Hindi short Story Sun Chhotu Bade Bhayya ki Kahani |
जिंदगी हर रोज जाने कितनी कहानियां कहती है । इन कहानियों को बहत गौर से सनने की जरूरत है । क्या पता , इनमें से जीवन का कोई नया फलसफा निकल आए ।
सुन छोटू . . . बड़े भैया की कहानी
इंद्रजीत कौर
"बेटा , एक समय की बात है । हजारों पेज की ऑनलाइन किताबें पढ़ता हुआ तुम्हारा भैया कभी स्कूल भी जाता था । जिस तरह आंखों की क्षमता से ज्यादा उससे काम करवाया जा रहा है , उसी तरह पीठ से । भारी ‘ स्कूल - बैग ' लदवाया जाता था । पीठ आधी झुकी रहती ।
। जितनी ज्यादा झुकी रहती , विद्यालय उतना ही अच्छा माना जाता था । सुबह पीले रंग की वैन आते ही तुम्हारा भैया तैयार होकर नीचे उतर जाता । वैन में हमें कोई सीट खाली नहीं दिखती थी पर ड्राइवर की नजर में पूरी वैन खाली रहती । वह भैया को गाड़ी के अंदर धंसाकर गेट सटाक से बंद कर देता था । हर चीज क्षमता से ज्यादा थी तो गाड़ी क्यों पीछे रहती ? सीट पर बैठे बच्चों के पैर भी सीट का ही काम करते । एक पैर , एक सीट । इस नियम के हिसाब से सीट पर बैठा हुआ एक बच्चा दो सीट के बराबर था ।
भैया गाड़ी में बैठकर खुश रहता । उसने कभी शिकायत नहीं की । आज निक्कर - बानियान में झल्लों की तरह वह भले दिख रहा हो , स्कूल के दिनों में चार तरह की यूनिफार्म ( मोजे - जूते के साथ ) होती थी । नीली , लाल , हरी और सफेद । नीली वाली स्कूल की मेन यूनिफार्म थी और लाल वाली हाउस ड्रेस । खेत के ऊपर बने इस स्कूल में पर्यावरण दिवस हफ्तावार मनाया जाता था ।
इस दिन हरी ड्रेस में विदेशी घास - पौधों की देखभाल करनी होती थी । समझ में नहीं आता था कि खेलते समय कपड़े जल्दी गंदे हो जाते हैं , दाग भी पड़ जाते हैं तो ' स्पोर्ट्स डे ' के लिए सफेद कपड़े ही क्यों ? खैर , मुझे मैनेजर द्वारा बताए । दकान से सफेद रंग की चार जोड़ी ड्रेस अलग से लेनी पड़ी थी । टाई बांधते समय खांसी आती थी , पर भैया इसे लटका कर ही जाता । शाम को इसे निकालता तो खुलकर सांस लेता । गले पर लाल दाग बन जाता , पर बच्चा स्मार्ट लगता । बिलकुल अंग्रेज | की तरह । पैरों का तो पूछो मत ।
मोजे , जूतों में जकड़े ही रहते । हवा छू नहीं पाती थी । शाम को पैर बाहर निकलते तो चिपकी हुई उंगलियाँ धीरे से ऐसे अलग होती मानो कि सांस लेने के लिए जगह बना रही हो । हां , पैर साफ - सुथरे । रहते । धूल का कोई कण क्या , अणु - परमाणु भी पैर पर ' पर ' नहीं मार सकता था । तुम्हारा आठ वर्षीय भैया कभी - कभार बाहर भी खेलता था । घोड़े की टाप जैसे टप - टप करके नीचे उतरता था ।
मन से दूर होते हुए भी आस - पड़ोस के बच्चों के साथ ' हाइड एंड सीक ' खेलता था । खेलता तो आज भी है । थोड़ा फर्क है । सभी ‘ हाइड ' हो गए हैं । वह बालकनी पर जाकर ' सीक ' करता है , फिर अंदर जाकर ' हाइड ' हो जाता है । जिस शुद्ध और ठहरी - सी हवा में तुम सांस ले रहे हो , पहले वह खुद सांस नहीं ले पाती थी । उसे पता ही नहीं था कि उसमें कौन सी गैसें मिल गई हैं और कौन सी गायब हैं । इस चक्कर में हवा को कभी कब्ज तो कभी गैस बनी रहती । तुम्हें बालकनी तक लाती हूं तो नीचे एक सड़क दिखती होगी । भाक बहुत सूनी - सूनी सी ।
दरअसल , वहां कभी बहुत रौनक हुआ करती थी । भैया वहां चलता भी था । यह जो सभी के मुंह पर मास्क देख रहे हो न , पहले भी था । फर्क यह है कि इस वाले मास्क के पीछे थोड़ा चेहरा दिखता है , पहले वाले में पूरा छिप जाता था । चेहरे पर चेहरा लगा रहता था । पता ही नहीं चलता कि पीछे वाला चेहरा हरा है या लाल ।
गुलाबी है या पीला । झक सफेद है या काले रंग से पुता हुआ । रंग मौकानुसार बदलता भी रहता , पर पता नहीं चलता था । दुकानों , शोरूम , मॉल आदि से पूरा बाजार टिमटिमाता रहता । तारों की तरह इन्हें गिनना मुश्किल था । गाड़ियां उल्काओं की तरह इधर उधर भागतीं । सभी ने आसमान सिर पर तो उठाया ही था , कदमों के नीचे भी पटक दिया था । हालांकि आसमान ने बहुत बार चेताया पर हमने चित्त धरा ही नहीं । अब वह सम्मान वापस लेने की सोच रहा है । देखो ! हमारे दिन कब बहुरतें हैं । " कुछ क्षण चुप रहकर मां ने गहरी सांस ली । उसका एक माह का बेटा गोद में सो गया था । बड़ा बेटा ऑनलाइन पढ़ाई के लिए खरीदे चार सौ पेज के रजिस्टर पर सिर रखकर सो गया था , जो उसने लॉकडाउन के कारण पड़ोस की दुकान को पिछवाड़े से खुलवाकर ली थी ।