सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

क्या पढूं , कित्ता पढ़ू What should I study, how much?

 हंसी - मजाक से दिल और दिमाग का बोझ कम होता है । खुश रहने से आपके भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और आप अपने चारों ओर खुशियां बांटते हैं । क्या पढूं , कित्ता पढं ?

क्या पढूं , कित्ता पढ़ू What should I study, how much?
क्या पढूं , कित्ता पढ़ू 

मुकेश जोशी

 कभी स्कूली पढ़ाई के दौरान पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी का एक निबंध पढ़ा था- ' क्या लिखू ? ' आज उन्हीं की तर्ज पर यह पूछने को मन हो रहा है- ' क्या पढूं ? ' दरअसल , बचपन में बड़े - बूढ़े घर पर और गुरुजन पाठशालाओं में यह घुट्टी पिलाया करते थे कि पढ़ोगे लिखोगे , बनोगे नवाब ' , लेकिन खेलने - कूदने पर भी नवाब ( पटौदी ) बनते देख हमने पढ़ने पर इतना जोर कभी दिया ही नहीं ।






 आजकल के बच्चों को 98 या 99 प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण होते और चार - पांच अलग - अलग कोचिंग क्लासेस को इन बच्चों की विराट सफलता पर अलग - अलग गर्व करते देखता हूं तो खुद पर शर्मिंदा होते हुए खुश भी हो लेता हूं कि इतने टोटल परसेंटाइल में तो अपन लगातार तीन कक्षाएं कूद जाते थे । तो उतना ही पढ़ा , जितनी जरूरत थी । मतलब , पेट की भूख जितना खाना । ज्यादा पढ़ लेते तो ' अकल का अजीर्ण ' हो जाता । कम उम्र में ही कॉलेज पहुंच गए तो मोटे - मोटे पोथे सामने आ गए ।





तब भी इस बाल मस्तिष्क में यही सवाल उठे थे कि आखिर क्या पढूं ... और कित्ता पहूं । कॉलेज के बाहर ही उन मोटे पोथों के सरल और तरल विकल्प के रूप में दस - बीस पन्नों की गारंटीड सक्सेस मिल जाती थी । उनकी पूंछ पकड़कर मास्टर डिग्री तक की वैतरणी पारकर गारंटीड सक्सेस पा गए । तब तो पढ़ने से जैसे - तैसे बच निकले , मगर जिंदगी की किताब तो अभी पढ़नी बाकी थी न । पढ़ने से पिंड नहीं छूटा तो नहीं छूटा । जिस उम्र में कोर्स पढ़ना था , तब गुलशन नन्दा , राजवंश , वेदप्रकाश शर्मा जैसे महान लेखक दिमाग में चढ़ गए ।






 आसपास की तमाम लाइब्रेरियां खंगाल डालीं , इस बीच अखबार पढ़ना तो जारी ही था । अखबार के नाम से लगाकर प्रिंट लाइन तक नियमित रूप से पढ़ना दादाजी विरासत में दे गए थे । तब न टीवी होते थे न मोबाइल , जो पढ़ने से मुक्ति दिला देते । थोड़ी समझ बढ़ी तो यह समझ आया कि अपन जो पढ़ रहे हैं , यह तो ' लुगदी ' है । फिर अमृतलाल नागर , श्रीनरेश मेहता , परसाई , शरद जोशी जैसे बड़े लिक्खाड़ अच्छे लगने लगे । इन्हें बांचते - बांचते घोड़ी चढ़ गए । थोड़े समय पत्नी पुराण बांचते रहे फिर बाल कांड आ गए ।







मतलब पढ़ना लगा ही रहा । इस बीच दफ्तरी आदेश अनिवार्य रूप से पढ़ने और अनुपालन करने की कवायद भी जारी रही । पिछले दिनों जब देश भर में TEAINERS कोरोना से बचने के लिए घर बंदी कर दी गई , तब बनाने , खाने , सोने और पढ़ने के अलावा कोई और काम ही नहीं बचा । पढ़ो तो क्या पढ़ो , इसका कोई संकट ही नहीं था ।




 किताबें घर में नहीं भी हों तो कोई हर्ज नहीं । बच्चे - बच्चे के पास एंड्राइड फोन है । चारों वेद , महापुराण , रामायण , महाभारत , श्रीमद्भागवत और प्रेमचंद से लगाकर अभी तक के उपन्यासकारों , कहानीकारों , कवियों और यहां तक कि थर्ड क्लास साहित्य भी डिजिटल फॉर्म में उपलब्ध हो गया । पढ़ो बेटा कितना पढ़ते हो ! इस कोरोना कालखंड में श्रीखंड अमरस ही नहीं बने , लेकिन खूब कविताएं , गजलें , लघुकथाएं , कथाएं , व्यंग्य रचे गए और तमाम साहित्यिक समूहों में जमकर ठेले गए , जिन्हें पढ़ना और उन पर लंबी प्रशंसात्मक टिप्पणियां करना अनिवार्य प्रश्न ' की तरह अनिवार्य था ।






 लाजमी था कि रचना पढ़ी ही जाए । तो जिंदगी भर में जितना नहीं पढ़ा , उतना पिछले चार - पांच महीनों में पढ़ - पढ़कर दुहरा हो चुका हूं । इस पढ़ाई में दिन में दस - दस बार फेसबुक और व्हाट्सएप पर आने वाले ज्ञानवर्धक धार्मिक - सामाजिक - राजनीतिक संदेश शामिल नहीं हैं । अब समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर अब इस उम्र में क्या पहूं और कित्ता पढूं ! कोई तो मेरा चश्मा मोटा होने से बचाओ !


















इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

एक दिन अचानक हिंदी कहानी, Hindi Kahani Ek Din Achanak

एक दिन अचानक दीदी के पत्र ने सारे राज खोल दिए थे. अब समझ में आया क्यों दीदी ने लिखा था कि जिंदगी में कभी किसी को अपनी कठपुतली मत बनाना और न ही कभी खुद किसी की कठपुतली बनना. Hindi Kahani Ek Din Achanak लता दीदी की आत्महत्या की खबर ने मुझे अंदर तक हिला दिया था क्योंकि दीदी कायर कदापि नहीं थीं. फिर मुझे एक दिन दीदी का वह पत्र मिला जिस ने सारे राज खोल दिए और मुझे परेशानी व असमंजस में डाल दिया कि क्या दीदी की आत्महत्या को मैं यों ही व्यर्थ जाने दूं? मैं बालकनी में पड़ी कुरसी पर चुपचाप बैठा था. जाने क्यों मन उदास था, जबकि लता दीदी को गुजरे अब 1 माह से अधिक हो गया है. दीदी की याद आती है तो जैसे यादों की बरात मन के लंबे रास्ते पर निकल पड़ती है. जिस दिन यह खबर मिली कि ‘लता ने आत्महत्या कर ली,’ सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि यह बात सच भी हो सकती है. क्योंकि दीदी कायर कदापि नहीं थीं. शादी के बाद, उन के पहले 3-4 साल अच्छे बीते. शरद जीजाजी और दीदी दोनों भोपाल में कार्यरत थे. जीजाजी बैंक में सहायक प्रबंधक हैं. दीदी शादी के पहले से ही सूचना एवं प्रसार कार्यालय में स्टैनोग्राफर थीं.

Hindi Family Story Big Brother Part 1 to 3

  Hindi kahani big brother बड़े भैया-भाग 1: स्मिता अपने भाई से कौन सी बात कहने से डर रही थी जब एक दिन अचानक स्मिता ससुराल को छोड़ कर बड़े भैया के घर आ गई, तब भैया की अनुभवी आंखें सबकुछ समझ गईं. अश्विनी कुमार भटनागर बड़े भैया ने घूर कर देखा तो स्मिता सिकुड़ गई. कितनी कठिनाई से इतने दिनों तक रटा हुआ संवाद बोल पाई थी. अब बोल कर भी लग रहा था कि कुछ नहीं बोली थी. बड़े भैया से आंख मिला कर कोई बोले, ऐसा साहस घर में किसी का न था. ‘‘क्या बोला तू ने? जरा फिर से कहना,’’ बड़े भैया ने गंभीरता से कहा. ‘‘कह तो दिया एक बार,’’ स्मिता का स्वर लड़खड़ा गया. ‘‘कोई बात नहीं,’’ बड़े भैया ने संतुलित स्वर में कहा, ‘‘एक बार फिर से कह. अकसर दूसरी बार कहने से अर्थ बदल जाता है.’’ स्मिता ने नीचे देखते हुए कहा, ‘‘मुझे अनिमेष से शादी करनी है.’’ ‘‘यह अनिमेष वही है न, जो कुछ दिनों पहले यहां आया था?’’ बड़े भैया ने पूछा. ‘‘जी.’’ ‘‘और वह बंगाली है?’’ बड़े भैया ने एकएक शब्द पर जोर देते हुए पूछा. ‘‘जी,’’ स्मिता ने धीमे स्वर में उत्तर दिया. ‘‘और हम लोग, जिस में तू भी शामिल है, शुद्ध शाकाहारी हैं. वह बंगाली तो अवश्य ही

Maa Ki Shaadi मां की शादी- भाग 1: समीर अपनी बेटी को क्या बनाना चाहता था?

मां की शादी- भाग 1: समीर अपनी बेटी को क्या बनाना चाहता था? मां की शादी- भाग 1: समीर अपनी बेटी को क्या बनाना चाहता था? समीर की मृत्यु के बाद मीरा के जीवन का एकमात्र मकसद था समीरा को सुखद भविष्य देना. लेकिन मीरा नहीं जानती थी कि समीरा भी अपनी मां की खुशियों को नए पंख देना चाहती थी. संध्या समीर और मैं ने, परिवारों के विरोध के बावजूद प्रेमविवाह किया था. एकदूसरे को पा कर हम बेहद खुश थे. समीर बैंक मैनेजर थे. बेहद हंसमुख एवं मिलनसार स्वभाव के थे. मेरे हर काम में दिलचस्पी तो लेते ही थे, हर संभव मदद भी करते थे, यहां तक कि मेरे कालेज संबंधी कामों में भी पूरी मदद करते थे. कई बार तो उन के उपयोगी टिप्स से मेरे लेक्चर में नई जान आ जाती थी. शादी के 4 वर्षों बाद मैं ने प्यारी सी बिटिया को जन्म दिया. उस के नामकरण के लिए मैं ने समीरा नाम सुझाया. समीर और मीरा की समीरा. समीर प्रफुल्लित होते हुए बोले, ‘‘यार, तुम ने तो बहुत बढि़या नामकरण कर दिया. जैसे यह हम दोनों का रूप है उसी तरह इस के नाम में हम दोनों का नाम भी समाहित है.’’ समीरा को प्यार से हम सोमू पुकारते, उस के जन्म के बाद मैं ने दोनों परिवारों मे