प्रतापनारायण मिश्र ने हिंदी की अनेक विधाओं में लिखा । वे कवि होने के अतिरिक्त निबंध लेखक , नाटककार और व्यंग्यकार भी थे । उन्होंने बेहद सामान्य विषयों पर अद्भुत व्यंग्य लिखे । उनका एक व्यंग्य लेख :
दो अक्षर के इस शब्द में दुनिया भर की माया छिपी हुई है । थोड़ी - सी और छोटी - छोटी हडिडयों के जरिए उस चतुर कारीगर ने कौशल दिखलाया है । उसकी महिमा कितमी अपार है । जिसके मुंह में दांत है , वही तो दांतों का महिमागान कर सकेगा । मख की सारी शोभा और मिलने वाले भोज्य पदार्थों का स्वाद इन्हीं पर निर्भर है । कवियों ने जुल्फ , आंख तथा बरौनी आदि की छवि लिखने में बहत - बहुत रीतियों से बाल की खाल निकाली है , पर सच पूछिए तो दांतों से ही इनकी शोभा है । जब दांतों के बिना पोपला - सा मुंह निकल आता है , और ठोड़ी एवं नाक एक हो जाती है , तो उस समय सारी सुघराई मिट्टी में मिल जाती है ।
कवियों ने इसकी उपमा हीरा , मोती और माणिक से दी है । यह बहुत अच्छा है , लेकिन दांतों की कीमत इनसे कहीं अधिक है । यह वह अंग है , जिसमें पाकशास्त्र के छहों रस शामिल हैं । यह काव्यशास्त्र के नवों रसों का आधार है । खाने का मजा इन्हीं से है । इस बात का अनुभव यदि आपको न हो , तो किसी बुजुर्ग आदमी से पूछकर देखिए । सिवाय सतुआ चाटने और रोटी को दूध तथा दाल में । भिगोकर गले के नीचे उतार देने के अलावा वह दुनिया भर की चीजों के लिए तरस कर रह जाता होगा ।
रहे कविता के नौ रस । उनका दिग्दर्शन मुझसे सुन लीजिए । शृंगार का तो कहना ही क्या ! | अहा , ' पान के रंग में रंगे अथवा चमकदार चटकीले दांत जब बातें करने तथा हंसने में दिखाई देते हैं , उस समय नयन और मन इतने प्रमुदित हो जाते हैं कि इनका वर्णन मिठाई खाकर भी नहीं किया जा सकता । हास्य रस का तो पूर्ण रूप ही सामने नहीं आता . जब तक हंसते हुए दांत बाहर न निकल पड़े । करुण और रौद्र में दुख और क्रोध के मारे दांत अपने होंठ चबाने के काम आते हैं । ये अपनी दोनता दिखाकर दूसरे के अंदर करुणा उपजाने में भी काम आते हैं । गुस्से में तो दांत पीसे ही जाते हैं । सभी प्रकार के वीर रमों में भी दांत का बड़ा महत्व है । शत्रु की मैन्य ताकत देखकर मुंह ही नहीं , दति भी खुले रह जाते हैं । भयानक रस के लिए सिंह - व्याघ्रादि के दांतों का ध्यान कर लीजिए , पर रात को नहीं । आप सोए - सोए चौंकते हुए भागेंगे ।
वीभत्स रस का प्रत्यक्ष दर्शन करना हो , तो किसी के मैले और चीकट दांत देख लीजिए । अदभुत रस में तो सभी आश्चर्य की बात देख - सुनकर दांत खोलकर मुंह फैलाए हुए हक्के - बक्के रह जाते हैं । जिस समय किसी व्यक्ति की मृत्यु निकट जानकर जल के कछुए , मछली और कौए , कुत्ते आदि दांत पैने कर रहे होते हैं , उस समय भी यदि भगवान का भजन न किया तो क्या किया ? हमारी हड्डियां कोई हाथीदांत तो हैं नहीं कि मरने पर भी किसी के काम आएंगी । जीते - जी संसार में कुछ परमार्थ बना लीजिए । यही बुद्धिमानी है । दांत यही शिक्षा देते हैं कि जब तक हम अपने स्थान और अपने काम में दृढ़ है , तभी तक हमारी प्रतिष्ठा है ।
बड़े - बड़े कवि हमारी प्रशंसा करते हैं । बड़े - बड़े सुंदर मुखारविंदों पर हमारी मुहर छपी रहती है । लेकिन मुख से बाहर होते ही हम अपावन , घृणित और फेंकने योग्य हो जाते हैं । यानी महत्व स्थान का होता है , चाहे दांत हो या केश । यदि आप इसका यह अर्थ मानते हैं कि किसी भी दशा में हिंदुस्तान छोड़कर विलायत जाना स्थान भ्रष्टता है , तो यह आपकी भूल है । हंसने के समय दांतों का निकल पड़ना कोई बुरी बात नहीं , वरन एक प्रकार की शोभा होती है । ऐसे ही आप स्वदेश - चिन्ता के लिए कुछ समय कहीं और रह आएं , तो यह आपकी बड़ाई है । पर हां , यदि वहां जाकर यहां की ममता छोड़ दी , तो आपका जीवन उन दांतों के समान है , जो किसी कारण से मुंह के बाहर रह जाते है और सारी शोभा खोकर भेडिए जैसे दिखाई देते हैं ।
आखिर यह क्यों न हो , दातों को होंठ , गाल और मुंह का परदा जो नसीब है । जिसके पास परदा न रहा , अपनी इज्जत की परवाह न रही , उसकी जिंदगी व्यर्थ है । कभी दांतों में पीड़ा हुई हो , तो उन्हें उखड़वा देना ही बेहतर है । इनकी स्थिति देश के अंदर व्यापत उन लोगों की तरह है , जो रहते तो हमारे साथ हैं , लेकिन सदा देश और समाज के अहित में तत्पर रहते हैं । परमेश्वर उन्हें या तो सुमति दे या उनका सत्यानाश करे । उनके होने का हमें कौन सा सुख ? हम तो उनकी जय - जयकार मनाएंगे , जो अपने देशवासियों से दांत - काट रोटी का बरताव रखते हैं । परमात्मा करे कि हर धर्म के लोगों को देशहित के लिए चाव के साथ दातों तले पसीना | आता रहे । हमसे बहुत कुछ नहीं हो सकता तो यही सिद्धांत कायम कर