धर्मणा के स्वर्णिम रथ |
धर्मणा के स्वर्णिम रथ- पाखी को अधर्मी क्यों कहते थें लोग? भाग 2
पाखी घरवालों के सामने घर्म की कोई बात नहीं करना चाहती थी, क्योंकि बात सुनते ही सब बिदक जाते थें.
जाए? आप की मंडली में तो सभी संपन्न घरों से आती हैं. जो चढ़ावा आता है और जो कुछ आप ने प्रसाद के लिए सोचा है, सब मिला कर किसी झोपड़पट्टी के बच्चों को दूधफल खिलाने के काम आ जाएगा.’’
‘‘कैसी बात करती हो, पाखी? तुम खुद तो अधर्मी हो ही, हमें भी अपने पाप की राह पर चलने को कह रही हो. अरे, धर्म से उलझा नहीं करते. अभी सुनी नहीं तुम ने मेरी भाभी वाली बात? हाय जिज्जी, यह कैसी बहू लिखी थी आप के नाम,’’ रानी चाची ने पाखी के सुझाव को एक अलग ही जामा पहना दिया. उन के जोरजोर से बोलने के कारण आसपास घूम रहा संबल भी वहीं आ गया, ‘‘क्या हो गया, चाचीजी?’’
‘‘होना क्या है, अपनी पत्नी को समझा, अपने परिवार के रीतिरिवाज सिखा. आज के दिन तो कम से कम ऐसी बात न करे,’’ रानी के कहते ही संबल ने आव देखा न ताव, पाखी की बांह पकड़ उसे घर के अंदर ले गया.
‘‘देखो पाखी, मैं जानता हूं कि तुम पूजाधर्म को ढकोसला मानती हो, पर हम नहीं मानते. हम संस्कारी लोग हैं. अगर तुम्हें यहां इतना ही बुरा लगता है तो अपना अलग रास्ता चुन सकती हो. पर यदि तुम यहां रहना चाहती हो तो हमारी तरह रहना होगा,’’ संबल धाराप्रवाह बोलता गया.
वह अकसर बिदक जाया करता था. इसी कारण पाखी उस से धर्म के बारे में कोई बात नहीं किया करती थी. परंतु वह स्वयं को धार्मिक आडंबरों में भागीदार नहीं बना पाती थी. इस समय उस ने चुप रहने में ही अपनी और परिवार की भलाई समझी. वह जान गईर् थी कि संबल को रस्में निभाने में दिलचस्पी थी, न कि रिश्ते निभाने में.
‘‘ऐसी कोई बात नहीं है, संबल. चाचीजी को मेरी बात गलत लगी, तो मैं नहीं कहूंगी. तुम बाहर जा कर मेहमानों को देखो,’’ उस ने समझदारी से संबल को बाहर भेज दिया और खुद मनन को खिलानेसुलाने में व्यस्त हो गई. मन अवश्य भीग गया था. उसे संदेह होने लगता है कि काश, उस की मानसिकता भी इन्हीं लोगों की भांति होती तो उस के लिए जीवन कुछ आसान होता. परंतु फिर अगले पल वह अपने मन में उपमा दोहराती कि जैसे कीचड़ में कमल खिलता है, वह भी इस परिवार में इन की अंधविश्वासी व पाखंडी मानसिकता से स्वयं को दूर रखे हुए है.
इधर किशोरीलाल स्वयं रानी चाची को उन के घर तक छोड़ने गए. ममता ही जिद कर के भेजा करती थीं. ‘‘आप गाड़ी चला कर जाइए रानी को छोड़ने. वह कोई पराई है क्या, जो ड्राइवर के साथ उसे भेज दें?’’
रास्ते में रोशन कुल्फी वाले की दुकान आई तो किशोरीलाल ने पूछा, ‘‘रोकूं क्या, तुम्हारी पसंदीदा दुकान आ गई. खाओगी कुल्फीफालूदा?’’
‘‘पूछ तो ऐसे रहे हो जैसे मेरे मना करने पर मान जाओगे? तुम्हीं ने बिगाड़ा है मुझे. अब हरजाना भी भुगतना पड़ेगा,’’ रानी ने खिलखिला कर कहा. फिर किशोरीलाल की बांह अपने गले से हटाते हुए कहने लगी, ‘‘किसी ने देख लिया तो? आखिर तुम्हारी दुकान यहीं पर है, जानपहचान वाले मिल ही जाते हैं हर बार.’’
किशोरीलाल और रानी के बीच अनैतिक संबंध जाने कितने वर्षों से पनप रहा था. सब की नाक के नीचे एक ही परिवार में दोनों अपनेअपने जीवनसाथी को आसानी से धोखा देते आ रहे थे. ममता धार्मिक कर्मकांड में उलझी रहतीं. रानी आ कर उन का हाथ बंटवा देती और ममता की चहेती बनी रहती. कभी पूजा सामग्री लाने के बहाने तो कभी पंडितजी को बुलाने के बहाने, किशोरीलाल और रानी खुलेआम साथसाथ घर से निकलते. किशोरीलाल ने अपनी दुकान में पहले माले पर एक कमरा अपने आराम करने के लिए बनवा रखा था. सभी मुलाजिमों को ताकीद थी कि जब सेठजी थक जाते हैं तब वहां आराम कर लेते हैं. पर जिस दिन घर पर पूजापाठ का कार्यक्रम होता, किशोरीलाल अपने सभी मुलाजिमों को छुट्टी देते और अपने घर न्योता दे कर बुलाते.
ऐसे में तैयारी करने के बहाने वे और रानी बाजार जाते. फिर दुकान पर एकडेढ़ घंटा एकदूसरे की आगोश में बिताते और आराम से घर लौट आते. मौज की मौज और धर्मकर्म का नाम. बाजार में कोई देख लेता तो सब को यही भान होता कि घर पर पूजा के लिए कुछ लेने दुकान पर आए हैं. वैसे भी, हर बार आयोजन से पहले किशोरीलाल, ममता के लिए अपनी दुकान से नई साडि़यां ले ही जाया करते थे. पत्नी भी खुश और प्रेमिका भी.
नवरात्र में भजनकीर्तन की तैयारी में जुटी ममता को अपना भी होश न था. सबकुछ भूल कर वे माता का दरबार सजाने में मगन थीं. बहू पाखी ने आज अपने कमरे में रह कर ही भोजन किया, वरना उसे सुबह से ही सास की चार बातें सुनने को मिल जातीं कि कोई व्रतउपवास नहीं करती. पाखी इन नाम के उपवासों में विश्वास नहीं करती थी. कहने को उपवास है, पर खाने का मैन्यू सुन लो तो दंग रह जाओ – साबूदाना की खिचड़ी, आलू फ्राई, कुट्टू के पूरीपकौड़े, घीया की सब्जी, आलू का हलवा, सामक के चावल की खीर, आलूसाबूदाने के पापड़, लय्या के लड्डू, हर प्रकार के फल और भी न जाने क्याक्या.
कहने को व्रत रख रहे हैं पर सारा ध्यान केवल इस ओर कि इस बार खाने में क्या बनेगा. रोजाना के भोजन से कहीं अधिक बनता है इन दिनों में. और विविधता की तो पूछो ही मत. 9 दिन व्रत रखेंगे और फिर कहेंगे कि हमें तो हवा भी लग जाती है, वरना पतले न हो जाते. अरे भई, इतना खाओगे, वह भी तलाभुना, तो पतले कैसे हो सकते हो? पाखी अपनी सेहत और नन्हे मनन की देखरेख को ही अपना धर्म मानती व निभाती रहती.
कीर्तन करने के लिए अड़ोसपड़ोस की महिलाएं एकत्रित होने लगी थीं. सभी एक से बढ़ कर एक वस्त्र धारण किए हुए थीं. देवी की प्रतिमा को भी नए वस्त्र पहनाए गए थे – लहंगाचोलीचूनर, सोने के वर्क का मुकुट, पूरे हौल में फूलों की सजावट, देवी की प्रतिमा के आगे रखी टेबल पर प्रसाद का अथाह भंडार, देसी घी से लबालब चांदी के दीपक, नारियल, सुपारी, पान, रोली, मोली, क्या नहीं था समारोह की भव्यता बढ़ाने के लिए. आने वाली हर महिला को एक लाल चुनरिया दी जा रही थी जिस पर ‘जय माता दी’ लिखा हुआ था.
धर्मणा के स्वर्णिम रथ – पाखी को अधर्मी क्यों कहते थें लोग? भाग 3
रानी ने पाखी पर तंज कसते हुए कहा सारी मोहमाया यहीं रह जाएगी भगवान में मन लगा.
आज के दिन के खर्च का हिसाब लगाया जाए तो आसानी से 15 हजार रुपए तक पहुंच जाएगा. ममता समाज को ऐसा ही वैभव दर्शन करवाने की कामना से हर नवरात्र पर 9 दिन अपने घर में कीर्तन रखवाया करतीं. रानी ने भी प्रसाद में अपनी ओर से लाए फल सजवा दिए. कीर्तन प्रारंभ होने पर आदतन रानी ने ढोलक और माइक अपनी ओर खींच लिए. न तो वे किसी और को ढोलक बजाने देतीं और न ही माइक पर भजन गाने का अवसर प्रदान करती. यह मानो उन का एकाधिकार था.
सारी गोष्ठी में रानी के स्वर और थाप गूंजते. उन के मुखमंडल का तेज देखने लायक होता, जैसा उन से महान भक्त इस संसार में दूसरा कोई नहीं. रानी का प्रभुत्वपूर्ण व्यवहार देख पाखी का मन प्रतिवाद करता कि यह कैसी पूजा है जहां आप स्वयं को अन्य से श्रेष्ठ माननेमनवाने में लीन हैं. मुख से गा रहे हैं, ‘तेरा सबकुछ यहीं रह जाएगा…’ और एक ढोलकमाइक का मोह नहीं छूटते बन रहा.
कम उम्र की महिलाएं रानी के चरणस्पर्श करतीं तो वे और भी मधुसिक्त हो झूमने लगतीं. कोई कहती, ‘देखो, कैसे भक्तिरस के खुमार में डूब रही हैं,’ तो कोई कहती कि इन पर माता आ गई है. यह सब देखते हुए पाखी अकसर विचलित हो उठती. उसे इन आडंबरों से पाखंड की बू आती है. वह अकसर स्वयं को अपने आसपास के परिवेश में मिसफिट पाती. कितनी बार उस के मनमस्तिष्क में यह द्वंद्व उफनता कि काश, उस की सोच भी अपने वातावरण के अनुरूप होती तो उस के लिए सामंजस्य बिठाना कितना सरल होता. यदि उस के विचार भी इन औरतों से मेल खाते, तो वह भी इन्हीं में समायोजित रहती.
पाखी ने अपने कमरे में आ कर मनन को खाना खिलाया और फिर कीर्तन मंडली में जा कर बैठने को थी कि रानी ने तंज कसा, ‘‘पाखी, सारी मोहमाया यहीं रह जाएगी. भगवान में मन लगा, ये पतिबच्चे कोई काम नहीं आता. सिर्फ प्रभु नाम ही तारता है इस संसार से.’’
‘‘चाचीजी, मैं बच्चे को भूखा छोड़ कर भजन में मन कैसे लगाऊं?’’ पाखी से इस बार प्रतिउत्तर दिए बिना न रहा गया. इन ढपोलशंखी बातों से वैसे ही उसे खीझ उठ रही थी.
‘‘हमारा काम समझाना है, आगे तुम्हारी मरजी. जब हमारी उम्र में पहुंचोगी तब पछताओगी कि क्यों गृहस्थी के फालतू चक्करों में समय बरबाद किया. तब याद करोगी मेरी बात को.’’
‘‘तब की तब देखी जाएगी, चाचीजी. किंतु आज मैं अपने कर्तव्यों से मुंह नहीं मोड़ सकती. मेरा नन्हा बच्चा, जो मेरे सहारे है, उसे बेसहारा छोड़ मैं प्रभुगान करूं, यह मेरी दृष्टि में अनुचित है. मेरी नजर में यदि मैं अपने बच्चे को सही शिक्षा दे पाऊं, उस का उचित लालनपालन कर सकूं, तो वही मेरे लिए सर्वोच्च पूजा है,’’ अकसर चुप रह जाने वाली पाखी आज अपने शब्दों पर कोई बांध लगाने को तैयार नहीं थी.
उस की वर्तमान मानसिक दशा ताड़ती हुई रानी ने मौके की नजाकत को देखते हुए चुप हो जाने में भलाई जानी. लेकिन सब के समक्ष हुए इस वादप्रतिवाद से वह स्वयं को अवहेलित अनुभव करने से रोक नहीं पा रही थी. आज के घटनाक्रम का बदला वह ले कर रहेगी. मन ही मन प्रतिशोध की अग्नि में सुलगती रानी ने सभा समाप्त होने से पहले ही एक योजना बना डाली.
कुछ समय बाद दीवाली का त्योहार आया. मनन अपने छोटेछोटे हाथों में फुलझडि़यां लिए प्रसन्न था. किशोरीलाल और ममता दुकान में लक्ष्मीपूजन कर अब घर के मंदिर में पूजा करने वाले थे. चाचा और रानी चाची भी पूजाघर में विराजमान हो चुके थे. संबल ने पाखी को पूजा के लिए पुकारा. हर दीवाली पर पाखी वही हार पहनती जो संबल ने उसे सुहागरात पर भेंट दिया था, यह कह कर कि यह पुश्तैनी हार हर शुभ अवसर पर अवश्य पहनना है. किंतु इस बार पाखी को वह हार नहीं मिल रहा था. निराशा और खिन्नता से ओतप्रोत पाखी हार को हर तरफ खोज कर थक चुकी थी. आखिर उसे बिना हार पहने ही जाना पड़ा.
उस के गले में हार को न देख संबल
एक बार फिर आपा खो बैठा और
उस पर चीखने लगा. पाखी ने उसे समझाने का अथक प्रयास किया पर विफल रही. दीवाली का त्योहार खुशियां लाने के बजाय अशांति और कलह दे गया. सब के समक्ष संबल ने पाखी को खूब लताड़ा. बेचारी पाखी अपने लिए लापरवाह, असावधान, अनुत्तरदायी, अधर्मी जैसे उपमाएं सुनती रही.
‘‘हम तो सोचते थे कि पाखी को केवल धर्म और पूजापाठ से वितृष्णा है. हमें क्या पता कि इसे हर संस्कारी कर्म से परेशानी होती है. पारंपरिक विधियों से भला कैसा बैर,’’ रानी चाची आग में भरपूर घी उड़ेल रही थीं.
‘‘इसीलिए तो कहते हैं, रानी, कि धर्म से मत उलझो. देखो, तुम्हारी भाभी की तरह, हमारी बहू को भी उस के किए की सजा मिल गई. हाय, हमारा पुश्तैनी हार… इस से तो अच्छा था कि वह हार हम ही संभाल लेते,’’ ममता का विलाप परिस्थिति को और जटिल किए जा रहा था.
धर्मणा के स्वर्णिम रथ- पाखी को अधर्मी क्यों कहते थें लोग? भाग 4
पाखी का हृदय व्याकुल हो उठा. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. क्या उसे भी अन्य की भांति धार्मिक ढकोसलों के आगे झुक जाना चाहिए
इस घटना से पाखी भीतर तक सिहर गई. क्या सच में उसे अपने किए की सजा मिल रही थी? क्या धर्म की दुकान के आगे नतमस्तक न हो कर वह पाप की भागीदारिणी बन रही है? पाखी का हृदय व्याकुल हो उठा. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. क्या उसे भी अन्य की भांति धार्मिक ढकोसलों के आगे झुक जाना चाहिए, या फिर अपने तर्कवितर्क से जीवन मूल्यों को मापना चाहिए. इसी अस्तव्यस्तता की अवस्था में वह घर की छत पर जा पहुंची. संभवतया यहां उसे सांस आए. अमूमन घर की स्त्रियां छत पर केवल सूर्यचंद्र को अर्घ्य देने आया करती थीं. लंबीलंबी श्वास भरते हुए पाखी छत के एक कोने में जा बैठी. अभी उस का उद्वेलित मन शांत भी नहीं हुआ था कि उसे छत पर निकट आती कुछ आवाजें सुनाई दीं.
‘‘तो क्या करती मैं? खून का घूंट पी कर रह जाती उस कल की छोकरी से?’’ ये रानी चाची के स्वर थे, ‘‘उसे सबक सिखाना जरूरी था और फिर हार का क्या, मैं भी तो इसी परिवार का हिस्सा हूं. मेरे पास रह गया हार, तो कोई अनर्थ नहीं हो जाएगा.’’
तो क्या हार को जानबूझ कर रानी चाची ने गायब किया? उफ, पाखी का मन और भी भ्रमित हो उठा. धर्म के आगे न झुकने पर उस के अपने परिवार वाले ही उसे सजा दे रहे थे?
‘‘पकड़ी जाती तो?’’ यह एक मरदाना सुर था.
‘‘पर पकड़ी गई तो नहीं न?’’ रानी चाची अपनी होशियारी पर इठलाती प्रतीत हो रही थीं.
‘‘पकड़ी गई,’’ यह फिर उसी मरदाना सुर में आवाज आई. साथ ही, पाखी ने गुदगुदाने वाले स्वर सुने, मानो कोई चुहलबाजी कर रहा हो. बहुत सावधानी से पाखी ने झांका, तो हतप्रभ रह गई. उस के ससुर किशोरीलाल और रानी चाची एकदूसरे के साथ ठिठोली कर रहे थे. किशोरीलाल की बांहें
रानी चाची को अपने घेरे में लिए
हुए थीं और रानी चाची झूठमूठ कसमसा रही थीं. किशोरीलाल के
हाथ रानी चाची के अंगअंग पर मचल रहे थे.
‘‘छोड़ो न, जाने दो. कहीं ममता आ गई तो क्या कहोगे?’’ अब रानी, किशोरीलाल को छेड़ रही थी, ‘‘इस से तो अपनी दुकान का वह कमरा ही सुरक्षित है. अपने भाई को घर जाने दो. बाद में मुझे छोड़ने के बहाने वहीं चलेंगे. और हां, दीवाली पर एक नई साड़ी लूंगी तुम से.’’
‘‘ले लेना, मेरी जानेमन, पर पहनाऊंगा मैं ही,’’ किशोरीलाल और रानी की बेशर्मियों से पाखी के कान सुर्ख हो चले थे.
आज पाखी के दिल को तसल्ली मिली थी. अच्छा ही है जो वह यहां मिसफिट है. आखिर, ऐसी मानसिकता जो समाज में दोहरे रूप रखे, बाहरी ढकोसलों में स्वयं को भक्तसंत होने का दिखावा करे, पर अंदर ही अंदर परिवार के सगे रिश्तों को भी वासना की आंच से न बचा पाए, उन में ढल जाना पाखी को कतई स्वीकार न था. ऐसी धर्मणा बनने या फिर उस के दिखावेभरे स्वर्णिम रथों पर सवार होने की उस
की कोई इच्छा न थी. वह अधर्मी
ही भली.