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Story On Corona Virus - Machine मशीन हिंदी कहनी पर कोरोनावायरस




Story On Corona Virus - Machine  मशीन
इलैक्ट्रौनिक अलार्म की अपेक्षाकृत मधुर आवाज उसे बहुत कर्कश लगी और उस की आंखें खुल गईं. उस ने पास सोए पति व बच्चों पर नजर डाली. सभी बेखबर खर्राटे ले रहे थे.





इलैक्ट्रौनिक अलार्म की अपेक्षाकृत मधुर आवाज उसे बहुत कर्कश लगी और उस की आंखें खुल गईं. उस ने पास सोए पति व बच्चों पर नजर डाली. सभी बेखबर खर्राटे ले रहे थे. उस के जी में आया वह भी उन्हीं की तरह सोई रहे. वह करवट बदल कर सोने की कोशिश करने लगी. लेकिन शीघ्र ही उसे एहसास हुआ कि उस के दैनिक जीवन में सुकून नाम की चीज नहीं रह गई है. थोड़ा सा अलसा कर उठने से अस्पताल पहुंचने में लेट हो जाएगी. जब उस के वरिष्ठ डा. मयंक उसे अपने चश्मे में से घूरेंगे तो उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा. लेट होने पर उस के मरीजों को भी असुविधा होती है. यही सब सोच कर वह अलसाती हुई उठ गई और पति व बच्चों को आवाज लगाई.

उठते ही वह तेज गति से दैनिक कर्मों से निवृत्त हो कर रसोई में पहुंची. जल्दीजल्दी पति व बच्चों का नाश्ता बनाने की तैयारी करने लगी. अपनी तमाम व्यस्तताओं में भी वह सुबह का नाश्ता अपने हाथों से ही बनाती थी. यों खाना बनाने वाली बाई थी लेकिन सभी की फरमाइश और स्वयं की इच्छा से वह इतना तो करती ही थी. फिर खाना बनाने वाली बाइयां भी कहां ढंग का खाना बनाती हैं. हर नई बाई के आने के बाद कुछ दिन तक तो सब ठीक रहता है लेकिन फिर सभी उस खाने से मुंह बनाने लगते हैं. पिछले हफ्ते जो बाई काम छोड़ कर गई उस का कहना था कि इतनी सुबह उस का पति उसे छोड़ता नहीं, इसलिए वह सुबह जल्दी काम पर नहीं आ सकती. उस ने सोचा, मुझ से तो वह बाई अच्छी है जो जल्दी न पहुंच पाने की वजह से काम छोड़ कर चली गई. लेकिन क्या वह ऐसा कर सकती है? फिर उसे खुद ही अजीब लगा कि वह अपनी तुलना किस से कर रही है. यही सब सोचते हुए उस की तंद्रा तब टूटी जब गैस पर रखी चाय उफन कर बाहर गिरने लगी.


किसी तरह रसोई से निबट कर उस ने गराज से गाड़ी निकाली ही थी कि बालकनी से पति की आवाज आई, ‘‘दोपहर को जल्दी लौट आना. मुझे दोपहर की ट्रेन से दिल्ली जाना है, तैयारी करनी है.’’ ‘तैयारी में क्या करना है? 2 जोड़ी कपड़े ही तो रखने हैं, वे भी इस्तिरी किए हुए अलमारी में रखे हैं. रख लेना ब्रीफकेस में खुद ही,’ उस ने सोचा कि वह कह दे लेकिन यंत्रवत उस की गरदन जल्दी आने की स्वीकृति में हिल गई. वह जानती थी, तैयारी का तो बहाना है. पति जब भी बाहर जाते, तैयारी के बहाने बुलाते थे और…

सड़क पर चलते लोगों को देखती और सभी की तुलना स्वयं से मन ही मन करती वह अस्पताल की तरफ बढ़ रही थी. ‘क्या ये सभी लोग मेरी ही तरह, मशीन की तरह सड़कों पर चलते रहते हैं?’ उस ने सोचा. वह कब रेलवे क्रौसिंग पर पहुंच गई, पता ही न चला. गेट रोज की तरह बंद था. उस ने बेबसी से रुकी भीड़ में स्वयं को खड़ा कर लिया और रेल गुजरने की प्रतीक्षा करने लगी. शीघ्र ही धड़धड़ाती ट्रेन गुजरी. उस ने स्वयं की तुलना उस इंजन से की जो ट्रेन को खींचे जा रहा था और डब्बे उस के पीछेपीछे बरबस भागते जा रहे थे. वह सोचने लगी, ‘क्या इस ट्रेन में और मुझ में कोई फर्क है? शायद नहीं, दोनों ही समय से बंधे चले जा रहे हैं.’

अस्पताल में गाड़ी पार्क कर ही रही थी कि डा. सुरेंद्र से सामना हो गया. वे बोले, ‘‘नमस्कार, मैडम.’’

‘‘नमस्कार, सर.’’

डा. सुरेंद्र ने उसे लगभग घूरते हुए कहा, ‘‘रात की थकावट शायद अभी तक गई नहीं.’’

उन के इस द्विअर्थी संवाद पर वह मन ही मन झल्ला गई, लेकिन प्रकट में मुसकराते हुए बोली, ‘‘हां, रात को ओटी से निकलतेनिकलते साढ़े 11 बज गए थे और सवा 12 बजे घर पहुंची.’’ केबिन में पहुंचते ही इंटरकौम बज उठा. उस ने यंत्रवत रिसीवर उठाया और बोली, ‘‘हैलो…हां…अभी आई…’’


फिर उस ने रिसीवर रख दिया और थोड़ा सामान्य होने के लिए कुरसी से पीठ लगाई ही थी कि दवाएं बनाने वाली कंपनी का एक प्रतिनिधि आ गया, ‘‘नमस्कार, मैडम. मुझे थोड़ा बाहर जाना है. आप यदि अभी वक्त दे देतीं तो…’’ ‘‘अभी नहीं, 11 बजे से आधा घंटा आप लोगों के लिए ही मैं ने तय कर रखा है. उसी समय आइएगा,’’ उस ने स्वाभाविक मुसकान लाने की कोशिश करते हुए कहा. चाय के बाद वह डा. मयंक के केबिन की ओर चल दी. उन के केबिन में 2-3 लोग और बैठे थे. डा. मयंक ने उसे देखते ही कहा, ‘‘आइएआइए, हम लोग आप का ही इंतजार कर रहे थे.’’

उस के बैठने के बाद डा. मयंक ने कहा, ‘‘ये लोग बैड नं. 10 वाले मरीज के रिश्तेदार हैं.’’

उस ने उन लोगों की तरफ सहज नजर डाली. उन में से एक नेतानुमा आदमी था.

‘‘इन का कहना है कि आप इन के मरीजों का खास खयाल रखें,’’ डा. मयंक ने कहा.

‘‘लेकिन मैं तो सभी मरीजों का खयाल खास ढंग से ही रखती हूं. यथासंभव सर्वश्रेष्ठ इलाज करती हूं,’’ उस ने नेतानुमा आदमी को देखा, फिर डाक्टर से कहा.

‘‘मैं अपनी पार्टी का जिला अध्यक्ष हूं और ये हमारे समर्पित कार्यकर्ता हैं. इन्हीं का मरीज है,’’ नेतानुमा सज्जन ने कहा.

‘यहां भी…मरीज के इलाज में भी नेतागीरी. अरे भई, क्या दूसरी कोई जन समस्याएं नहीं हैं जो यहां भी अपनी ही चला रहे हो. हमारे लिए सभी मरीज एकमान होते हैं. अपनी यह नेतागीरी कहीं और दिखाइए. हमें मत सिखाइए कि किस मरीज का क्या इलाज करना है,’ उस ने सोचा कि वह उस नेता से कह दे. लेकिन वह ऐसा नहीं कह सकी क्योंकि डा. मयंक बाद में उसे उपदेशात्मक तरीके से इस प्रकार की दुनियादारी सिखाते थे. हालांकि कई बार उन की आंखों में भी उस ने बेबसी के भाव देखे थे.


‘‘ठीक है,’’ कह कर वह बाहर आ गई.

लंबे जनरल वार्ड में वह मरीज दर मरीज देखती जा रही थी. सभी मरीजों के रिश्तेदार उसे आशाभरी नजरों से देखते. कइयों की नजरों में तो उसे स्वयं के प्रति श्रद्धाभाव नजर आता. हर एक की बस एक ही चाह, एक ही निवेदन कि उस के मरीज को वह ज्यादा ध्यान से देखे. अपने जूनियर डाक्टरों और नर्सों को निर्देश देतेदेते तो लगभग वह निढाल हो जाती. जैसेतैसे केबिन में पहुंचती. थक कर चूर हो जाने के बाद भी आराम से बैठना संभव नहीं होता था. उस ने चाय का पहला ही घूंट भरा था कि एक मरीज का रिश्तेदार और उस के पीछे नर्स दौड़ती आई.

‘‘मरीज की हालत बहुत गंभीर है, जल्दी चलिए,’’ उन्होंने चिल्लाते हुए कहा.

उस ने सोचा कह दे, ‘चलिए, चाय पी कर आती हूं. 2 मिनट में कोई पहाड़ नहीं टूट जाएगा.’ लेकिन वह कह न सकी. बैड तक पहुंचतेपहुंचते मरीज की नाड़ी रसातल को जा चुकी थी.

‘यदि मैं चाय पी कर आती तो उस का जिम्मेदार मुझे ही ठहराया जाता,’ यह सोच कर ही उस के सारे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई. मरीज के सीने और पैरों पर मालिश कर के उसे लौटा लाने की कोशिश की लेकिन उस की कोशिश नाकाम रही. मरीज के रिश्तेदार दहाड़ मार कर रोने लगे. एक तो उस के गले में हाथ डाल कर रोने की कोशिश करने लगा. किसी तरह उस से बच कर वह अपने केबिन में पहुंची. एसी को थोड़ा और तेज किया. चपरासी को 10 मिनट तक किसी को भी अंदर न आने का निर्देश दे कर वह कुरसी में धंस गई. आंखें बंद कर के थोड़ा आराम किया कि टैलीफोन बज उठा.

शहर के दूसरे छोर पर स्थित एक नर्सिंग होम से फोन था. कल ही वहां उस ने एक मरीज को भेजा था. उसी की स्थिति के बारे में फोन आया था. उधर से डा. अशोक कह रहे थे, ‘‘आप को अभी आना पड़ेगा. मरीज की हालत गंभीर है.’’ डा. अशोक के नर्सिंग होम तक जाना है, यह सोच कर ही उसे पसीना आ गया. इतनी गरमी और दूरी, फिर इतना ट्रैफिक. लेकिन और कोई चारा भी तो न था. ‘घर पर फोन कर के बता दूं कि मेरा आना जल्दी नहीं हो सकेगा,’ उस ने सोचा और घर का नंबर औपरेटर से मांगा.


‘‘मैं आप के जाने तक आ नहीं सकूंगी. डा. अशोक के नर्सिंग होम जाना पड़ेगा. एक मरीज की हालत गंभीर है.’’

‘‘लेकिन मेरी तैयारी का क्या होगा?’’ पति ने पूछा.

‘‘खुद ही कर लेना.’’

‘‘लेकिन…’’ इस के साथ ही उधर से फोन धड़ाक से रखने की आवाज आई तो उसे लगा जैसे डा. अशोक के नर्सिंग होम दूर होने और मरीज के गंभीर होने की जिम्मेदार वह खुद है.

डा. अशोक के नर्सिंग होम से लौटते वक्त तक पति की ट्रेन का समय हो चला था. इसलिए उस ने गाड़ी सीधे रेलवे स्टेशन की ओर मोड़ दी. प्लेटफौर्म पर पहुंचते ही पति मिल गए. वे बहुत खफा थे, ‘‘सारा मूड चौपट कर दिया,’’ उन्होंने गुस्से से कहा. उसे लगा कि जैसे वह किसी अक्षम्य अपराध की अपराधिनी हो. ट्रेन प्लेटफौर्म छोड़ चुकी थी, लेकिन वह उस से बेखबर कहीं खड़ी थी.

‘‘नमस्ते, मैडम,’’ इस आवाज ने उस की तंद्रा तोड़ी. उस ने देखा एक अनजान आदमी उस के सामने हाथ जोड़े खड़ा है.

‘‘नहीं पहचाना?’’ वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘महीना पहले मेरी पत्नी का इलाज आप ने किया था. अब वह पूरी तरह ठीक है. बहुत मेहरबानी आप की. आप सदा खुश रहें,’’ उस के हाथ श्रद्धा से और बंध गए.

‘‘अच्छाअच्छा,’’ कहते हुए उस के चेहरे पर एक मुसकराहट तैर गई.

जब वह घर पहुंची तब तक 4 बज चुके थे. गेट पर ही गाड़ी देख कर दोनों बच्चे दौड़े आए और कार का दरवाजा खोल कर अंदर आ गए. फिर दोनों उस से लिपट गए. एक पल को उस की सारी थकावट दूर हो गई. फिर कमरे में पहुंचते ही बिस्तर पर निढाल हो कर लेट गई.

‘‘मां, भूख लगी है, कुछ खाने को दो,’’ दोनों बच्चे चिल्ला रहे थे. अकसर ही यह होता था कि वह थकीहारी लौटती तब तक बच्चे स्कूल से आ कर नाश्ता कर के सो रहे होते या वह थोड़ी भी लेट हो जाती तो उन का खाना खाने का समय हो चुका होता.


उस ने रामू को आवाज लगाई.

‘‘जी, बीबीजी.’’

‘‘बच्चों का खाना लगा दो.’’

‘‘और बीबीजी, आप?’’

‘‘हां मां, आप भी,’’ बच्चे बोले.

‘‘नहीं, मैं थोड़ा आराम करना चाहती हूं. तुम दोनों खाओ.’’

‘‘नहीं, आज हम आप के साथ खाएंगे. आप के साथ खाए हुए कितने दिन हो गए,’’ बच्चे एकसाथ जिद करने लगे.

उस ने दोनों को डांट दिया, ‘‘जिद नहीं करते, जाओ और खाना खा लो.’’ बच्चे रोंआसे हो कर उस की तरफ सहमी नजरों से देखते हुए खाना खाने चले गए. लेकिन थोड़ी देर में ही उस का ममत्व जागा, ‘क्या बच्चों की जिद गलत है. वे भी आखिर अपने मातापिता से यह अपेक्षा कर ही सकते हैं. क्या भौतिक सुविधाएं जुटा देना ही काफी है. बच्चों को भावनात्मक सान्निध्य भी तो चाहिए.’ एक पल में ही उस के विचारों की शृंखला कहां से कहां तक पहुंच गई. फिर उस ने भी तो सुबह से खाना नहीं खाया था. वह उठ कर हाथमुंह धो कर बच्चों के पास जा पहुंची. तब दोनों बच्चों की आंखों में अनोखी चमक आ गई, वे उत्साह से खाना खाने लगे. खाना खाने के बाद वह आराम करने लगी और बच्चे वीडियो गेम्स खेलने लगे. अजीबअजीब कर्णभेदी आवाजें उस के आराम में बाधा डाल रही थीं. अभी आंख लग ही रही थी कि रामू ने सहमते हुए आवाज लगाई, ‘‘बीबीजी…’’

उस ने आंखें खोलीं और प्रश्नवाचक नजरों से रामू को देखा तो वह हिम्मत जुटा कर बोला, ‘‘डा. जैनेंद्र का फोन है, आप को फौरन बुलाया है.’’

‘‘उन से कह दो कि मैं अभी आराम कर रही हूं.’’

थोड़ी देर बाद फिर रामू आया और कहने लगा, ‘‘वे कह रहे हैं कि प्रसूति केस है और मरीज की हालत गंभीर है. आप को फौरन आने को कहा है.’’

‘आज मैं नहीं आ सकती डाक्टर साहब, आज मैं आराम करना चाहती हूं,’ उस ने सोचा कि वह डा. जैनेंद्र से स्पष्ट शब्दों में कह दे. लेकिन उन से व्यावसायिक और मित्रवत रिश्तों को मद्देनजर रखते हुए वह ऐसा न कह पाई. उस ने वहां पहुंचने की स्वीकृति दे दी. लेकिन साथ में यह शर्त जोड़ दी कि गाड़ी उन्हें भेजनी होगी.


‘‘मां, आज पार्क में घूमने चलते हैं. कितना मजा आया था जब पिछली बार वहां गए थे,’’ दोनों बच्चों ने उसे लगभग झकझोरते हुए कहा. वह उस समय तैयार हो रही थी.

उस ने अपना अक्स आईने में देखा और मानो खुद से ही कहा, ‘बहुत चाह थी तुम्हें कुछ कर दिखाने की और जो तुम आज हो, उस की कीमत क्या ये बच्चे नहीं चुका रहे हैं? माना कि तुम एक आम मां नहीं हो, लेकिन बच्चे तो आम और खास नहीं होते. वे चाहते हैं मां का सान्निध्य, मां का असीम प्यार. लेकिन क्या तुम अपनी व्यस्तताओं, अपनी कमाई के नशे में इतनी दूर नहीं निकल गई हो जहां तक इन बच्चों की आवाज नहीं पहुंच पाती?’ और वह स्वयं के ही इस प्रश्न से खुद ही अनुत्तरित हो गई. उस ने बच्चों के सिर पर प्यार से हाथ फेरा मानो बगैर कहे ही सब कुछ कह देना चाहती हो. कुछ पल वह इसी तरह बच्चों को लिपटाए खड़ी रही और फिर ‘‘कल चलेंगे,’’ कह कर उन को रामू के सिपुर्द कर के तैयार होने लगी. डा. जैनेंद्र के नर्सिंग होम से लौटते हुए 9 बज चुके थे. बच्चे टीवी देखने में मशगूल थे और रामू एक कोने में बैठा उनींदा सा उसी की राह देख रहा था. उस ने सुबह जल्दी आने की हिदायत के साथ उसे छुट्टी दी और कपड़े बदल कर शयनकक्ष में बच्चों के साथ टीवी देखने लगी. उसे अचानक स्वयं का नर्सिंग होम खोलने की बात पर पति से हुई तकरार याद हो आई. उस के चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे कोई कड़वी चीज मुंह में आ गई हो.

वह दिन उसे अच्छी तरह याद है जब पतिदेव बहुत खुशखुश घर पहुंचे और चहकते हुए बोले, ‘मैडम, बहुत जल्द आप का एक नर्सिंग होम होगा. बहुत जल्द आप एक अदद नर्सिंग होम की मालकिन बनने जा रही हैं.’ एक क्षण को तो उस की आंखों में चमक आई लेकिन अगले ही क्षण वह गायब हो गई.


‘क्या बात है, तुम सुन कर खुश नहीं हुईं?’ पति ने हैरानी से पूछा था.

‘रहने दो यह सब, मुझ से यह सब नहीं होगा.’

‘लेकिन स्वयं का नर्सिंग होम खोलने जैसी प्रतिष्ठित बात पर भी तुम खुश नहीं हो. जानती हो, नर्सिंग होम खोलना आज सब से फायदे वाली बात है. और फिर क्या उस से प्रतिष्ठा नहीं बढ़ती?’

‘हां बढ़ती है. लेकिन आज भी हमारी काफी प्रतिष्ठा है और कमाई भी काफी है.’

‘तुम्हें मालूम नहीं, मेरे सभी साथियों ने खुद के नर्सिंग होम खोल लिए हैं. और मैं उन से पिछड़ना नहीं चाहता. नर्सिंग होम अब मेरे लिए कमाई के साथसाथ प्रतिष्ठा का प्रतीक भी बन गया है.’

‘आप का यह प्रतिष्ठा का प्रतीक हमारा कितना सुखचैन छीनेगा, क्या यह आप से छिपा है? जिन दोस्तों से आप पिछड़ना नहीं चाहते, क्या उन का हाल आप नहीं जानते. वे खाने तक का पर्याप्त समय नहीं निकाल पाते. फिर अभी ही हम बच्चों के लिए समय नहीं निकाल पाते. सुखसुविधाएं जो हम ने जुटाई हैं, क्या उन का समुचित उपभोग करने का समय है हमारे पास?’

‘न सही, कुछ पाने के लिए कुछ तो खोना ही पड़ता है. बच्चों के लिए ही हम यह सब कर रहे हैं. फिर उन के लिए घर में किस चीज की कमी है. देखभाल के लिए नौकरचाकर हैं…’

‘आप नहीं समझ पाएंगे क्योंकि आप पिता हैं. आप के इस ‘कुछ’ खोने में बच्चे कितना कुछ खोते जा रहे हैं, आप शायद नहीं समझ पाएंगे.’

‘तुम कहना चाहती हो कि चिंता मुझे बिलकुल नहीं है? मैं उन की देखभाल नहीं करता? यह सारी भागदौड़ किस के लिए करता हूं? क्या तुम ज्यादा समझदार हो?’ कहतेकहते वे बहुत उत्तेजित हो गए थे. इसी तरह तर्कवितर्क बहुत देर तक चलता रहा. अब पति इसी सिलसिले में दिल्ली गए थे. जिन बच्चों को ले कर बहस हो रही थी वे वहीं सहमे डरे खड़े थे, लेकिन कुछ भी समझ पाने में असमर्थ थे. उस ने इसी सोचने की रौ में बहतेबहते बच्चों की तरफ देखा. दोनों सोए हुए थे. उस ने उन के सिरों पर स्नेह से हाथ फेरा. फिर यही सब सोचतेसोचते उसे कब नींद आ गई, पता ही न चला.

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