Latest Hindi Kahani Nirnay: Wakt ke Dorahe Par Khadi Sonu Ki Maan हिंदी कहानी निर्णय: वक्त के दोराहे पर खड़ी सोनू की मां
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अपना घर, पति, बच्चे एक स्त्री का संपूर्ण संसार तो बस इन्हीं तानोंबानों में जकड़ा होता है. भाग सकने की गुंजाइश ही कहां छोड़ता है स्त्री का अपना मन. हिंदी कहानी निर्णय: वक्त के दोराहे पर खड़ी सोनू की मां
निर्णय: वक्त के दोराहे पर खड़ी सोनू की मां- भाग 1
4 साढ़े 4 बजे वह नीचे आई तो देखा, मां ने पूरी तैयारी कर रखी है. अपनी ननद के घर जोजो नेग ले कर जाने हैं वे सब पलंग पर फैला रखे थे. उसे सब दिखाती हुई मां बोलींरेलवे स्टेशन से बाहर निकल कर जब वह टैक्सी लेने लगी तो पलभर के लिए उस का मन हुआ कि घर न जा कर वह कहीं भाग जाए सोनू को ले कर. फिर उतनी ही त्वरित गति से उस की आंखों के सामने उस की अपनी तीनों मासूम बेटियों का चेहरा घूम गया. अपना घर, पति, बच्चे एक स्त्री का संपूर्ण संसार तो बस इन्हीं तानोंबानों में जकड़ा होता है. भाग सकने की गुंजाइश ही कहां छोड़ता है स्त्री का अपना मन. नहीं, हार मानने से नहीं चलेगा. स्त्री जब एक बार मातृत्व के गुरुगंभीर पद पर आसीन हो जाती है तो उस पद की रक्षा करने का दुर्दम्य साहस भी स्वयमेव ही चला आता है. अपनी सुषुप्त शक्ति को पहचानने भर की देर होती है, बस. नहीं, वह हार नहीं मानेगी.
भीतर ही भीतर स्वयं को दृढ़ता का पाठ पढ़ाती, तौलती, परखती वह टैक्सी में जा बैठी, रामबाग, अपने घर का पता बता कर उस ने सोनू को सीट पर बिठा दिया. बैग आगे की खाली सीट पर रख दिया. पर्स से उस ने सोनू के दूध की बोतल निकाली और उसे पकड़ा दी. सोनू उस से टिक कर अधलेटा हो गया. खुद को उस ने सीट पर ढीला छोड़ दिया तथा आंखें बंद कर लीं. अपने 3 दिन के ससुराल प्रवास की एकएक बात उस के सिर पर हथौडे़ सी बज रही थी. विदा लेते समय छोटी ननद सरिता ने भावावेग में उस का हाथ कस कर पकड़ लिया था. उस ने कहा था, ‘अपनाया है तो रिश्तों को ईमानदारी से निभाओ. सचाइयों से घबरा कर संबंधों के प्रति बेईमान नहीं हुआ जा सकता, फिर मांबच्चे का संबंध किसी भी सहमति का मुहताज नहीं होता.’
‘ईमानदारी से भी अधिक जरूरी साहस है इस रिश्ते में.’ अपनी भर्राई हुई टूटती आवाज में कह कर वह कार में बैठ गई थी. सरिता वहीं, घर के गेट पर खड़ी उसे जाता हुआ देखती रही थी. वापसी के पूरे सफर में सरिता की कही बातें उस के दिमाग में घूमती रही थीं. वह रोना चाहती थी, चिल्लाचिल्ला कर अपने भीतर का सारा आक्रोश निकाल देना चाहती थी. क्यों उस के आसपास के सारे लोग इतने स्वार्थी हो कर सोच रहे हैं. क्यों सरिता के सिवा किसी अन्य को उस का दर्द दिखाई नहीं देता. इतना निर्मम तथा कठोर कैसे हो सकता है कोई. यों तो वह जब भी ससुराल से लौटी है, कभी खाली नहीं लौटी. मां तथा बड़ी ननद, सुषमा जिज्जी की तीखीकड़वी बातों से भरा दुखी, हताश दिलदिमाग ले कर ही लौटी है. पर डेढ़ साल पहले जब पहली बार नन्हे से सोनू को गोद में लिए ससुराल आई थी तो इन्हीं मां तथा जिज्जी ने हम दोनों को जैसे पलकों पर उठा लिया था. पोते को गोद में उठाए दादी पूरे महल्ले में घूम आई थीं. रोज शाम के वक्त उस की नजर उतारती थीं…और अब? एक सच ने मानो ममता, प्रेम, वात्सल्य सब पर डाका ही डाल दिया था. आने से पहले उसे तनिक भी अंदेशा नहीं था कि वहां ये सब हो जाएगा. अनमनी अवश्य थी, पहली बार अकेले जा रही थी, जबकि लड़कियों की परीक्षाएं सिर पर थीं. बूआ के पोते के नामकरण पर जाना कोई इतना जरूरी तो नहीं था, पर नीलाभ नहीं माने. दरअसल, उस का ससुराल और नीलाभ की बूआ का घर एक ही महल्ले में है. इसीलिए उन का तर्क था कि बूआ के घर की खुशी में सम्मिलित होने के बहाने वह अपने ससुराल वालों से भी मिल आएगी. साथ ही, सारी बिरादरी से भी मेलमुलाकात हो जाएगी. एक तरह से नीलाभ ने उसे जबरन ठेलठाल कर भेजा था.
उसे चिढ़ हो रही थी नीलाभ की बचकानी जिद पर. वह उस के पीछे छिपी उन की मंशा को भांप नहीं पाई थी. ट्रेन 4 घंटे लेट थी. ससुराल का ड्राइवर स्टेशन पर उस का इंतजार कर रहा था. घर पहुंची तो वहां की हवा में उसे कुछ भारीपन सा लगा था. मां व जिज्जी दोनों ही कुछ उखड़ीउखड़ी लग रही थीं. सोनू को भी दोनों में से किसी ने हुलस कर पहले की भांति गोद में उठा कर लाड़प्यार की बौछार नहीं की थी. उस का जी तो उसी समय हुड़क गया था. जेठानी प्रभा औपचारिक नमस्ते के बाद रसोई में जा घुसी थीं. कुछ देर बाद चायनाश्ता व सोनू का दूध रख कर फिर गायब हो गई थीं. नौकर से कह कर मां ने उस का सामान ऊपर वाले छोटे कमरे में रखवा दिया था. शाम 5 बजे बूआ के घर के लिए निकलने व अभी ऊपर जा कर आराम करने की हिदायत दे कर दोनों उसे बैठक में अकेला छोड़ कर निकल गई थीं. उस का व सोनू का खाना भी जिज्जी ने ऊपर ही भिजवा दिया था, जिस का एक निवाला तक उस के गले नहीं उतरा था.
4 साढ़े 4 बजे वह नीचे आई तो देखा, मां ने पूरी तैयारी कर रखी है. अपनी ननद के घर जोजो नेग ले कर जाने हैं वे सब पलंग पर फैला रखे थे. उसे सब दिखाती हुई मां बोलीं, ‘छोरियां चाहे बूढ़ी ही क्यों न हों, रहेंगी छोरियां ही न घर की. माई, बापू और भाई का साया सिर पर से उठ गया तो क्या हुआ, भौजी तो जिंदा है न अभी. मेरे होते कभी मायके की कमी न अखरेगी तुम्हारी बूआ को. इतने दिनों के बाद आई है उस के घर में खुशी, सारी बिरादरी देखेगी, इसीलिए करना पड़े है ये सब.’ लहूलुहान कलेजे के बावजूद हंसी ने एक हिलोर ले ली थी, जिसे उस ने भीतर ही दबा लिया. दोहरी बातें करने में पारंगत हैं मां. तोहफे तो उस के पास भी थे. नीलाभ ने अपनी मां, जिज्जी, भाई, भाभी तथा बच्चों के लिए अलगअलग उपहार भेजे थे. सब ज्यों के त्यों रखे थे बैग में. जब बैग खोला तो सारे उपहार मुंह चिढ़ाते से लगे थे उसे. ये जो सब मिल कर उस की भावनाओं की, ममता की हत्या करने पर तुले हुए हैं, उन्हें किस कलेजे से जा कर थमाए उपहार.
फिर पता नहीं क्या सोच कर वह उठी और अपनी तरफ से बूआ को देने लाए हुए उपहार निकाल लाई. बूआ तथा उन की बहू की साड़ी व नवजात पोते के लिए चांदी के तार में काले मोतियों वाले कड़े लाई थी वह. मां को दिखा कर ये सामान भी उस ने अन्य वस्तुओं के साथ पलंग पर रख दिया. कुछ भी हो, बिरादरी के सामने तो घर की बातों को ढक कर ही रखना पड़ता है. बहू हो कर वह अलग से कैसे करेगी लेनदेन.
निर्णय: वक्त के दोराहे पर खड़ी सोनू की मां- भाग 2
भीतर की सारी उथलपुथल भीतर ही समेटे ऊपर से सामान्य दिखने की कोशिश में अपनी सारी ऊर्जा खर्च करती वह बूआ के घर में सब से मिलतीमिलाती रही थी.मन की कड़वाहट मन में ही दबा ली थी उस ने इस समय. कुछ ही देर पहले तो मां ने छोरियां जनने वाली डायन कहा था उसे. ‘मुझे तो पहले से ही शक था कि यह इस का अपना जाया नहीं है,’ जिज्जी बोली थीं. दोनों आंगन में चारपाई डाले साग बीन रही थीं. उन्हें पता नहीं था कि वह आंगन के ठीक ऊपर लगे लोहे के जाल की मुंडेर पर खड़ी सुन रही है. अभी नहा कर निकली थी वह. सफर में पहने अपने व सोनू के कपड़े धो डाले थे उस ने. तार पर सूखने को डाल रही थी. ‘इस औरत ने पता नहीं क्या जादू कर रखा है. अपना नीलाभ तो ऐसा कभी नहीं था. इतने साल भनक तक न लगने दी सचाई की. अब जो भी है, इस अपाहिज से पीछा तो छुड़ाना ही होगा भाई का,’ जिज्जी की जहरीली फुफकार से उस का रोमरोम जल उठा था. कोई स्त्री इतनी कठोर कैसे हो सकती है. मां कहती हैं, उन का बेटा उस के बहकावे में आ गया है. बेशक, अलग गृहस्थी बसा कर बैठी है, पर बहू है घर की, बहू बन कर रहे. सिर पर चढ़ कर नाचने न देंगे. नीलाभ अनाथ नहीं है, उस के सिर पर मां का साया है अभी. बहू हो कर इतना बड़ा निर्णय लेने का उस अकेली को कोई हक नहीं.’
कलेजा बर्फ हो गया था उस का. हाथपांव सुन्न हो गए थे. घरभर के ठंडे व उपेक्षित व्यवहार का कारण पलभर में उसे समझ आ गया था. उसे ट्रेन पर बिठाते ही नीलाभ ने इन लोगों के आगे वह सारा सच उगल दिया था जिसे वे दोनों आज तक अपनी परछाईं से भी छिपा कर रखते थे. मां ने क्या आग उगली, जिज्जी ने क्या दंश दिए, सब बेमानी हो गए थे नीलाभ के विश्वासघात के आगे. अपना वश नहीं चला तो उस पर घर वालों का दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे नीलाभ. यहीं चूक गए नीलाभ. पहचान नहीं पाए उसे. वह तो उसी क्षण उसी रात पूर्णरूपेण मां बन गई थी बेटे की. ममता भी कहीं आधीअधूरी होती है. अब शरर में कुछ दोष है तो है. इस नन्ही सी जान की सेवा के लिए परिवार या नीलाभ कौन होते हैं रोड़ा अटकाने वाले. अब यह तो नहीं हो सकता कि एक दिन अचानक से एक अनजान बालक को गोद में डाल दिया और कहा, ‘यह लो, बेटा बना लो. फिर कह दिया, नहीं, यह बेटा नहीं हो सकता, छोड़ आओ कहीं.’ वह हैरान थी कि कमी उजागर होते ही बेटे पर जान न्योछावर करने वाला पिता इतना कठोर हृदय कैसे हो सकता है.
भीतर की सारी उथलपुथल भीतर ही समेटे ऊपर से सामान्य दिखने की कोशिश में अपनी सारी ऊर्जा खर्च करती वह बूआ के घर में सब से मिलतीमिलाती रही थी. नामकरण से लौट कर रात को मां तथा जिज्जी ने उसे आ घेरा था. उन्हें हजम ही नहीं हो रहा था कि उस ने सब से इतना बड़ा झूठ बोला कैसे. शक तो पहले से ही था. न दिन चढ़ने की खबर लगने दी, न दर्द उठने की, सीधा छोरा जनने की खबर सुना दी थी. छोरा न हुआ, कुम्हड़ा हो गया कि गए और तोड़ लाए. ‘अब नीलाभ नहीं चाहता है तो तू क्यों सीने से चिपकाए है छोरे को. छोड़ क्यों नहीं देती इसे. पता नहीं किस जातकुजात का पाप है. अच्छा हुआ कि छोरा अपाहिज निकला वरना हमें कभी कानोंकान भनक न होती.’ बिफर तो सुबह से ही रही थीं दोनों, पर पता नहीं कैसे जब्त किए बैठी थीं. शायद उन्हें डर था कि ये सब बातें उठते ही क्लेश मच जाएगा घर में. उस के रोनेबिसूरने, विरोध तथा विद्रोह के स्वर इतने ऊंचे न हो जाएं कि उन की गूंज बूआ के घर एकत्र हुए मेहमानों तक पहुंच जाए. सब को पता था कि वह आई हुई है विशेष तौर पर समारोह में सम्मिलित होने. बिफर कर कहीं वहां जाने से इनकार कर देती तो बिरादरी में मां सब को क्या बतातीं उस के न आने का कारण.
सिर झुकाए बैठी वह सोच रही थी कि यदि सोनू की मां का कुछ अतापता होता तो नीलाभ अवश्य ही उसे वापस सौंप देते बच्चा. पर वह फिलहाल अनजान लड़की तो आसन्नप्रसवा थी जब नीलाभ के नर्सिंग होम में पहुंची थी. आधी रात का समय, स्टाफ और मरीज अधिक नहीं थे उस समय. बस, एक आपातकालीन मरीज की देखभाल करने के लिए रुके हुए थे नीलाभ. कुछ ही पलों में बच्चा जना और पता नहीं चुपचाप कब बच्चा वहीं छोड़ कर भाग निकली थी वह लड़की. पहले तो घबरा गए नीलाभ, पुलिस को सूचना देनी होगी. फिर अचानक उन की छठी इंद्रीय सक्रिय हो उठी. लड़का है. जो यों इसे पैदा कर के छोड़ कर भाग निकली है, वह वापस आने से तो रही. उन्होंने तुरंत उसे फोन किया तथा अस्पताल बुला लिया. एक बिस्तर पर लिटा कर पास ही पालने में वह नवजात शिशु लिटा दिया. सुबह होतेहोते यह खबर चारों ओर फैल गई कि रात में पुत्र को जन्म दिया है डाक्टर साहब की पत्नी ने. सब हैरान थे. अच्छा, मैडम गर्भवती थी, पता ही न चला. अड़ोसपड़ोस भी हैरान था. सब को डाक्टर साहब ने अपनी बातों से संतुष्ट कर दिया. वैसे भी वह कहां ज्यादा उठतीबैठती थी पड़ोस में. छोटे शहरों में भी आजकल वह बात नहीं रही. कौन किस की इतनी खबर रखता है. बधाइयां दी गईं, मिठाइयां बांटी गईं, जश्न हुए. यही मां और जिज्जी बलाएं लेती न आघाती थीं. और अब इतना जहर. 5 बजे की ट्रेन थी उस की वापसी की. उस के निकलने से घंटा भर पहले सरिता आ पहुंची थी उस से मिलने. कोई और वक्त होता तो वह सौ गिलेशिकवे करती अपनी प्यारी ननद, अपनी बचपन की सखी सरिता से. पर जब से आई थी, इतने तनाव, क्लेश और परेशानियों में फंसी थी कि उसे स्वयं भी कहां याद रहा था एक बार सरिता को फोन ही कर लेना.
निर्णय: वक्त के दोराहे पर खड़ी सोनू की मां- भाग 3
डोरबैल बजी. सन्नाटा पसर गया कमरे में. क्षणभर को सब ठिठक गए. वह खुद को संभालती उठी और दरवाजा खोला. प्रजापतिजी थे. नीलाभ के मित्र एवं शिप्रा के लौंग जंप खेल के कोच.सरिता का ससुराल स्टेशन के पास ही रमेश नगर में है. कुल आधे घंटे का रास्ता है यहां से. पर पता नहीं क्यों वह कल बूआ के घर भी नहीं आई थी. आज आई है जब समय ही नहीं बचा है बैठ कर दो बातें करने का. सरिता आई तो जैसे उस की रुकी हुई सांसें भी चलने लगी थीं. बचपन में उस का मायका तथा ससुराल दोनों परिवार एक ही महल्ले में रहते थे. दोनों साथसाथ पढ़ती थीं एक ही कक्षा में. पक्की सहेलियां थीं दोनों. सूखे कुएं के पीछे, बुढि़या के घर से अमरूद तोड़ कर चुराने हों या पेटदर्द का बहाना कर स्कूल से छुट्टी मारनी हो, दोनों हमेशा साथ होती थीं. 7वीं-8वीं तक आतेआते तो इन दोनों की कारगुजारियां जासूसी एवं रूमानी उपन्यास पढ़ने तथा कभीकभार मौका पाते ही सपना टाकिज में छिप कर पिक्चर देख आने तक बढ़ गई थीं. क्या मजाल कि दोनों के बीच की बात की तीसरे को भनक तक लग जाए. उस के बाद साथ छूट गया था. सरिता के पिता का तबादला हो गया था. बाद में जब किसी बिचौलिए की सहायता से सरिता का रिश्ता नीलाभ के लिए आया तो सब ने स्वीकृति की मुहर इसीलिए लगाई थी कि कभी दोनों परिवार एकदूसरे के साथ, एक ही महल्ले में रहते थे. जानते हैं एकदूसरे को.
दूसरी ओर वह थी कि डाक्टर पति पाने से भी अधिक प्रसन्नता उसे सरिता को ननद के रूप में पाने की हुई थी. आज तक बदला नहीं है वह रिश्ता. यह बात छिपी तो नहीं किसी से फिर भी जिज्जी ने उस पर दबाव बढ़ाने के लिए सरिता को बुला भेजा था. उन्हें शायद लगा था कि इस विषय में सरिता अपनी सखी का नहीं बल्कि मां तथा जिज्जी का ही साथ देगी. आखिर उसे भी तो कुछ नहीं बताया गया था. वह धोखे में ही थी. आते ही सरिता उस के गले लग गई थी. 3 दिनों में पहली बार आंखें छलक आई थीं उस की. आंसू भी शायद तभी बहते हैं जब कोई पोंछने वाला हो सामने. उस ने इतना बड़ा सच छिपाया था सरिता से भी. पर उसे जरा भी बुरा नहीं लगा था. उस ने तो अहमियत ही न दी थी इस बात को. जिस बात को जानने का कोई कारण ही न हो, उसे न भी बताया जाए तो क्या हर्ज है. सब को सुना कर कहा था सरिता ने, ‘वे सब बड़े हैं तो क्या दूसरों को सिर झुका कर उन की हर जायजनाजायज बात माननी पड़ेगी?’
जिज्जी ने चिढ़ कर दोनों को एक ही थैली के चट्टेबट्टे तक कह दिया था. बचपन की दबंगई गई कहां है सरिता की. बड़ी ही दुखती रग पर हाथ धर दिया था उस ने. सीधे कह दिया, ‘अपना दुख बिसरा चुकी हो जिज्जी?’ जिज्जी सन्न रह गई थीं. रोतीबिसूरती पैर पटकती जा बैठी थीं अपने कमरे में. उस की आंख के आगे अंधेरा छाने लगा था. देखा जाए तो जिज्जी के दुख की विशालता का कहां ओरछोर है. असमय ही पति की मृत्यु के बाद बेटे को अपने पास रख 6 महीने की बेटी सहित जिज्जी को नंगे पांव घर से बाहर कर दिया था उन के ससुराल वालों ने. वह समझती है जिज्जी की मनोदशा. तब की उपजी कड़वाहट ने उन का जीवन ही नहीं, दिलदिमाग तथा जबान तक को जहरीला कर दिया है. कहीं न कहीं यह बात भी थी कि मायके में अपने पांव जमाए रखने के लिए वे पूरे घर की नकेल को कस कर थामे रखना चाहती थीं. जबकि वह है कि फिसलती ही जा रही है उन के हाथों से. उस पर सरिता ने आ कर और गुड़गोबर कर दिया था. दृढ़ प्राचीर की भांति खड़ी हो गई थी सरिता उस के और मां व जिज्जी के बीच. निश्चय तो पहले से ही पक्का था, जब सरिता की बातों ने उस का हौसला और बढ़ा दिया था. दृढ़ता की अनगिनत परतें और चढ़ गई थीं उस के निश्चय पर. नीलाभ डाक्टर है. सोनू की बीमारी उन्होंने पहले भांप ली थी. उस से उखड़ेउखड़े और कटेकटे रहने लगे थे सोनू के लक्षण दूसरे साल ही प्रकट होने लगे थे. बोलता भी था दांत भी निकाल लिए थे. कूल्हों के बल घिसटता था. सहारा दे कर खड़ा करने पर भी पैर नीचे नहीं रखता था.
नीलाभ चपरासी को भेज कर अकसर सोनू को नर्सिंग होम बुलवा लेते थे. उसे पता ही न चलने दिया. पता नहीं कौनकौन से टैस्ट करवाए. दवाएं दी जाने लगीं. विटामिन एवं एनर्जी बूस्टर के नाम पर वह स्वयं न जाने कौनकौन सी दवाएं खुद अपने हाथों से देते रहे थे सोनू को. एक बार तो दिल्ली भी हो आए थे. घूमने के नाम पर. बहाने से नीलाभ सोनू को एम्स ले गए थे. गेस्ट हाउस लौटे तो चेहरा उतरा हुआ था. रोज बच्चों के साथ उसे पर्यटन विभाग की बस में बिठा देते दिल्ली दर्शन के लिए, स्वयं काम का बहाना कर फाइलें ले कर अलगअलग अस्पतालों के चक्कर काटते. शक तो उसे भी था. 3 साल का बच्चा स्वस्थ और सुंदर पर टांगें जैसे सूखी हड्डी मात्र. जान ही नहीं थी टांगों में. इस विषय में नीलाभ से बात करती तो वे खीज जाते या रूखा सा जवाब देते, ‘कुछ नहीं, सब ठीक है, कमजोरी है, ठीक हो जाएगी.’ पता नहीं ऐसा कह कर वे खुद को तसल्ली देते थे या उसे. उस ने चुपचाप कई प्रकार के आयुर्वेदिक तथा प्राकृतिक तेल व लेप मलने शुरू कर दिए थे सोनू की टांगों पर. दोनों एकदूसरे से नजरें चुराते, इस विषय में चिंतित तथा किसी अनहोनी की आशंका में घुलते रहते.
‘‘मैडम, रामबाग आ गया. अब किधर लूं?’’ टैक्सी वाले ने टोका तो सचेत हो कर उस ने इधरउधर देखा. टैक्सी वाला सोच रहा था कि सफर की थकी सवारी शायद सो गई है. वह फिर से बोला, ‘‘उठो जी मैडमजी, बताओ कौन सी गली में लूं?’’
‘‘नीलाभ नर्सिंगहोम.’’
‘‘अच्छा जी,’’ कह कर उस ने निर्दिष्ट दिशा की ओर गाड़ी मोड़ दी. घर पहुंच कर उस की इच्छा ही नहीं हुई कि नीलाभ से कुछ पूछे या सवालजवाब करे. जो छिपी बात बाहर निकल ही गई हो उसे पुन: तो नहीं छिपाया जा सकता. और कुछ हो न हो, पतिपत्नी के मध्य रिश्ता अवश्य ही अनाथ हो गया था. दोनों के बीच का गहन अबोला पूरे घर में सांयसांय करता डोलने लगा था. 2 छोटी बेटियां तो अबोध थीं अभी पर किशोरावस्था की ओर पग बढ़ाती बड़ी बेटी शिप्रा कुछ समझ रही थी, कुछ समझने का प्रयास कर रही थी. सोनू पता नहीं किस अज्ञात प्रेरणावश हर समय उसी के साथ चिपका रहता. अपनी सारी संचित शक्ति से वह अपने दृढ़ निश्चय, साहस तथा ममता को जागृत रखती कि कहीं किसी कमजोर पल में निष्ठुर पौरुष उसे अपने सामने घुटने टेकने को विवश न कर दे. 3 दिन का छूटा घर समेटने लगी तो उस ने नीलाभ की टेबल पर मैडिकल पत्रिका का एक अंक पड़ा देखा था. जन्मजात एवं वंशानुगत शारीरिक विसंगतियों का विशेषांक.
रात करीब 3 बजे उस की नींद खुली तो देखा नीलाभ लैपटौप पर दत्तचित्त हो कर पता नहीं क्या काम कर रहे थे. सांस रोक कर वह चुपचाप देखती रही थी. थोड़ी देर बाद लैपटौप बंद कर नीलाभ कोहनियों को मेज पर टिकाए दोनों हथेलियों में अपना झुका हुआ सिर थाम देर तक बैठे रहे थे. सुबह नर्सिंग होम नहीं गए वे. पता नहीं किस उधेड़बुन में लगे थे. कभी किसी को फोन करते, कभी कागजपत्तर फैला कर बैठ जाते. अचानक उठे और अटैची निकाल कर सोनू का सामान उस में भरने लगे. उसे लगा वह गश खा कर गिर पड़े. अपना सारा अहं, सारा मानअभिमान भूल कर वह नीलाभ के पैरों पर लोट गई.
‘‘बस करो, और मुश्किलें न बढ़ाओ ये सब कर के मेरे लिए.’’ नीलाभ तड़प कर बोले, ‘‘पत्थर नहीं हूं मैं. कोई इलाज नहीं है इस का यहां. और विदेश में इतना महंगा है कि मैं अपना सबकुछ बेच दूं तो भी पूरा न पड़ेगा, समझीं तुम. उस पर भी गारंटी कुछ नहीं.’’ पता नहीं नीलाभ की खीज, क्रोध और चिल्लाहट का मूल कारण क्या था. एक असहाय, अपाहिज बेटे के प्रति पिता का फर्ज निभा पाने की अक्षमता या एक कमजोर क्षण में एक निराश्रित को अपना मान लेने का निर्णय. शिप्रा आंसुओं में भीगी डरीसहमी दरवाजे के पीछे खड़ी सब देखसुन रही थी. दोनों छोटी बच्चियां भी डर के मारे अपने कमरे में दुबकी थीं. इस से पहले उन्होंने कभी पिता को इतने क्रोध में नहीं देखा था.
तभी डोरबैल बजी. सन्नाटा पसर गया कमरे में. क्षणभर को सब ठिठक गए. वह खुद को संभालती उठी और दरवाजा खोला. प्रजापतिजी थे. नीलाभ के मित्र एवं शिप्रा के लौंग जंप खेल के कोच. घर के असहज वातावरण को भांप कर कुछ अचकचा से गए थे. वह समझ गई थी उन के आने का कारण. अंतर विद्यालय प्रतियोगिता को कुछ ही दिन रह गए हैं पर शिप्रा का ध्यान ही नहीं है आजकल किसी चीज में. ‘‘प्रैक्टिस पर क्यों नहीं आती आजकल बेटा?’’ सीधे शिप्रा से ही पूछ लिया था प्रजापतिजी ने. शिप्रा अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व करती है इस खेल में.
‘‘मुझे नहीं खेलना,’’ उस ने नजरें चुराते हुए कहा.
‘‘क्यों? क्या मुसीबत आन पड़ी है, पता तो चले? गोल्ड जीत सकती हो. स्टेट लेवल पर जाओगी. दिमाग में भूसा भरा है क्या? चांस रोजरोज नहीं मिलते.’’ नीलाभ ने शिप्रा के ‘सर’ के बैठे होने का भी लिहाज न किया और अपने भीतर दबा कहीं का आक्रोश कहीं निकाला. ‘‘रेखा के पांव की हड्डी टूट गई है जंप लगाते हुए,’’ शिप्रा डर कर बोली.
‘‘तो…?’’ हैरानी से प्रजापतिजी बोले. उन की बात बीच में ही काट कर नीलाभ बिफर पड़े, ‘‘चोट उसे लगी है. तुम्हारी तो सलामत हैं न दोनों टांगें. चोट के डर से क्या घर पर बैठ जाओगी?’’ शिप्रा आंसू रोकने का भरसक प्रयास कर रही थी. आंखें जैसे जल रही थीं उस की. मुंह तमतमा गया था. उस की दृष्टि सोनू के पैरों पर जमी थी. ‘‘लग सकती है मुझे भी. कहीं मेरे पैर भी…तो आप मुझे भी सोनू की तरह…’’ रुलाई में शब्द गड्डमड्ड हो गए थे. पुत्री के टूटेफूटे अस्फुट शब्द और अधूरे वाक्यों ने अपनी पूरी बात संप्रेषित कर दी थी. नीलाभ के पैरों के नीचे की धरती घूम सी गई. आंखों के आगे अंधेरा छा गया. बेदम हो कर वे पास पड़ी कुरसी पर ढेर हो गए.