पहले सी अब दिखती नहीं
हैं रौनकें बाजार की।
हर ओर सन्नाटा यहां
हर रोज बढ़ते फासले
हर रोज मौतें बढ़ रहीं
हर ओर दु:ख के क़ाफ़िले
कैसी महामारी चली
धुन थम गयी संसार की।
वे वक़्त के मजदूर हैं
पर वक़्त से मजबूर हैं
ताले लगे, रस्ते रुके
जाएं कहां, वे दूर हैं
सुनता कहॉं मालिक भला
चीखें यहां लाचार की।
है पीठ पर गठरी लदी
कांधे पे हैं बच्चे लदे
जाना है मीलों दूर तक
पर प्राण फंदों में फँदे
है जान सांसत में पड़ी
खुद ही यहॉं सरकार की।
ठप हुए उत्पादन सभी
चुक रहे संसाधन सभी
शेयर सभी लुढ़के पड़े
बेअसर आवाहन सभी
मंदी ने तोड़ी है कमर
दुनिया के कारोबार की।
डॉ. ओम निश्चल