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थलाइवी फिल्म रिव्यू बायोपिक्स की परंपरा में खरी उतरती प्रस्तुति Thalaivi Movie Review हिंदी शायरी एच


फिल्म रिव्यू बायोपिक्सकी परंपरा में खरी उतरती प्रस्तुति
Thalaivi Movie Review


फिल्म रिव्यू बायोपिक्स की परंपरा में खरी उतरती प्रस्तुति थलाइवी Thalaivi Movie Review
आप कहानी के लिए नहीं बल्कि कंगना और अरविंद के शानदार अभिनय की वजह से फिल्म देखना चाहेंगे।एक अच्छे कलाकार की मिसाल ऐसे भी दी जा सकती है कि वह अपने लिए चुनौतियां पैदा करे ।


 फिल्म : थलाइवी
 निर्देशक : ए.एल.विजय
 कलाकार : कंगना रनोट , अरविंद स्वामी , नास्सर



मनोरंजक सिनेमा के इस दौर में ' बायोपिक्स ' आज का ' न्यू नॉर्मल ' है । हालांकि ऐसा भी नहीं है कि इस शैली की हर फिल्म को लेकर लोगों में काफी पहले से उत्सुकता रहती हो । पर ' थलाइवी ' को लेकर काफी पहले से क्रेज है ।



 क्या इसकी वजह कंगना रनोट हैं या फिर वह किरदार , जिसे उन्होंने पर्दे पर अदा किया है । फिल्म की शुरुआत सत्ता के गलियारे के धमाकेदार सीन से होती है । देखकर लगता है कि निर्देशक और लेखक की मंशा राजनीति के अनछुए पहलुओं को जगाने की है । लेकिन मामला शिफ्ट हो जाता है मुख्य नायिका के जीवन पर । दर्शक जानना चाहेंगे कि भारतीय राजनीति की कुछ सबसे कद्दावर और प्रभावशाली नेताओं में से एक रही मुख्यमंत्री जयललिता की जिंदगी सत्ता में आने से पहले कैसी थी ? फ्लैशबैक में उभरती है जया ( कंगना ) , जो अपनी मां ( भाग्यश्री ) के कहने पर फिल्मों में काम करने लगी है ।




 साठ के दशक के दक्षिण भारतीय सिनेमा के दृश्य आंखों में चमक बढ़ा देते हैं । बीते कुछ एक - डेढ़ दशक में आई फिल्मों ने बताया है कि गुजरे जमाने का सिनेमा और उसका अंदरूनी कामकाज अगर अच्छे से दिखाया जाए , तो दर्शक बंधा रहता है । यहां इसे और बेहतर ढंग से किया गया है । और तभी वो पल भी आता है , जिसके बारे में नए कलाकारों के सेक्रेटरी अकसर कहते हैं ' प्यारे अब तेरी लाइफ बन जाएगी ।






 ' जया को इंडस्ट्री के सुपरस्टार एमजेआर ( अरविंद ) के साथ काम करने का मौका मिलता है । साथ में दोनों कई फिल्मों में काम करते हैं और देखते ही देखते एक सफल जोड़ी के रूप में दर्शकों के प्यारे बन जाते हैं । परदे पर कंगना और अरविंद जैसे दो दमदार कलाकार हैं और कहानी के स्तर पर कुछ खास नया न होने के बावजूद फिल्म में दिलचस्पी बनी रहती है ।





 कारण है मुख्यमंत्री जे.जयललिता की शख्सीयत और उनसे जुड़े एमजेआर की जिंदगी के पहलू । लेकिन शायद उत्तर भारतीय दर्शक कुछ ऐसा जानना चाहेंगे , जिससे दक्षिण की जनता भी अब तक अनजान रही हो । खासतौर से जब फिल्म की कहानी जयललिता की जिंदगी पर आई किताब ' थलाइवी ' ( अजयन बाला लिखित ) पर आधारित है लेकिन निर्देशक का फोकस कुछ और देर तक मुख्य पात्रों के सिनेमासफरव निजी जिंदगी परही केन्द्रित रहता है ।







 यहां मन थोड़ा सा उखड़ता है , पर एक उम्मीद सी बंधी रहती है कि स्क्रीन पर कंगना हैं , तो निर्देशक ने कुछ तो अलग ही सोचा होगा । कहानी में एमजेआर के निजी सचिव आर . एम . वीरप्पन ( राज अर्जुन ) के सुर बदलने से हल्का सा करारापन बढ़ता है । उसका ये सोचना कि जया का साथ एमजेआर की छवि के लिए सही नहीं रहेगा , करंट देता है । समय है घटनाक्रमों का रुख सिनेमा से राजनीति की तरफ मुड़ने का एमजेआर के जीवन में एम . करुणानिधि ( नास्सर ) की एंट्री और फिर सत्ता के सावन में फूलों की वर्षा , एक बार फिर नया रुख अपनाती है ।





 यहां वीरप्पन एक बार फिर से अपनी ड्यूटी निभाता है , जिसके चलते अबकी बार जया और एमजेआर के बीच दूरियां कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती हैं । दरअसल , निर्देशक और लेखक के . वी . विजयेन्द्र प्रसाद फिल्म को किसी प्रकार के उलझाव से दूररखने के चक्कर में काफी लंबा खींच ले गए हैं । विजयेन्द्र प्रसाद के लिएढाई घंटे तक बंदे को जमाए रखना कोई बड़ी बात नहीं है , पर इस बार उनका प्रभाव कम दिखता है । और जब आपके पास हिन्दी संवाद के लिए रजत अरोड़ा जैसे सफल और भरोसेमंद लेखक तो रूटीन कहानी के बावजूद आप रोचकता बनाए रख सकते हैं ।





 याद आती है ' वंस अपॉन एटाइम ' , जिसमें रजत अरोड़ा ने अजय देवगन और कंगना के लिए क्याशानदार लाइनें गढ़ी थीं । वैसे , निर्देशक को उस पीड़ा की गहराई तक जाना चाहिए था , जिससे फिल्म की शुरुआत हुई थी । पर उन्होंने ऐसी किसी सच्चाई तक जाने का जोखिम नहीं लिया ।


 


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