मीर तक़ी मीर की शायरी
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम
अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये
नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो यां कि बहुत याद रहो
मुझे काम रोने से अक्सर है नासेह
तू कब तक मिरे मुंह को धोता रहेगा
ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत ग़म रहा
होश जाता नहीं रहा लेकिन
जब वो आता है तब नहीं आता
मुझ को शायर न कहो 'मीर' कि साहब मैं ने
दर्द ओ ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया
यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहां से उठता है
'मीर' उन नीम-बाज़ आंखों में
सारी मस्ती शराब की सी है