निरुपमा वार्मा
सीता को वनवास सरयू तरंगिनि का नीर शांत , निश्चल हो स गया , जब उसने एक वाणी विज्ञानी , मन यज्ञ महानी , इंद्रियां अथर्वा , प्राणों में साम के आनंद प्रवाह दिव्य का प्रांजल स्वरूप देखा । सबको शरण देने वाले राम आज करबद्ध विनीत भाव से उनसे निवेदन कर रहे हैं , " मैं शरणागत हूं आपका ।
" राम के मुख से यह शब्द सुनकर सरयू नदी भाव विह्वल हो गईं । राम देह विसर्जित करने उनकी शरण में आए हैं । सरयू ने कहा , " राम , एक जिज्ञासा है मेरे हृदय में । उसे शांत करें । पूछों " , राम ने चिरपरिचित मुस्कान के साथ कहा ।
" अपनी निर्दोष भार्या सीता का परित्याग करते हुए जरा भी विचलित नहीं हुए राम ? " सरयू के प्रश्न को सुनकर राम ने कहा , " मैं जानता था कि एक धोबी को तो बदला जा सकता है , लेकिन वह जो सहस्र जिव्हा वाला विषधर समाज है , जिसकी शैया पर विष्णु को भी सोना पड़ा , उसकी वाणी को युग - युग तक बंद नहीं किया जा सकता ।
प्रजा की आवाज का दमन करना राजा को निरंकुश बनाता है । " राम ने फिर कहा , " हे निर्झरिणी सरयू , भविष्य में आने वाला युग नारियों के लिए संक्रमण काल होगा । सीता का उदाहरण उनको सदैव सशक्त बनाएगा । एक स्त्री अपने बच्चों के पालन - पोषण के लिए पुरुष समाज पर निर्भर न रहे । उसमें सीता का बल होगा ।
वह पुरुष के अनाचार को किसी भी विवशता में नहीं सहेगी , वरन अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के साथ समाज में उचित स्थान प्राप्त राम की करने में स्वयं को सक्षम पाएगी । यदि सीता को वन में नहीं छोड़ता तो यह युग सीता के प्रति आदर - भाव नहीं रखता और यही विचारधारा तटस्थ रहती कि कृतज्ञता के कारण सीता महलों में रह सकीं ।
राम का उपकार है यह सीता पर और यही नारी का दुर्बल पक्ष होता । अतएव सीता के निष्कासन को स्वयं पर सहकर , सीता की अग्निपरीक्षा में से स्वयं गुजरकर , समाज का सारा विष स्वयं पीकर सीता को ऐसी ऊंचाई प्रदान की कि युग - युगांत तक समाज कहता रहेगा कि राम ने गलती की , सीता निर्दोष थीं । "