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गहरी बातें मन में बैठ जाती हैं . . Gahri Baaten Man Main Baith Jati hai Hindi shayari h

गहरी बातें मन में बैठ जाती हैं . . Gahri Baaten Man Main Baith Jati hai Hindi shayari h


अक्षय मुकुल की किताब ' गीता प्रेस और हिंदू भारत का निर्माण हिंदू जनचेतना को जगाने में गीता प्रेस की भूमिका की समीक्षा करती है । इसमें धर्म , राष्ट्रवाद और समाज सुधार की कोशिशों पर भी प्रकाश डाला गया है । अनुवाद किया है

गहरी बातें मन में बैठ जाती हैं
कल्याण के संपादक के सामने क शुरुआत से ही सबसे बड़ी चुनौती पत्रिका को पाठकों के लिए जीवंत बनाने की थी और इस चुनौती को कुछ हद तक चित्रों का उपयोग कर पूरा किया गया । गीता प्रेस ने अपने सभी प्रकाशनों में देवी और देवताओं के चित्र उकेरने पर विशेष ध्यान दिया । इसके साथ - साथ इन चित्रों को अलग से बेचा भी गया ।



दो महत्वपूर्ण घटनाक्रम इसमें मददगार साबित हुए । पहला , 1880 के दशक में आविष्कृत हुआ क्रोमोलीथोग्राफ , जिसमें स्पष्ट रेखाएं , सूक्ष्म शेडिंग और फिनिशिंग के साथ साथ चटख रंगों की भरमार थी और दूसरा घटनाक्रम था , सन् 1907 में कलकत्ता से रामानंद चटर्जी के संपादन में निकलने वाली मॉर्डन रिव्यू मासिक पत्रिका की सफलता । चटर्जी पोद्दार के मित्र थे और सन् 1929 में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने थे । इस पत्रिका को निकालने का उनका उद्देश्य कला को राष्ट्रीय एजेंडे के तहत पढ़े लिखे तबकों के बीच लेकर आना था । बंगाल और महाराष्ट्र में क्रोमोलीथोग्राफ की बढ़ती लोकप्रियता कल्याण के लिए फायदेमंद साबित हुई । अपने प्रकाशन के पहले वर्ष में पत्रिका ने बॉम्बे के लक्ष्मी आर्ट पेंटिंग से देवी देवताओं के चित्र मंगवाए थे । अपने आरंभिक दिनों में मुद्रक के रूप में काम करने वाले और बाद में अग्रणी फिल्म निर्माता बने धुंडीराज गोविन्द फाल्के द्वारा सन 1910 में स्थापित   



यह प्रेस तब तक सुवर्णमाला नाम की सचित्र बुलकेट छापने के लिए जाना जाता था , जो शिवरात्रि , रामनवमी , कृष्णाष्टमी , गणेश चतुर्थी और दीपावली जैसे त्योहारों में आती थी । इसमें सुप्रसिद्ध कलाकार एम . वी . धुरंधर के एकरंगीय चित्र होते थे । कजरी जैन ने गीता प्रेस और कल्याण के जन्म को ' बाजार की प्रकृति ' के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा है । उनके लिए बाजार औपनिवेशिक दौर में सुदृढ़ और व्यापारिक समुदायों के व्यापक अनौपचारिक आर्थिक और सामाजिक नेटवर्कों का काम.    चलाऊ नाम है । बाजार के भक्ति पक्ष को ग्रंथों और भगवान की छपी हुई छवियों के माध्यम से गढ़ा गया । गीता प्रेस का अभियान सामाजिक , सधारवादी , किंत शहरी वैष्णव सामुदायिक संगठनों की रूढ़िवादी संस्कृति से प्रभावित था ।



पोद्दार ने कहा कि ' निराकार , नामहीन , अपरिभाष्य उच्चतर यथार्थ वाले निर्गण ब्रह्म की सिद्धि की न तो सबको सलाह दी जा सकती है और न ही वो इसके लिए संभव है । इसकी जगह उन्होंने कुछ विशेष गुणों के साथ कुछ विशेष देवी - देवताओं की आराधना के माध्यम से सगुण ब्रह्म की साधना की वकालत की । कल्याण तथा अन्य धार्मिक निर्देशात्मक ग्रथों में देवी - देवताओं के चित्रों के यांत्रिक पुनरुत्पादन ने इस प्रकार की आराधना का एक माध्यम उपलब्ध कराया । मंदिर जाने वाले या भगवान को दर्शाने वाले अन्य माध्यमों जैसे पत्थर या कीमती धातु आदि के माध्यम से आराधना आसान नहीं थी , क्योंकि पुजारियों का इस पर नियंत्रण था , लेकिन छपी हुई छवियों के रूप में ईश्वर की उपलब्धता ने इस कमी को पूरा कर दिया ।



गांधी ने पोद्दार द्वारा सन् 1935 में लिखे गए पत्र के जवाब में हैरानी जताई कि कल्याण के पृष्ठों में इतनी ज्यादा मात्रा में देवी - देवताओं के चित्रों की जरूरत आखिर क्यों पड रही है ? ऐसा लगता है कि पोद्दार ने इसका अलग से कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया , लेकिन गीता प्रेस ने यह दावा किया कि उनके प्रकाशन से छप रही देवी - देवताओं के चित्रों ने पाठक को शांति और सुगति प्रदान की है । कई सालों बाद गीता प्रेस के लिए कई पुस्तकें लिखने वाले रामचरण महेंद्र ने कहा कि मानवीय चेतना भी कैमरे के लैंस की तरह होती है , जिसमें सूक्ष्म से सूक्ष्मतम विवरण को भी कैद करने और संग्रहीत करने की क्षमता होती है ।





घरों में देवी - देवताओं के चित्र होने से सकारात्मकता बनी रहती है और बुरे ख्याल और मानसिक बीमारियां दूर हो जाती हैं ।  हमारे चित्र , हमारे देवताओं की मूर्तियां एक प्रकार के प्रतीक हैं । धर्म के गढ़तम रहस्यों की जनसाधारण को समझाने की सरल भाषा है । प्रत्येक चित्र मूर्ति में असंख्य गुप्त दिव्य संदेश और - रहस्य भरे पड़े हैं , उनके सहारे गहरी बातें मन में बैठ जाती हैं । बुद्धि को कान , आंख और अन्य इंद्रियों का सहारा मिल जाता है । जो व्यक्ति किसी पवित्र चित्र को घर में स्थापित करता है , वह ईश्वरानुभूति के सरल मार्ग खोलता है ।





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