Bulbbul समीक्षा |
Bulbbul समीक्षा: तृप्ति डिमरी और राहुल बोस के दमदार अभिनय से अन्विता ने गढ़ा हॉरर का अद्भुत संसार
Movie समीक्षा : बुलबुल (Bulbbul)
कलाकार: तृप्ति डिमरी, राहुल बोस, अविनाश तिवारी, पाओली डैम, परमब्रता चट्टोपाध्याय आदि।
निर्देशक: अन्विता दत्त
निर्माता: अनुष्का शर्मा, कर्णेश शर्मा
ओटीटी: नेटफ्लिक्स
रेटिंग: ***1/2
Movie समीक्षा : बुलबुल (Bulbbul)
कलाकार: तृप्ति डिमरी, राहुल बोस, अविनाश तिवारी, पाओली डैम, परमब्रता चट्टोपाध्याय आदि।
निर्देशक: अन्विता दत्त
निर्माता: अनुष्का शर्मा, कर्णेश शर्मा
ओटीटी: नेटफ्लिक्स
रेटिंग: ***1/2
हिंदी फिल्में देखने वाले किसी 20-25 साल के युवा से पूछो कि अन्विता दत्त का नाम सुना है, तो जवाब मिलता है हां कुछ सुना सुना तो लगता है। फिर याद दिलाओ उनका टशन का गाना ‘छलिया छलिया छलिया, रूह चुरा लूं मैं हूं ऐसी छलिया’ तो जवाब आएगा, हां, चमका। तकरीबन 15 साल से अन्विता सिनेमा में हैं। जो सिनेमा पर करीब से नजर रखते हैं, वे उन्हें जानते भी हैं, पहचानते भी हैं। लेकिन, नया दर्शक नया सिनेमा याद रखता है। गाने और संवाद नहीं। इस लिहाज से अन्विता दत्त की बतौर निर्देशक पहली फिल्म बुलबुल उनकी पहली दस्तक है, हिंदी सिनेमा के उन दर्शकों के लिए जो सितारों के आगे जहां और भी है, में यकीन रखते हैं। एक सधी हुई कहानी, एक दमदार मददगार टीम और एक हिम्मतवाली प्रोड्यूसर। अन्विता की असली उड़ान अब बुलबुल से शुरू होती है।
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बुलबुल उस दौर की कहानी है जब देवदास लंदन पढ़ने जाया करता था। या कह लें कि उससे भी कुछ दशक और पहले की। बुलबुल बच्ची है। एक बुढ़ाते युवक से ब्याह दी गई है। रास्ते भर डोली में बैठे देवर को ही वह अपना पति समझती रही। उसे क्या पता कि बड़ी बहू बनने के क्या क्या चोंचले हैं। उसे तो देवर के साथ बागों में बहार लाना पसंद है। लेकिन, पति को ये नजदीकियां पसंद नहीं आती तो देवर को लंदन जाना होता है। वह लौटकर आता है रेड मून वाली रात को। कहानी में अब चुड़ैल आ चुकी है। बुलबुल का ये प्रेमी पारो पर शक करता है। चंद्रमुखी कौन है, उसे समझ ही नहीं आता। बुलबुल कहती भी है, सब मर्द एक जैसे होते हैं। और, इन मर्दों को सबक सिखाने का एक ही रास्ता है, मौत।
अन्विता ने ये कहानी बचपन में सुनी। अरसे तक कहीं कागज में लिखी रही और जब एक दिन छत पर किसी बुलबुल ने आकर घोसला बना दिया तो उन्हें लगा कि ये संकेत है इस कहानी को फिल्म में तब्दील करने का। बंदिनी के दौर का सिनेमा उनका फेवरिट सिनेमा है। राहुल बोस का किरदार उनकी कहानी का दूसरा ध्रुव है। सिनेमा में बिंबों और प्रतिबिंबों का अरसे बाद उनकी इस फिल्म में बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है। बुलबुल को पीटते इंद्रनील के पीछे सीता को उठाकर ले जाते रावण का जटायु के पर काटने की पेटिंग संयोग तो बिल्कुल नहीं हो सकता। इंद्रनील के हाव भाव भी रावण जैसे ही हैं। कहानी में लक्ष्मण है बुलबुल का देवर यानी सत्या, वह समझ ही नहीं पाता कि उसकी बचपन की बुलबुल बड़ी होकर किन किन बागों से होकर आई है। इन बागों में विचरते उसके यौवन पर तो बहार आई है, लेकिन उसकी आत्मा कुम्हला चुकी है। वह बस भाभी को डॉक्टर से मिलने से रोकने के लिए लक्ष्मण रेखाएं खींचता रहता है।
फिल्म का निर्देशन अव्वल नंबर का है। और, दूसरे नंबर पर है राहुल बोस और तृप्ति डिमरी का कमाल का अभिनय। ‘कमाल’ दरअसल अभिनय के इस दर्जे के लिए छोटा शब्द होगा। इसे देखकर महसूसना ही ज्यादा सही रहेगा। बुलबुल सत्या के लिए श्रृंगार करती है। उसके साथ हंसती खेलती भी है। अबला हालत में होते अत्याचार में उसका चेहरा करुणा जगाता है। और, जब वह काली बनती है तो दिखता है बुलबुल का रौद्र रूप। वीरता उसका पैदाइशी लक्षण है। भय वह बिल्कुल सही समय पर जगाती है। बुलबुल की मुस्कान उसके अद्भुत बदलाव की वाहक बनती है और आखिर में जब वह घृणा और जुगुप्सा दोनों एक साथ जगाती है तो न सिर्फ वह नौ दुर्गा बन चुकी होती है बल्कि मौजूदा दौर में दीपिका पादुकोण के बाद वह ऐसी दूसरी अभिनेत्री भी बन जाती हैं, जो एक ही फिल्म में एक ही किरदार के बूते अभिनय के सभी नौ रस एक ही किरदार में दिखा सकने का माद्दा रखती हैं।
अभिनय का दूसरा सिरा इस फिल्म में थामा है राहुल बोस, अश्विनी तिवारी, पाओली डैम और परमब्रता चट्टोपाध्याय ने। परमब्रता को सिनेमा विरासत में मिला है। ऋत्विक घटक के डीएनए के दर्शन वह इस तरह के किरदारों में पहले भी कराते रहे हैं। पाओली डैम के लिए ये किरदार बाएं हाथ का खेल है और अश्विनी तिवारी लगातार इस कोशिश में हैं कि उनकी मेहनत को लोग नोटिस करें। लेकिन, इस फिल्म में बुलबुल का जो सैयाद (बहेलिया) है वह है राहुल बोस का उत्कृष्ट और दोहरा अभिनय। इंद्रनील और महेंद्र के किरदारों में राहुल बोस ने काइयांपन, लोलुपता, लालसा, ईर्ष्या, काम, क्रोध और वैराग्य का जो मिश्रण किया है, वह सिनेमा देखने का असली आनंद है।
फिल्म बुलबुल इसकी निर्माता अनुष्का शर्मा की पहले की दो पारलौकिक शक्तियों को दर्शाती फिल्मों परी और फिल्लौरी की सिनेत्रयी को पूरी करती दिखती है। दिक्कत इस फिल्म की बस यही है कि बदला लेने का जो कारण अन्विता ने कहानी में डाला है, वह वैयक्तिक है। उसे सामाजिक चोला ओढ़ाने के लिए उन्हें बच्चों के यौन शोषण और घरेलू हिंसा की शरण में जाना होता है। कहानी को इसका यही सूत्र कमजोर करता है। हां, दूसरों के लिए चुड़ैल कहलाने वाली एक स्त्री का एक बच्ची को काली के रूप में दिखना आला दर्जे का संदर्भ है। फिल्म में एक और खास बात नोट करने लायक है और वह है इसके स्पेशल इफेक्ट्स। शाहरुख खान की कंपनी वीएफएक्स के मामले में वर्ल्ड लेवल हो चुकी है। अमर उजाला के मूवी रिव्यू में फिल्म बुलबुल को मिलते हैं साढ़े तीन स्टार।