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Humare Budhimaan Sahityak Sasumaa Hindi Story



हमारी बुद्धिमान साहित्यिक सासूमां
कहां ठहरे हम मजदूर और कहां साहित्यगीरी की दुकान. छंटनी के मारे बिलबिलाए श्रीमान जब पहुंचे सासूमां की शरण में तो उन के धांसू आइडिया ने जिंदगी का गणित ही बदल डाला. आखिर क्या था वह आइडिया?
डा. गोपाल नारायण आवटे



बाजार की मंदी के चलते हमारी फैक्टरी में छंटनी हो गई. मैं उतरे मुंह जब घर पहुंचा तो देखा हमारी आदर्श महिला, हमारी एकमात्र पत्नी अपनी मां के साथ गरमागरम पकौड़े खा रही थी. बड़े मग में चाय भरी थी और उस की भाप उड़उड़ कर कमरे में खुशबू फैला रही थी.
हमारे उतरे चेहरे को देख कर हमारी सास ने कहा, ‘‘क्यों दामादजी, क्या हाल हैं? हमारे आने की कोई खुशी नहीं
हुई क्या?’’

हम ने चेहरे पर झूठी हंसी ला कर कहा, ‘‘ऐसी बात नहीं है.’’

‘‘फिर क्या बात है?’’ पकौड़े को पकौड़े जैसे मुंह में रखते हुए उन्होंने कहा. मैं जानता था कि वे बहुत तिकड़मी महिला हैं. पूरे महल्ले में उन की तूती बोलती है, लेकिन मेरी वे क्या मदद करेंगी? इसलिए मैं चुप था, तो वे फिर बोल उठीं, ‘‘बोलिए भी, यह क्या बासी भजिए जैसा मुंह उतार रखा है.’’
हम ने दिल पर पत्थर रख कर कहा, ‘‘आज हमारी कंपनी ने छंटनी कर के हमें हटा दिया.’’

‘‘हायहाय, यह क्या कह रहे हैं? वे मेरे लिए सोने का हार लाने वाले थे, उस का क्या होगा?’’ यह स्वर मेरी धर्म की पत्नी का था, उस की आवाज में दुख कम, हार न पाने का दर्द अधिक था. मेरी सास ने उसे आंखों ही आंखों में चुप रहने के लिए कहा. पत्नी वहीं सोफे पर धम्म से बैठ गई. मुंह और आंखों पर पल्ला रख कर दुख प्रकट करने का अभिनय करने लगी.

मैं ने विस्तार से सासूजी को बताया कि आज कुल जमा 20 हजार रुपए की राशि दे कर हमें घर भेज दिया गया. वैसे भी हमारी नौकरी संविदा की थी. वैश्वीकरण के चलते हमारी कोई यूनियन भी नहीं है. इसलिए हम तो कौंट्रैक्ट बेस मजदूर श्रेणी में थे.

‘‘हूं,’’ ठंडी सांस ले कर सासूजी ने प्लेट का आखिरी पकौड़ा भी खा लिया और गहरे चिंतन के मूड में आ कर सोचने लगीं. फिर अचानक बोलीं, ‘‘आप कुल जमा 5 हजार रुपए खर्च कर के अपना धंधा (बिजनैस) शुरू कर सकते हैं.’’


‘‘क्या कह रही हैं आप? 5 हजार रुपए में तो जहर भी नहीं मिलता, फिर हम अपना बिजनैस कैसे शुरू करेंगे?’’ हम ने अपनी भोली आंखों से सासूजी को घूरते हुए प्रश्न का गोला दाग दिया.
‘‘आप विश्वास करें. बढि़या बिजनैस बतला रही हूं.’’
‘‘बाबा बना कर बैठाने का इरादा तो नहीं है?’’
‘‘कैसी बात करते हैं दामादजी.’’
‘‘फिर इतनी कम पूंजी में क्या होगा?’’
‘‘होता है, होता है, दामादजी, जब तक मूर्ख हैं, बुद्धिमान जीवित रहेंगे,’’ उन्होंने हंसते हुए अपनी बत्तीसी दिखलाई. वह तो ठीक था कि जोर से हंसी नहीं, वरना बत्तीसी गिर जाने की संभावना थी.



सास की बातें सुन कर पत्नी ने भी साड़ी का पल्ला मुंह के सामने से हटा दिया और बड़ी आशाभरी दृष्टि से अपनी अम्माजी को देखने लगी. हम ने जब अपनी सहमति सासूजी को दे दी तो वे कह उठीं, ‘‘एक विज्ञापन देना होगा.’’

‘‘काहे का? ये बेरोजगार हो गए, उस का?’’ पत्नी ने बीच में प्रश्न किया तो जीवन में पहली बार हमारी सासूजी पत्नी पर नाराज हो कर कहने लगीं, ‘‘तू चुप कर, बीच में टोकते नहीं.’’
उसे डांट पड़ने पर हम मन ही मन खुश हो गए. पत्नी पकौड़ों की खाली प्लेटों को उठा कर रसोई में चली गई. सासूजी ने हमें बताना शुरू किया, ‘‘इन दिनों पटवारी से ले कर कलैक्टर तक, फुटपाथियों से ले कर फाइवस्टार मालिकों को एक ही शौक चढ़ा हुआ है.’’

‘‘काहे का?’’ हम ने भोलेपन से प्रश्न किया.
‘‘लेखक बनने का.’’
‘‘तो…?’’ हम ने फिर बात आगे बढ़ाते हुए पूछा.
‘‘तुम्हें एक विज्ञापन निकालना है कि नए लेखकों, कवियों, व्यंग्यकारों की पुस्तकें निशुल्क प्रकाशित की जाएंगी, बस,’’ कह कर वे थोड़ी देर के लिए चुप हो गईं.
‘‘लेकिन सासूजी, पुस्तक छापने का खर्च तो बहुत है, मुफ्त में कैसे छोपेंगे?’’
‘‘हम कहां छाप रहे हैं?’’
‘‘फिर कौन छापेगा?’’


‘‘सच में दामादजी, तुम बड़े भोले हो, अरे हम एक प्रकाशन गु्रप शुरू करते हैं. घर में टेबलकुरसी व परदे हैं ही, कबाड़ी की दुकान से 30-40 पुस्तकें खरीद कर अलमारी में सजा दें और विज्ञापन दे दें. बस, हो गया काम.’’
‘‘लेकिन फिर लेखक पांडुलिपियां भेजेंगे तो…?’’

‘‘अरे दामादजी, जब विज्ञापन दोगे तो पांडुलिपियां तो आएंगी ही न,’’ कहतेकहते सासूजी ने एक जोर से डकार ली, पूरे कमरे में चूहे के मरने जैसी बदबू फैल गई. अभी हम ने पूरा आइडिया सुना नहीं था, मजबूरी में सुनने के लिए मजबूर थे. सासूजी ने आगे बात बढ़ाई और कहा, ‘‘विज्ञापन के बाद ही फोन आने शुरू हो जाएंगे और पूरे घर में पांडुलिपियां ही पांडुलिपियां हो जाएंगी.’’
‘‘फिर?’’
‘‘बस, आज के लिए इतना ही अभ्यास काफी है. पहले यह काम कर लो, आगे की बातें मैं बिजनैस जमने पर बताऊंगी.’’
‘‘आप को लगता है इस में प्रौफिट है?’’
‘‘फाइव हंड्रैड परसैंट,’’ सासूजी ने फिर अपनी बत्तीसी दिखा कर अपनी बात कही.

हम ने भी आज्ञाकारी दामाद की तरह विज्ञापन दे दिया, ‘निशुल्क हिंदी सेवा हेतु पुस्तकों का प्रकाशन, पांडुलिपियां आमंत्रित हैं. हिंदी लेखकों एवं जिन की आज तक कोई पुस्तक नहीं छपी, उन्हें प्राथमिकता दी जाएगी. आदर्श प्रकाशन, हमेशा हिंदी सेवा हेतु तत्पर,’ आगे हम ने संपर्क का पता, टैलीफोन नंबर दे दिया.

2 दिन बाद पत्नी, सासूजी और मेरी पारी लग गई. सब को एक सा रटारटाया उत्तर देतेदेते कि ‘हम निशुल्क पुस्तकें छाप रहे हैं.’ किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था. 1-2 प्रतिष्ठित प्रकाशनों से हमें धमकी भी मिली लेकिन हम तो सासूजी पर भरोसा कर के आगे बढ़ रहे थे. एक सप्ताह बीततेबीतते पोस्टऔफिस से एक ट्रक आ कर घर के सामने ठहर गया जिस में पांडुलिपियां ही पांडुलिपियां थीं. हम ने मिल कर उन लिफाफों को जमाया. कुछ को खुले में छत पर पटक दिया था. एक माह में पूरा घर रचनाओं से भर गया था.
‘अब क्या करना है,’ हम यह सोच रहे थे कि अचानक एक फोन आया. चालाक दुकानदार की तरह हमारी सासूजी ने फोन उठाया, उधर से कोई बेचारा कवि बोल रहा था. सासूजी ने मोरचा संभाल कर कहा, ‘‘देखिए भगतजी, अभी हमारी कमेटी में तय होगा कि किस कविता संग्रह को पहले छापा जाए. हां, 10 दिनों बाद फोन कर लें.’’


फोन रख कर विजयी मुसकान के साथ सासूजी ने अपनी बेटी और मुझे देख कर कहा, ‘‘यही जवाब आप को उपन्यास, कथा संग्रह, नाटक, व्यंग्य संग्रह के लेखकों को भी देना है.’’
‘‘ठीक है,’’ आज्ञाकारी शिष्यों की तरह हम दोनों ने उत्तर दिया.

अब मेरी और पत्नी की ड्यूटी लग चुकी थी. हम बराबर यही जवाब देते थे कि ‘कमेटी निर्णय लेने वाली है.’ पूरे 10 दिनों बाद अचानक सासूजी के सुर बदल गए. वे किसी को समझा रही थीं, मैं ने सुना वे कह रही थीं, ‘देखिए, मनोहरजी, हमारे पास नाटकों की 400 से अधिक पांडुलिपियां हैं, जो पहले आया वह प्रथम क्रम में छपेगा. सो, आप का अभी नंबर नहीं आ पाएगा. फिर भी यदि…’’ कह कर सासूजी ने बात बीच में रोक दी.
‘‘जी हां, सच सोचा आप ने. यदि आप निशुल्क छपवाना नहीं चाहते हैं तो आप हमें 20 हजार रुपए भेज दें, हम 10 हजार रुपए अपनी ओर से मिला कर उसे छाप देंगे. 500 प्रतियां निशुल्क दी जाएंगी. क्या कहा, आप तैयार हैं, ठीक है. आप का स्वागत है. आप डीडी हमारे प्रकाशन या चतुरानन के नाम से भेज दें, पुस्तक 10 दिनों में आप के हाथों में होगी,’’ यह कह कर उन्होंने फोन रख दिया. पलट कर हमें किसी कुटिल राजनीतिज्ञ की तरह देखा.

हम ने कहा, ‘‘सासूजी, पुस्तक तो मात्र 10 हजार में छप जाती है?’’
‘‘हम क्या फोकट में गधाहम्माली करेंगे? 10 हजार मुनाफा होना चाहिए.’’
‘‘लेकिन हम उस पुस्तक का करेंगे क्या?’’
‘‘कुछ नहीं, 500 छाप कर उसी मनोहरजी को भेज देंगे. मैं ने जिस तरह बातें की हैं उसी तरह आप भी उत्तर देना.’’
‘‘ठीक है,’’ हम कह भी नहीं पाए कि फिर टैलीफोन की घंटी बजी. इस बार कोई कथाकार था. हम ने ही मोरचा संभाला और 20 हजार की जगह 25 हजार रुपए में सौदा पक्का कर दिया. यह सब देखसुन कर सासूजी बड़ी खुश हुईं.  सासूजी ने हमें आखिरी टिप देते हुए कहा, ‘‘एक बात और बता दूं, यदि किताब नहीं छापेंगे तो भी चलेगा.’’
‘‘ऐं, क्या मतलब?’’
‘‘अरे बकवास पुस्तकें छाप कर हम हिंदी भाषा की कब्र थोड़े ही खोदेंगे.’’
‘‘फिर उस के रुपए कैसे लौटाएंगे?’’
‘‘दामादजी, आप सच में भोले हैं, अरे पुस्तक प्रकाश के एग्रीमैंट में एकदम बारीक अक्षरों में शर्त डाल देंगे कि यदि कमेटी इसे अस्वीकृत करती है तो 50 प्रतिशत राशि ही लौटाई जाएगी. इस का सीधा अर्थ है कि 10 हजार तो अपने सूखे बचेंगे,’’ सासूजी ने बुक्का फाड़ कर हंसते हुए कहा. उन की बत्तीसी बाहर निकल ही आई थी लेकिन उन्होंने उसे अंदर दबा दिया था.


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देखते देखते हम आज श्रेष्ठ प्रकाशकों में आ गए हैं और नौकरी की गुलामी से भी बच गए. बैंक बैलेंस भी बढ़ गया है. पूरे समाज में इज्जत बनी है. ये सब हमें लेखकों, कवियों की नादानियों से प्राप्त हुआ है. माफ करें, गलत बोल दिया, ये सब हमें अपनी सासूमां द्वारा दिए गए आइडिए के चलते प्राप्त हुआ है. आज हम परिवार के साथ बहुत खुश हैं. हम तो यही चाहते हैं कि ऐसी बुद्धिमान गार्गी की तरह सासूमां सब को मिले, धन्यवाद.

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