Family Story: धूप का एक टुकड़ा (dhoop ka ek tukda) – भाग 1
उम्र के ढलान पर मनोज की पत्नी लता तो कैंसर होने के कारण यह दुनिया छोड़ कर जा चुकी थी, पर मनोज के लिए अकेले जीना दुश्वार लग रहा था, पर इसी बीच पड़ोसी विधवा अनुपमा से मिलना उन्हें एक सहारा दे गया. पर बेटी अनु की ओछी सोच को मनोज ने कैसे दूर किया? जानने के लिए dhoop ka ek tukda lyrics, dhoop ka ek tukda summary in hindi
Dhoop Ka EK Tukda |
लेखिका- डा. रंजना जायसवाल
सर्द गुलाबी सुबह… बगीचे में पड़ी लकड़ी की बेंच और उस पर नटखट सा लुकाछिपी खेलता धूप का एक टुकड़ा… मखमली हरी दूब में मोती सा चमकता, लरजता ओस का एक कतरा… ऐसा लगा मानो ओस को अपने माथे पे मुकुट सा सजाए वो दंभ से इठला रहा हो… पर, शायद वो यह नहीं जानता था कि उस का यह दंभ क्षणभर का है. धूप का वो टुकड़ा… जी हां, वो धूप का वही टुकड़ा, जो अब तक लकड़ी के बेंच पर अपने पांव पसार चुका था. अपने आगोश में धीरेधीरे उसे भर लेगा और वो धीरेधीरे पिघल कर धुआं बन कर अस्तित्वहीन हो जाएगा. जाड़े के दिन… इनसान हो या पंछी सब को कितना लालची बना देता है.. एक धूप का टुकड़ा.
गौरैया का एक जोड़ा बेंच के एक सिरे पर अपने पंख पसारे चहचहा रहा था. मनोज अपनी ठंड से ऐंठती लंबीलंबी उंगलियों को पूरी ताकत से हथेलियों के बीच रगड़ कर गरम करने की कोशिश कर रहे थे.
मनोज गुप्ता 58-60 साल की उम्र… सरकारी नौकरी करते थे. बालों में सफेद चांदनी मुंह चिढ़ाने लगी थी. नौकरी के दोचार साल ही रह गए थे. कैसा भी मौसम हो, पर मनोज पार्क आना नहीं भूलते… पार्क की नरमनरम घास, क्यारियों में लगे रंगबिरंगे फूल उन्हें हमेशा से आकर्षित करते थे. लता अकसर चुटकी लेती थी… टहलने ही जाते हैं न…???
और मनोज मुसकरा कर रह जाते. जैसेजैसे ठंड बढ़ती जा रही थी, पार्क में आने वालों खासकर बुजुर्गों की संख्या घटती जा रही थी.मनोज ने पार्क में 4 चक्कर लगाए और वहीं लकड़ी की एक बेंच पर आ कर बैठ गए. क्यारियों में लगे रजनीगंधा, गुलदाउदी और गेंदे के खिलेअधखिले फूल और उस धूप के टुकड़े के धीरेधीरे बढ़ते कदम को अपनी ओर आता महसूस कर खिलखिलाने लगे थे.
काश… आज लता जिंदा होती. कितनी तलब हो रही थी उसे. जाड़े की गुलाबी ठंड, गरमागरम आलूमटर की घुघरी, अदरक व कालीमिर्च की चाय और बस धूप का एक छोटा टुकड़ा… पर, अब लता कहां, वो तो उन्हें छोड़ कर कब की चली गई थी… दूर बहुत दूर उन सफेद बादलों के पार. उसे सफेद रंग कितना पसंद था… साड़ी की दुकान पर उस की निगाहें सफेद साड़ी या सूट को ही ढूंढ़ती रहती.
“लता, सुहागिन स्त्री को सफेद रंग नहीं पहनना चाहिए.. मां हमेशा कहती थी… अपशकुन होता है.”…और वो खिलखिला कर हंस पड़ती, “आप भी न…किस जमाने की बात करते हैं. ये तो ऐसा रंग है, जो सारे रंगों को खुशीखुशी, हंसतेहंसते स्वीकार कर लेता है. जीवन भी कुछ ऐसा ही तो है.
“चिंता न करिए… देख लीजिएगा. आप से पहले मैं ही जाऊंगी इस दुनिया से… वो भी सुहागन. ये शगुनअपशकुन कुछ नहीं होता.”और मनोज मुसकरा कर रह जाते.”ये तुम्हें कैसे पता कि कौन पहले जाएगा…???”
“चलिए शर्त लगाते हैं. अगर आप जीते तो… आप जो कहेंगे, मैं वो करने को तैयार हूं. और अगर मैं जीती तो आप मुझे मौल से वही साड़ी दिलाएंगे, जो पिछली बार शोरूम पर देखी थी.”लता जब भी शर्त जीतती, तो बच्चों की तरह खुश हो जाती… उस की खुशी की खातिर मनोज कई बार जानबूझ कर भी हार जाते, पर न जाने क्यों… इस बार वो उसे जीतने नहीं देना चाहते थे… पर, वो हमेशा की तरह इस बार भी जीत गई.
मनोज यादों के अथाह सागर में डूबते चले गए. सूरज अपनी पूर्ण लालिमा के साथ अवसान के लिए तत्पर था और शायद कहीं उस के भीतर भी बहुतकुछ डूब रहा था. घाट की सीढ़ियों पर बैठे मनोज को घंटों हो गए थे. दिल में कुछ टूट सा रहा था. आंखों से आंसू सारे बंधन तोड़ कर बाहर निकलने को बेचैन हो रहे थे. हाथ में पकड़े उस अस्थि कलश को बारबार विसर्जित करने की कोशिश नाकाम हो रही थी. मनोज हर बार अपनेआप को एकत्र करते, उस को अपनेआप से पूर्ण रूप से मुक्त कर देने के लिए जिस ने हर परिस्थिति में उस का साथ दिया… पर, मनोज चाह कर भी ऐसा नहीं कर पा रहे थे.
कैंसर से जूझती लता की शिथिल देह, पलकों से विहीन उस की कातर दृष्टि जैसे बारबार मनोज से कह रही हो, “जाने दो मुझे, अब तो जाने दो…”कंकाल हो चुके उस शरीर में जब नर्स अपने बेरहम हाथों से सुई चुभोती थी, लता की आंखों के कोर आंसुओं से भीग जाते.
मनोज दर्द और वितृष्णा से मुंह फेर लेते. पर मनोज की खातिर लता एक बेजान सी मुसकान बिखेर देती और मनोज भी उस का साथ देने के लिए मुसकरा देते. उस से हमेशा के लिए अलग हो जाने के विचार मात्र से ही मनोज की आत्मा सिहर उठी. बेबसी से मनोज ने मुट्ठियां भींच लीं और आंखें बंद कर लीं.
मनोज अपनी आंखों से उसे विदा होते नहीं देख सकते थे… लता का मोह मनोज को बारबार अपनी ओर खींच रहा था, पर वो फिर से शर्त जीत गई थी. अस्पताल ने उसे उस के पसंदीदा रंग में लपेट कर मनोज के हाथों में सौंपा था. देखा कहा था न… तुम से पहले जाऊंगी, मैं फिर से हमेशा की तरह जीत गई न. लता के चेहरे पर एक सुकून था… शायद ये सुकून उस की एक बार फिर से जीत जाने का सुकून था. सुकून तो मनोज के चेहरे पर भी था… लता का दर्द उस से देखा नहीं जाता था.
लता ने कितनी बार कहा था कि छोड़ दो मुझे. अब तो जाने दो, पर मनोज उस की स्मृतियों को अपने से दूर नहीं करना चाहते थे परंतु… इस परंतु का उत्तर मनोज के पास नहीं था.मनोज ने दर्द से अपनी आंखें बंद कर लीं और मिट्टी के घड़े और अपनी स्मृतियों को गंगा के उस शीतल जल में प्रवाहित कर दिया.मनोज ने अपनेआप से कहा… अब मैं कैसे रहूंगा उस के बिना, वह दूर जा रही है मुझ से… दूर बहुत दूर…
मनोज उस कलश को अपने से दूर नहीं करना चाहते थे… परंतु अंतहीन बेबसी, अप्रत्याशित बेचारगी, अकल्पनीय असहायता और अनंत प्रतिबंधनों की असंख्य भुजाओं ने किसी औक्टोपस की भांति मनोज को जकड़ लिया था. अदृश्य सा कोई था, जो मनोज को न चाहने पर भी लता से दूर कर देना चाहता था. संस्कार या भौतिक मजबूरियां… मनोज तय नहीं कर पा रहे थे. घबरा कर मनोज ने अपनी आंखें बंद कर लीं और उन के हाथों ने यंत्रवत मिट्टी के उस घड़े और स्मृतियों के समंदर को गंगा के उस शीतल और पावन जल में बहा दिया था. लता के अवशेष और फूल बहते हुए पानी की धारा के साथ आगे बहते चले गए और मनोज की आंखों से ओझल हो गए. मनोज भरे मन से चलने को उठे, पर…
घाट की सीढ़ियों पर खरपतवार में एक फूल अटक गया था और शायद कहीं मनोज का मन भी… “रोक लो मुझे, मत जाने दो…”अब तो सिर्फ उस की यादें ही रह गई थी. लता की याद करतेकरते आंखें कब भर आईं, पता ही नहीं चला…तभी एक मीठी सी आवाज कानों में रस से घोल गई, “क्यों, भाभीजी की याद आ रही है क्या…”
Family Story: धूप का एक टुकड़ा – भाग 2
मनोज चाह कर भी मना नहीं कर पाए…"आप मानेंगी नहीं… आप चाय चढ़ाइए, मैं तब तक गीजर औन कर आऊं."एक दीवार का फासला ही भर तो था दोनों घरों में
अनुपमा शुक्ला, सरकारी स्कूल से प्रधानाचार्य के पद से कुछ साल पहले ही रिटायर हुई थीं. पति की कुछ साल पहले सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. वर्षों का आनाजाना था. एकदूसरे के सुखदुख के साथी. नियति ने दोनों के जीवनसाथी को छीन लिया था. मनोज की 2 बेटियां ही थीं. दोनों ही शादी कर के अपने घर चली गई थीं. अनुपमाजी का एक ही बेटा था, जो बंगलोर में अपने परिवार के साथ रहता था.
“मिसेज शुक्ला… कैसी हैं आप?””बिलकुल ठीक… आप बताइए.””मैं भी… लगता है, चश्मे का पावर बढ़ गया है. चश्मा चेक कराना पड़ेगा…”अनुपमा जी मंदमंद मुसकराने लगी.”गुप्ता जी… पावर नहीं… आंखें पोंछिए. सब साफसाफ दिखने लगेगा.”
मनोज झेंप से गए… क्या सोचेंगी मिसेज शुक्ला… उन्होंने झट से रूमाल निकाला… आंसू गाल तक ढुलक आए थे.”भाभीजी की याद आ रही थी क्या…?””हम्म…””आप को नहीं आती शुक्ला भाईसाहब की…???”
एक अजीब सी मुसकराहट अनुपमा के चेहरे पर तैर गई”मनोजजी, जवानी में घरपरिवार की जिम्मेदारी निभातेनिभाते खुद के लिए कभी समय ही नहीं मिला. उम्र के जिस पड़ाव पर हूं, वहां दिलों में भावों के उफानों को एक ठहराव सा मिल जाता है. अब तितलियों के पीछे भागने, शहर के नुक्कड़ पर चटपटे गोलगप्पे और किसी फिल्मी हीरोइन के द्वारा पहने गए कपड़ों को सब से पहले खरीदने की होड़ नहीं रहती. अब तो अपने बच्चों को आगे बढ़ते हुए देखने का एक अजीब सा सुकून है, उन के साथ टेढेमेढे मुंह बना कर तसवीरें खिंचवाने की खुशी है…
जब तक ये थे… तो कभी आंखों के आसपास उभर आई आड़ीतिरछी रेखाओं को सौंदर्य प्रसाधनों से छुपाने की पुरजोर कोशिश रहती थी, तो कभी बगल वाली मिसेज राय की अपेक्षा अपनेआप को फिट और स्लिम दिखाने की कवायद जारी रहती थी. पति के ताने… जो कभी दिल को चीर देते थे कि दिनभर करती क्या हो, बिस्तर पर फैली भीगी तौलिया, यहांवहां बेकदरी से पड़े जूतेचप्पलें, बच्चों की चिल्लपों और उन की फरमाइश पूरी करने वाले हाथ अब उन आवाजों को सुनने के लिए बेकरार रहते हैं…
पर अब कहीं कुछ खोया सा महसूस होता है. इन के जाने के बाद जीवन खाली सा हो गया है… ऐसा नहीं कि मैं अपने वर्तमान से संतुष्ट या खुश नहीं हूं, पर उम्र के इस पड़ाव पर अतीत के अरमान, वो सपने, जिन्हें हम कहीं बहुत पीछे छोड़ आए थे… मुझे दोबारा पुकारने लगे हैं. कभी आईने के सामने खड़ी होती हूं, तो अपना ही चेहरा अनजाना सा लगता है. आज एक बार फिर… उम्र के इस पड़ाव पर अपनेआप से दोबारा मिलने की ख्वाहिश है.”
मनोज अनुपमा को चुपचाप देखते रह गए…अकेलापन जाति, धर्म या लिंग का कभी भेदभाव नहीं करता. अनुपमा की हालत भी तो कुछ उस की तरह ही तो थी… बेखयाली में भी जिस का खयाल कभी नहीं भूलता, शायद उसे ही जीवनसाथी कहते हैं. मनोज की नजर कलाई में बंधी घड़ी पर अचानक ही चली गई, “ओह… आज तो बहुत देर हो गई. अनुपमाजी चलता हूं.”
“अरे मनोजजी क्या हुआ? आप यों अचानक क्यों उठ गए? आज तो रविवार है? फिर…””ओह… हां, मैं तो भूल ही गया था.””अब उठ ही गए तो चलिए आप को एक बढ़िया सी अदरक वाली चाय पिलाती हूं.”चाय की कितनी तलब हो रही थी मनोज को… मनोज को तो मानो मुंहमांगी मुराद मिल गई, पर…”अरे, आप क्यों परेशान हो रही है? राम सिंह एक घंटे में आ ही जाएगा… फिर कभी…””फिर कभी क्यों… उस के लिए भी मुहूर्त निकालना पड़ेगा. आप के बहाने मैं भी पी लूंगी.”
मनोज चाह कर भी मना नहीं कर पाए…”आप मानेंगी नहीं… आप चाय चढ़ाइए, मैं तब तक गीजर औन कर आऊं.”एक दीवार का फासला ही भर तो था दोनों घरों में, मुकद्दर ने दोनों घरों की किस्मत न जाने क्यों एकजैसी ही लिख दी थी. एक सा दर्द… एक सा खालीपन… एक सा ही सूनापन.”मनोजजी, चाय ठंडी हो रही है. कहां रह गए आप?” अनुपमा ने गेट से आवाज लगाई.
“आ रहा हूं अनुपमाजी. बस एक मिनट…” मनोज ने दरवाजे पर कुंडी चढ़ाई और अनुपमा के घर की ओर चल दिए.”कहां रह गए आप? ठंड की वजह से चाय भी ठंडी हो गई है… रुकिए… बस एक मिनट में गरम कर के लाती हूं.””जाने दीजिए, मैं पी लूंगा…””अरे, ऐसे कैसे? मैं हूं न.”
“वो असल में… निक्की का फोन आ गया था. बस, उस से बात करने में वक्त लग गया. वो तो अभी और बात करने के मूड में थी… वैसे तो जल्दी फोन करती नहीं. जब करती है तो जल्दी रखती नहीं… वो तो उस से कहना पड़ा कि तेरी आंटी चाय बना कर इंतजार कर रही है, फोन रख… बाद में बात करते हैं,” कह कर मनोज मुसकराने लगे.
“अनुपमाजी, ये रहा आप का डब्बा. मजा आ गया गाजर का हलवा खा कर…” “पसंद आया आप को…””हां बिलकुल… लता भी बहुत अच्छा हलवा बनाती थी.””आप को शायद पता नहीं… मैं ने हलवा बनाना उन्हीं से सीखा था.””अरे वाह…तभी आप के हाथ का हलवा खा कर मुझे लता की याद आ गई.”
मनोज लता को याद कर भावुक हो गए. अनुपमा चाय गरम करने के लिए अंदर चली गई. एक जानीपहचानी सी खुशबू से मनोज की तंद्रा टूट गई.”अरे वाह… घुघरी… अनुपमाजी आप को विश्वास नहीं होगा, आज मुझे घुघरी खाने का बहुत मन कर रहा था.”
” वाह… लीजिए आप की इच्छा पूरी हो गई. बातें तो होती रहेंगी. पहले अब आप गरमागरम घुघरी का आनंद लीजिए.”मनोज गरमागरम घुघरी और अदरक वाली चाय के स्वाद में डूब गए. अनुपमा ने डब्बे को उठाया, तो उन्हें कुछ भारी सा लगा…”मनोजजी… इस डब्बे में कुछ है क्या …”
“वो चौक की तरफ गया था, तो दुकान पर चिक्की मिल रही थी, तो सोचा आप के लिए भी ले लूं. आपके ब्लड प्रेशर की दवा का पत्ता भी उसी में रखा है…”
Family Story: धूप का एक टुकड़ा – भाग 3
मनोज की नजर दीवार की तरफ चली गई. दीवार पर अपने पसंदीदा रंग में लता की तसवीर मुसकरा रही थी और वही खिड़की से झांकता धूप का टुकड़ा मनोज के साथ हमेशा की तरह अठखेलियां कर रहा था.
मनोजजी, आप क्यों परेशान होते हैं… मैं, मैं मैनेज कर लेती.” “इस में परेशान होने जैसा क्या है… इस लौकडाउन में आप ने मदद न की होती तो मैं तो भूखे मर जाता.” “ऐसा कुछ भी नहीं है… पड़ोसी ही पड़ोसी के काम नहीं आएगा, तो फिर कौन आएगा.”
“सच कह रहे हैं मनोजजी… इस लौकडाउन ने जीवन की सचाई से सामना करा दिया… कि कौन कितने काम आएगा. जो अपने थे वो झांकने तक न आए कि जिंदा भी हूं या फिर… बस एक फोन घुमा दिया… ठीक हो न. किसी चीज की जरूरत तो नहीं… टंडनजी का बेटा अमेरिका से आ कर अपने मांबाप को ले कर चला गया और यहां बंगलोर से कोई झांकने तक….
“खैर छोड़िए… निक्की और अनु कैसे हैं? आप को नौकरी से वालेंटरी रिटायरमेंट ले लेना चाहिए… अब तो लताजी भी नहीं रहीं.”
“सोचा था कि रिटायरमेंट के बाद लता के साथ सारी दुनिया घूमूंगा, पर लता मुझे छोड़ कर किसी और दुनिया में चली गई… घर के एकएक कोने में उस की खुशबू है… उस के साथ होने का अहसास दिलाती है. उसे छोड़ कर जाना…”
“सच कह रहे हैं मनोजजी… दीपू भी कितनी बार कह चुका है कि बंगलौर आ जाओ. अब तो पापा भी नहीं रहे, नौकरी तो सिर्फ एक बहाना थी… अपनी जड़ों को छोड़ कर जाना इतना आसान नहीं.”
एक अजीब सा गहरा सन्नाटा दोनों के बीच पसर गया. इनसान को जिस उम्र में जीवनसाथी की सब से ज्यादा जरूरत होती है, उस उम्र में वो दोनों ही अकेले और अधूरे थे.”कहां थे पापा…? मैं 2 बार फोन कर चुकी हूं… आप का फोन ही नहीं उठ रहा. मैं तो घबरा ही गई थी.”
“अरे वो कुछ नहीं… फोन चार्जिंग में लगा था. तुम्हारी अनुपमा आंटी ने चाय पर बुला लिया. बस अभीअभी तेरी मिस्ड काल देखी.””कैसी हैं वो… अंकलजी के जाने के बाद तो बिलकुल ही अकेली पड़ गई हैं वो… दीपू के पास क्यों नहीं चली जातीं?”
“मैं ने भी कई बार उन से कहा, पर शुक्लाजी की यादों को छोड़ कर जाना इतना आसान नहीं.””क्या पापा आप भी… आप की पीढ़ी का समझ ही नहीं आता, आप से भी कितनी बार कहा कि नौकरी छोड़िए, मेरे या निक्की के पास आ जाइए, पर पता नहीं उन दीवारों से कैसा मोह है आप का… आप आना ही नहीं चाहते.”
मनोज मुसकरा कर रह गए… क्या कहते उन दीवारों में तेरी मां की यादें, तुम दोनों बच्चों के बचपन की न जाने कितनी बातें छुपी हैं… “तू नहीं समझेगी… जब तू मेरी उम्र में पहुंचेगी, तब शायद तुझे समझ में आएगी मेरी बातें.”
“पापा कई दिनों से मैं और निक्की आप से एक बात कहना चाहते थे…””बोलो… मैं सुन रहा हूं.”मनोज भी कई दिनों से ये महसूस कर रहे थे कि निक्की और अनु शायद उन से कुछ कहना चाह रही हैं. दोनों के फोन आजकल लगभग रोज ही आने लगे थे. लता के जाने के बाद तो वो दोनों नियमित ही फोन करती थीं, फिर धीरेधीरे वो अपनी घरगृहस्थी की जिम्मेदारियों में ऐसी उलझ गई महीने में दोतीन बार ही फोन कर पाती.
“पापा, मम्मी के जाने के बाद आप बिलकुल अकेले हो गए हैं. कोरोना के चक्कर में घर से निकलना भी मुश्किल है, वरना हम दोनों में से कोई न कोई आप को जरूर लेने आ जाता.”
“हम्म..”
मनोज सोच रहे थे.. आएदिन पार्टियों की फोटो सोशल नेटवर्क पर दिखती ही रहती हैं, पर पिता के लिए तीन सौ किलोमीटर से आने के लिए कोरोना का बहाना…
“वैसे भी आप को कोई दिक्कत नहीं है… अनुपमा आंटी तो हैं ही…”मनोज ने एक अजीब सी कड़वाहट अनु की आवाज में महसूस की….”सच कह रही हो… तुम्हारी अनुपमा आंटी ने इस लौकडाउन में बहुत मदद की है. राम सिंह भी तीन महीने के लिए अपने गांव चला गया था… तू तो जानती है कि तेरी मां जब तक थीं, तब तक कभी चौके में झांका भी नहीं… पर, इन तीन महीने में दालरोटी का भाव पता चल गया.”
“वो तो देख ही रही हूं… अनुपमा आंटी किसी न किसी बहाने घर में घुसी ही रहती हैं… कभी वो तो कभी आप…””तुम कहना क्या चाहती हो…??”
“पापा इस उम्र में ये सब… आप ने सोचा है कि मेरे पति को अगर पता चला तो वो… वो क्या सोचेंगे.”मनोज सन्नाटे में आ गए… उन की छोटी सी अनु आज इतनी बड़ी हो गई. नर्स ने छोटी सी अनु को जब उस के हाथों में दिया था… एक बार लगा कि उस की सारी दुनिया हाथों में सिमट आई हो.”हेलो… हेलो, पापा… आप सुन रहे हैं न.”
“हम्म… बोलो.””पापा, क्या अच्छा लगता है इस उम्र में ये सब…जानती हूं कि मम्मी के जाने के बाद आप बिलकुल अकेले पड़ गए हैं. आप को एक साथी की जरूरत है, जिस से आप अपने दिल की बात कह सकें… बांट सकें, पर इस तरह से…”
मनोज चुपचाप अनु की बात सुनते रहे.”अनु… एक बात कहूं, दुनिया हमें वैसी ही दिखती है, जैसे हम देखना चाहते हैं.””आप कहना क्या चाहते हैं पापा…””तुझे याद है, जब तू ने कालेज ज्वाइन किया था… कभी वर्कशाप तो कभी असाइनमेंट, तो कभी एक्स्ट्रा क्लास के नाम पर तू देर रात तक विशाल के साथ लौटती थी.”
“तो…””तेरी मां ने एक बार तुझे टोका भी था कि यों लड़के के साथ देर रात तक काम करना कहां तक सही है. तब तुम ने अपनी मां से कहां था… मां किस जमाने की बात कर रही हो. आजकल लड़केलड़कियां साथ काम करते हैं, पढ़ते हैं और एंजौय करते हैं. आप भी न… वी आर जस्ट फ्रेंड… कुछ सालों बाद तुम ने उसी विशाल से शादी भी कर ली.””पापा…”
“अनु, तुम्हारी शादी से मुझे कोई गुरेज नहीं था, पर तुम्हारी ये पीढ़ी कब एडवांस हो जाती है, कब बैकवर्ड, समझ नहीं आता.””पापा, आप समझ नहीं रहे… राम सिंह क्या सोचता होगा. आप ने सोचा है एक बार भी. कितने मजे ले कर बताता है मुझे…”
“हम्म… एक वक्त था, जब तेरे पापा तेरा गुरुर थे. आज एक आदमी ने तुम्हारे उस वर्षों के विश्वास को पलभर में डिगा दिया. इतनी कमजोर है तुम्हारे विश्वास की नींव…”
“नहीं पापा, ऐसा नहीं है…””अनु, क्या एक औरत और आदमी के बीच सिर्फ एक ही संबंध हो सकता है… स्त्री और पुरुष का संबंध सिर्फ जीवनसाथी के रूप में ही नहीं साथी के रूप में भी हो सकता है. एक पुरुष का मित्र पुरुष तो हो सकता है, पर स्त्री नहीं… सुखदुख बांटने वाला कोई भी हो सकता है, पर हम और हमारा समाज स्त्रीपुरुष में ही उलझ कर रह जाता है. इस जीवन में जीने के लिए तेरी मां की यादें ही काफी हैं. जहां तक तेरी अनुपमा आंटी की बात है… हां, उन के साथ मेरा रिश्ता है… दर्द का रिश्ता, शुभचिंतक का रिश्ता… अकेलेपन का रिश्ता… और एक कप चाय का भी. मुझे पूरा यकीन है तुम्हारी अनुपमा आंटी का भी मुझ से बस इतना सा ही रिश्ता है.”
“हम्म…””तुझे कुछ और पूछना है तो पूछ ले… दिल पर बोझ न रख.””रखती हूं पापा… विशाल उठ गए हैं. उन की चाय का वक्त हो गया है…”मनोज न जाने क्यों अपनेआप को आज बहुत हलका महसूस कर रहे थे. पार्क में भी न जाने कितनी बार मनोज ने लोगों की आंखों में कुछ ऐसे ही सवाल उठते देखे थे, पर कुछ सवालों के जवाब नहीं होते… पर उठते जरूर हैं.
मनोज की नजर दीवार की तरफ चली गई. दीवार पर अपने पसंदीदा रंग में लता की तसवीर मुसकरा रही थी और वही खिड़की से झांकता धूप का टुकड़ा मनोज के साथ हमेशा की तरह अठखेलियां कर रहा था.