इस ज़िंदगी का!
बाउजी ने अपने हाथ में पकड़ा व्हिस्की का गिलास देखा - ग्यारह सौ की आयी थी यह बोतल और इस बुड्ढे-बुढ़िया का
महीने भर का खर्च! तभी उन्हें कहीं दूर से आती बड़े की आदाज सुनाई दी। सिर उठाया - सामने ही तो खड़ा है वह। छोटे का कंधा थामे। कह
रहा है, "छोटे, हम दोनों ने अपना बिजनेस अलग कर लिया है, रिश्ते नहीं। हम आगे भी एक-दूसरे को मान देते रहेंगे।
हमारे घरों का, दिलों का बंटवारा नहीं हुआ है छोटे।"
छोटा भावुक हो गया है, "हां बड़े। यह घर मेरा ही है और वह घर तुम्हारा है। हम पहले की तरह एक - दूसरे के सुख-दुः:ख
में खडे होंगे।''
"देख छोटे, तू मां को ले जा तो रहा है, लेकिन याद रखना, वह पहले मेरी मां है। तू उसे कोई तकलीफ नहीं देगा।"
“नहीं दूंगा बड़े। वह मेरी भी तो मां है।"
“छोटे, तू उससे कोई काम नहीं करवाएगा। उसकी सेठा करेगा। उसके इलाज पर पूरा ध्यान देगा।" बड़े ने अपना गिलास
दोबारा भरा।
"हां बडे, उसकी पूरी सेवा करूंगा।" छोटे ने भी अपना गिलास खाली किया।
"बिज्जी को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए छोटे। उसे ज़रा-सा भी कुछ हो तो तू सबसे पहले मुझे खबर करेगा।" बड़े ने
फिश कटलेट का टुकड़ा मुंह में डाला।
"वादा करता हूं बड़े।" छोटे ने सलाद चखी।
अब बड़ा भी भादुक हो गया है। उसने एक लंबा घूंट भरा, "छोटे, मुझे गलत मत समझना। हम लोगों ने दूसरों के कहने में
आकर यह बंटवारा तो कर लिया है, लेकिन हम दोनों सगे भाई हैं। आगे भी बने रहेंगे।''
बाउजी से और नहीं बैठा जाता। अपना बिन पिया गिलास वहीं छोड़कर लंबे-लंबे डग भरते हुए अपने कमरे में चले आए।
आज की रात तो थोड़ी देर बिज्जी के पास बैठ लें। कुछ कह-सुन लें। कल तो उसे छोटा ले जाएगा। इतनी देर से रोकी गई
भड़ास और नहीं रोकी जाती। फट पड़ते हैं, "लानत है ऐसी औलाद पर, ऐसी ज़िंदगी पर। कभी अपनी मां के कमरे में
झांककर नहीं देखते। जीती है या मरती है। खुद मुझे कोई दो कौड़ी को नहीं पूछता, नौकर से भी बदतर। और ये दोनों लाल
घोड़ी पर चढ़े बड़ी-बड़ी बातें बना रहे हैं।"
पछता रहे हैं ढाउजी, "बहुत बड़ी गलती की थी यहां आकर। वहीं अच्छे थे। अपना घर-बार तो था। इन लोगों के झांसे में
आकर सब कुछ बेच-ढाच डाला। तब बड़े सगे बनते थे हमारे! अब सब कुछ इन्हें देकर इन्हीं के दर पर भिखारी हो गए हैं।
जब अपनी ही औलाद के हाथों दुर्गत लिखी थी तो दोष भी किसे दें। इससे तो गरीब ही अच्छे थे हम। न मोह, न शिकायत!
जैसे थे, सुखी थे।"
उनकी बड़बड़ाहट सुनकर बिज्जी की आंख खुल गई। पूछती हैं, “कहां गए थे? अब किसे कोस रहे हो?"
"कोस कहां रहा हूं। मैं तो..." गुस्से की मदखी अभी भी बाउजी की नाक पर ढैठी है, "वो अंदर पार्टी चल रही है। जश्न मना
रहे हैं दोनों। प्रॉपर्टी के साथ हमारा भी बंटवारा हो गया है। उसी खुशी में..."
“छोटा आया है क्या? इधर तो झांकने नहीं आया?" बिज्जी उदास हो गई है।
"फिकर मत कर। कल से रोज आएगा झांकने तेरे कमरे में। तू उसी के हिस्से में गई है।" बाउजी की आवाज में अभी भी
तिलमिलाहट है।
बिज्जी ने सुनकर भी नहीं सुना। जब से बिस्तर पर पड़ी हैं, किसी भी बात की भलाई-दुराई से परे चली गई हैं। बाउजी की
तरफ देखती हैं। उन्हें समझाती हैं, "अपना ख्याल रखना। बहुत लापरवाह हो। ज्यादा टोका-टोकी मत करना। बड़ा और
उसकी दो तो तुमसे वैसे ही ज्यादा चिढ़ते हैं।"'
"हां, चिढ़ते हैं। सब चिढ़ते हैं मुझसे। हरामखोर हूं मैं तो। घर पर रहूं तो पिसता रहूं। दुकान पर बैठूं तो बेगार करूं। मुझसे
तो दुकान का नौकर बंसी अच्छा है। महीने की दस तारीख को गिनकर पूरी तनखा तो ले जाता है, जबकि काम मैं भी उतना
ही करता हूं। ग्राहकों को चाय पिलाता हूं। उनके जूठे गिलास धोता हूं। दुकान की सफाई करता हूं। साइकिल पर कितनी-
कितनी दूर जाता हूं और क्या उम्मीद करते हैं मुझसे! अब इन सत्तर साल की बूढ़ी हड्डियों से जितना बन पड़ता है, खटता
तो हूं।" बाउजी की दुःखती रग दब गई है। वे फिर शुरू हो गए हैं, "इन साहबजादों के लिए जमा-जमाया घर छोड़कर आए
थे। सब कुछ इन्हें दे दिया। हमारी क्या है, कट जाएगी। अब इन दोनों ने महल खड़े कर लिये हैं, लाखों-करोड़ों में खेल रहे
हैं और यहां..."
“अब बस भी करो। तुम्हारा तो बस रिकाड हर समय बजता ही रहता है। कोई सुने, न सुने। जब तुम्हारा टाइम था तो
तुम्हारी चलती थी। गलत ढातें भी सही मानी जाती थीं। हैं कि नहीं। अब ठकक्त से समझौता कर लो। सही-गलत..."
“तू सही-गलत की ढात कर रही है, यहां तो कोई बात करने को तैयार नहीं..."
बिज्जी ने नहीं सुना। वे अपनी रौ में ढोल रही हैं, "मुझे यहां से भेजकर भूल मत जाना। कभी-कभी आ जाया करना। फोन
कर लिया करना। मैं तो क्या ही आऊंगी वापस अब...बची ही कितनी है...।"'
बाउजी एकदम सकते में आ गए। सहमे से बिज्जी को देखते रह गए - क्या सचमुच हमेशा के लिए जा रही है बिज्जी यहां से?
यह बीमार, कमज़ोर औरत, जिसके चेहरे पर हर दकत मौत की परछाईं नज़र आती है, अब कितने दिन और जिएगी इस
तरह? दवा-दारू से तो वह पहले ही दूर जा चुकी है। अब इन आखिरी दिनों में तो दोनों बच्चों के कुटृंब को एक साथ
हंसता-खेलता देख लेती। आराम से मर सकती। न सही औलाद का सुख, हम दोनों को तो एक साथ रह लेने देते। उनसे
और कुछ तो नहीं मांगते। जीते-जी तो मत मारो हमें...लेकिन सुनेगा कौन! यहां जितना हो सकता था, इसकी देखभाल कर
ही रहा था। वहां तो कोई पानी को भी नहीं पूछेगा। कैसे जिएगी ये... और कैसे जिऊंगा मैं..."
"कहां खो गए?" बिज्जी इतनी देर से जदाब का इंतजार कर रही हैं। बाउजी उठकर बिज्जी की चारपाई के पास आए। वहीं
बैठ गए। उनका हाथ थामा, "भागदंती, हमारी औलाद तो ऊपर वाले से भी जालिम निकली। वह भी इतना निर्दयी नहीं
होगा। जब भी बुलावा भेजेगा, आगे-पीछे चले जाएंगे। वहां तो अलग-अलग ही जाना होता है ना! यहां तो जीते-जी अलग कर
रही है हमारी अपनी कोखजायी औलाद।" बाउजी का गला रुंध गया है। बिज्जी ने जवाब में कुछ नहीं कहा। कितनी-कितनी
बार तो सुन चुकी है उनके ये दुखडे। बिज्जी ने हाथ बढ़ाकर बाउजी की आंखों में चमक आए मोती अपनी उंगलियों पर
उतार लिये।
उधर बड़े-छोटे के संवाद जारी हैं। अब दोनों नहीं बोल रहे, दोनों के भीतर एक ही बोतल की इंपोर्टेड क्हिस्की बोल रही है,
जिसे कभी छोटा खोलता है तो कभी बड़ा।
इस बार पैग छोटे ने बनाए, "बड़े, मुझे माफ करना, बड़े। मैंने अपनी दाइफ के बहकावे में आकर अपने देठता जैसे भाई का
दिल दुखाया। उससे अपना हिस्सा... मांगा।" दह रोने को है।
"छोटे, तू चाहे अलग रहे, अलग काम करे, तू इस घर का सबसे बड़ा मेंदर है।" बड़ा फिर भावुक हो गया है, "मार्च में
उदिता की शादी है, सब काम तुझे ही करने हैं।"
"फिकर मत कर बड़े। मैं इस घर के सारे फर्ज अदा करूंगा। उदिता की शादी का सारा इंतज़ाम मैं देखूंगा।" छोटे के
भीतर बड़े के बराबर ही शराब गयी है।
इससे पहले कि इसके जवाब में बड़ा कुछ कहे या आज का फैसला अपनी बीदी की सलाह लिये बिना बदले, उसकी बीदी
ने आकर फरमान सुनाया, “अब बहुत... हो गयी है। चलो, खाना लग गया है।"
बड़े ने अपना गिलास खत्म करके छोटे का हाथ थामा और उसे लिये-लिये डाइनिंग रूम में आ गया।
वहां बाउजी, बिज्जी को न पाकर उसने उदिता से कहा, "जाओ बेटे, बाउजी, बिज्जी को भी बुला लाओ।"
जदाब बड़े की बीवी ने दिया, "उन लोगों ने अपने कमरे में ही छा लिया है। आप लोग शुरू करो।"
खाना खाने के बाद बड़ा-छोटा और उनकी बीवियां, चारों लोग बाउजी-बिज्जी के कमरे में गए। बिज्जी सो गई है। बाउजी
अधलेटे आंखें बंद किए पड़े हैं।
"चलते हैं बाउजी।" यह छोटे की बीवी है। उसने बाउजी के आगे सिर झुकाया। वह जब भी बाउजी, बिज्जी से विदा लेती है,
ऐसा ही करती है। छोटा भी उसके साथ-साथ ही झुक गया। बाउजी ने रजाई से हाथ निकाला, ऊपर किया, कुछ बुदबुदाए
और हाथ रजाई में वापस चला जाने दिया। छोटा और उसकी बीवी यही दोहराने के लिए बिज्जी की चारपाई के पास गए,
लेकिन बाउजी ने इशारे से रोक दिया, "सो गई है। जगाओ मत।"
जाते-जाते बड़े ने पूछा है, "बत्ती बंद कर दूं क्या? बाउजी की "आं' को उसने "हां' समझ कर लाइट बुझा दी है।
छोटे के कार स्टार्ट करने तक यह तय हो गया है कि बड़ा कल ही छोटे को उसके हिस्से में आयी प्रॉपर्टी के कागजात
वगैरह और पैसे दे देगा। छोटे की बीवी परसों आकर बिज्जी को और उनका सामान लिवा ले जाएगी।
रात में छोटे और बड़े की अपनी-अपनी बीठी के दरबार में पेशी हुईं। एक बार फिर लंबी बहसें चलीं और दोनों की ब्रेन
दाशिंग कर दी गयी और उन्हें जतला दिया गया-उन्हें फैसले करना नहीं आता। दोनों का नशा सुबह तक बिलकुल उतर
चुका था। दोनों ने ही सुबह-सुबह महसूस किया - दूसरे ने ठग लिया है। इधर बड़ा सुबह-सुबह हिसाब लगाने बैठ गया,
“छोटे के हिस्से में कितना निकल जाएगा।" उधर छोटा कॉपी-पेंसिल लेकर बैठ गया, "उसे देने के बाद बड़े के पास कितना
रह...जायेगा।"
दोनों को हिसाब में भारी गड़बड़ी लगी। बड़े को शक हुआ, "छोटे ने ज़रूर कुछ प्रॉपर्टीज अलग से खरीदी-ढेची होंगी।
इतना सीधा तो नहीं है वह। दुकान पर जाते ही सारे कागजात देखने होंगे। क्या पता छोटे ने पहले ही कागजात पार कर
लिये हों।"
उधर छोटे को पूरा विश्वास है, बड़े के पास कम-से-कम तीस लाख तो नकद होना ही चाहिए। पिछली तीन-चार डील्स में
काफी पैसे नकद लिये गये थे। कहां गए दे सारे पैसे! फिर उसने मार्केट रेट से हिसाब लगाया, उसके हिस्से में कुल चौदह-
पंद्रह लाख ही आ रहे हैं, जबकि बडे ने अपने पास जो प्रॉपर्टीज रखी हैं, उनकी कीमत एक करोड़ से ज्यादा है। नकद
अलग। तो इसका मतलब हुआ, बड़े ने उसे दसवें हिस्से में ही बाहर का रास्ता दिखा दिया है। छोटे ने खुद को लुटा-पिटा
महसूस किया।
क्या करूं, क्या करूं; जपता हुआ वह अपनी कोठी के लॉन में टहलने लगा। भीतर से उसकी बीवी ने उसे इस तरह से
बेचैन देखा तो उसे अच्छा लगा। रात की मालिश असर दिखा रही थी। थोड़ी देर इसी तरह बेचैनी में टहलने के बाद वह
सीधे टेलीफोन की तरफ लपका।
उधर बड़े के साथ सुबह से यही कुछ हो यहा था। दह भी उसी समय टेलीफोन की तरफ लपका था। जब तक पहुंचता,
फोन घनघनाने लगा।
“बड़े नमस्कार। मैं छोटा बोल रहा हूं।"
“नमस्ते। बोल छोटे। सुबह-सुबह! रात ठीक से पहुंच गए थे?" बड़े ने सोचा, पहले छोटे की ही सुन ली जाए।
“बाकी तो ठीक है बड़े लेकिन मेरे साथ ज्यादती हो गई है। कुछ भी तो नहीं दिया है तुमने मुझे।'
“क्या बकठास है? इधर मैंने हिसाब लगाया है कि जब से तू पार्टनरशिप में आया है, हम दोनों ने मिलकर भी इतना नहीं
कमाया है, जितना तू अकेले बटोर कर ले जा रहा है।"
"रहने दे बड़े, मेरे पास भी सारा हिसाब है...।"'
"क्या हिसाब है? चार साल पहले जब तू नौकरी छोड़कर दुकान पर आया था, तो घर समेत तेरी कुल पूंजी चार लाख भी
नहीं थी। डेढ़ लाख तूने नकद लगाए थे और ढाई लाख का तेरा घर था। अब सिर्फ चार साल में तुझे चार के बीस लाख मिल
रहे हैं। चार साल में पांच गुना! और क्या चाहता है?" बड़े को ताव आ रहा है।
"कहां बीस लाख बड़े। मुश्किल से दस-ग्यारह, जबकि तुम्हारे पास कम-से-कम एक करोड़ की प्रॉपर्टी निकलती है। नकद
अलग।"
“देख छोटे," ढड़ा गुर्राया, "सुबह-सुबह तू अगर यह हिसाब लगाने बैठा है कि मेरे पास क्या बच रहा है तो कान खोलकर
सुन ले। तुझे हिस्सेदार बनाने से पहले भी मेरे पास बहुत कुछ था। तुझसे दस गुना। अब तू उस पर तो अपना हक जमा नहीं
सकता।" बड़ा थोड़ा रुका। फिर टोन बदली, "तुझे मैंने तेरे हक से कहीं ज्यादा पहले ही दे दिया है। मैं कह ही चुका हूं, इन
चार-पांच सालों में हमने चार-पांच गुना तो कतई नहीं कमाया। रही एक करोड़ की बात, तो यह बिलकुल गलत है। बच्चू मैं
इस लाइन में कब से एड़ियां घिस रहा हूं। तब जाकर आज चालीस-पचास लाख के आस-पास हूं। एक करोड़ तो कतई
नहीं।"
“नहीं बड़े।"
"नहीं छोटे।"
“नहीं बडे।"
"नहीं छोटे।"
"तो सुन लो बड़े। मैं ज्ञानचंद नहीं हूं, जिसे तुम यूं ही टरका दोगे। मैंने भी उसी मां का दूध पिया है। इन चार सालों में हमने
जितनी डील्स की है, सबकी फोटो कॉपी मेरे पास है। मुझे उन सबमें पूरा हिस्सा चाहिए, चाहे दस बनता हो या पचास। मैं
पूरा लिये बिना नहीं मानृंगा।" छोटे ने इस धमकी के साथ ही फोन काट दिया।
जब तक बड़े और छोटे फोन से निपटते, ताजे समाचार जानने की नीयत से उनकी बीदियां गरम चाय लेकर हाजिर हो गईं।
बड़े की बीवी ने खूबसूरत बोन चाइना के प्याले में उन्हें चाय थमाते हुए भोलेपन से पूछा, "किसका फोन था?"
“उसी का था। धमकी देता है, मेरा हिस्सा पचास लाख का बनता है।" उसने मुंह बिचकाया, "एक करोड़ का नहीं बनता।
अपना भाई है, अच्छी हालत में नहीं है, यही सोचकर मैंने इसे पार्टनर बना लिया था। इसी के चक्कर में ज्ञानचंद जैसे काम
के आदमी को अलग किया। उस पर झूठी तोहमत लगाई।" बडे की बीदी ध्यान से सुन रही है, "अगर मैं इसे न रखता तो
ज्ञानचंद अभी भी चार-पांच हजार में काम करता रहता। अब जो छोटा पंद्रह-बीस लाख की चपत लगाने के बाद भी उचक-
उचक कर बोलियां लगा रहा है, दे तो बचते।"
बड़े की बीवी ने तुरंत कुरेदा, "तो अब क्या करोगे? ज्ञानचंद को फिर बुलाओगे क्या? अकेले कैसे संभालोगे दुकान की इतनी
भाग-दौड़?"
"बुलाने को तो बुला लूं। अब भी बेचारा खाली ही घूम रहा है। कभी एक बेटे के पास जाता है तो कभी दूसरे के पास, लेकिन
पता नहीं अब सिर्फ सैलरी पर आएगा या नहीं। एक बार तो उसे धोखे में रखा। हर बार थोड़े ही झांसे में आएगा?"