'फ़ासलों' पर कहे गए शेर....
क़ुर्बतें लाख ख़ूब-सूरत हों
दूरियों में भी दिलकशी है अभी
- अहमद फ़राज़
दूरी हुई तो उस के क़रीं और हम हुए
ये कैसे फ़ासले थे जो बढ़ने से कम हुए
- अज्ञात
मोहब्बत की तो कोई हद, कोई सरहद नहीं होती
हमारे दरमियाँ ये फ़ासले, कैसे निकल आए
- ख़ालिद मोईन
भला हम मिले भी तो क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिजक गई
- बशीर बद्र
बहुत अजीब है ये क़ुर्बतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला
- बशीर बद्र
वो नहीं आएगा इस महफ़िल में
दूर ही दूर से सुनता होगा
- जमीलुद्दीन आली
मसअला ये है कि उस के दिल में घर कैसे करें
दरमियाँ के फ़ासले का तय सफ़र कैसे करें
- फ़र्रुख़ जाफ़री
फ़ासले ऐसे कि इक उम्र में तय हो न सकें
क़ुर्बतें ऐसी कि ख़ुद मुझ में जनम है उस का
- बाक़र मेहदी
उसे ख़बर है कि अंजाम-ए-वस्ल क्या होगा
वो क़ुर्बतों की तपिश फ़ासले में रखती है
- ख़ालिद यूसुफ़
कितने शिकवे गिले हैं पहले ही
राह में फ़ासले हैं पहले ही
- फ़ारिग़ बुख़ारी
जो पहले रोज़ से दो आँगनों में था हाइल
वो फ़ासला तो ज़मीन आसमान में भी न था
- जमाल एहसानी
मोहम्मद अल्वी के चुनिंदा 10 शेर
धूप ने गुज़ारिश की
एक बूंद बारिश की
घर ने अपना होश संभाला दिन निकला
खिड़की में भर गया उजाला दिन निकला
लम्बी सड़क पे दूर तलक कोई भी न था
पलकें झपक रहा था दरीचा खुला हुआ
उस से भी मिल कर हमें मरने की हसरत रही
उस ने भी जाने दिया वो भी सितमगर न था
यार आज मैं ने भी इक कमाल करना है
जिस्म से निकलना है जी बहाल करना है
ज़मीं छोड़ने का अनोखा मज़ा
कबूतर की ऊँची उड़ानों में था
किसी से कोई तअल्लुक़ रहा न हो जैसे
कुछ इस तरह से गुज़रते हुए ज़माने थे
गली में कोई घर अच्छा नहीं था
मगर कुछ खिड़कियाँ अच्छी लगी हैं
मुतमइन है वो बना कर दुनिया
कौन होता हूँ मैं ढाने वाला
तारीफ़ सुन के दोस्त से 'अल्वी' तू ख़ुश न हो
उस को तिरी बुराइयाँ करते हुए भी देख
वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर
आदत इस की भी आदमी सी है
- गुलज़ार
हम तो बचपन में भी अकेले थे
सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे
- जावेद अख़्तर
क्या पूछते हो कौन है ये किस की है शोहरत
क्या तुम ने कभी 'दाग़' का दीवां नहीं देखा
- दाग़ देहलवी
भँवर से लड़ो तुंद लहरों से उलझो
कहाँ तक चलोगे किनारे किनारे
- रज़ा हमदानी