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वो बेचारा आदत का मारा Wo Bechara Aadat Ka Mara | Hindi Shayari H

 वो बेचारा आदत का मारा Wo Bechara Aadat Ka Mara

नवविवाहिता के चेहरे से भय साफ झलक रहा था. तभी फोन की घंटी बज उठी, दौड़ कर उस ने रिसीवर उठाया. ‘‘तुम वहीं रहो, मैं लेने आऊंगा,’’ पति की आवाज सुन कर उसे ढाढ़स बंधा और चेहरे पर संतोष झलकने लगा.

 


वो बेचारा आदत का मारा Wo Bechara Aadat Ka Mara
 वो बेचारा आदत का मारा


लेखक- सुजय कुमार


इंसान अपनी फितरत बदल नहीं सकता, चाहे वह अच्छी हो या बुरी. शंकर बेचारा करता भी क्या, उस का दिल दूसरों का दुखदर्द देख नहीं सकता था, इसीलिए उसे अपनी इस भलमनसाहत का खमियाजा भुगतना पड़ा. मूसलाधार बरसात के साथसाथ सायंसायं करती तूफानी हवाएं भी थीं. ऐसे मौसम में औफिस का काम कैसे होता? 2 बजे ही सभी कर्मचारी निकल पड़े. केवल एक नवविवाहित रह गई थी, वह भी इसलिए कि उस का पति दूसरे औफिस में काम करता था. उस से संपर्क साधने की कोशिश घंटेभर से जारी थी. चपरासी बारबार खिड़की से बाहर झांकता और हर बार मायूसी की खबर उस महिला को सुनाता. अब नवविवाहिता की घबराहट और चिंता पहले से भी अधिक बढ़ गई थी, क्योंकि वह बारबार कांच के दरवाजे से बाहर का दृश्य देख रही थी.


नवविवाहिता के चेहरे से भय साफ झलक रहा था. तभी फोन की घंटी बज उठी, दौड़ कर उस ने रिसीवर उठाया. ‘‘तुम वहीं रहो, मैं लेने आऊंगा,’’ पति की आवाज सुन कर उसे ढाढ़स बंधा और चेहरे पर संतोष झलकने लगा. शंकर को भी तसल्ली महसूस हुई. 2 घंटे से बैठा वह उस की परेशानी को बारीकी से देख रहा था. ‘मुझे इस के बारे में अब चिंता करने की जरूरत नहीं है,’ उस ने सोचा, ‘मैं अब आराम से घर जा सकूंगा. पता नहीं वहां क्या हाल है?’ सब 2 बजे चले गए. सब तो खुदगर्ज हैं, पर वह तो ऐसा नहीं है. आखिर इंसानियत भी कोई चीज है. एक महिला को इस स्थिति में छोड़ कर वह भला कैसे जाता? इस में शक नहीं, वह न भी जाता तो औफिस का कोई और जानने वाला उसे घर पहुंचाने की जिम्मेदारी ले लेता, लेकिन शंकर की आदत… उस का दिल कैसे मानता? दोबारा उसे सहीसलामत देखने तक यही चिंता घेरे रहती कि वह घर पहुंची है या नहीं. इस से बेहतर खुद रुक जाना ही है, यही सोच कर उस ने इस जिम्मेदारी को सहर्ष स्वीकारा था. एक हाथ में टिफिन, दूसरे में छतरी लिए वह आगे बढ़ा. दरवाजा खोलते ही तेज तूफानी हवा का झोंका आया और उस के मुंह से सिसकी निकल गई. वह बोलनेसुनने की स्थिति में नहीं था.



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चेहरे पर पानी की तेज बौछारें पड़ते ही लगा, मानो सांस रुक जाएगी. छाता खोलने का प्रयत्न नाकाम रहा. जबरदस्ती खोलने पर छाता उलटा हो गया. सड़क पर इक्केदुक्के व्यक्ति भी छाता थामे आजा रहे थे. साइकिल सवार साइकिल थामे पैदल ही चल रहे थे. बहते पानी को चीरते हुए वह चलता रहा. ठंड के मारे कंपकंपी छूट गई. सड़क पर ट्रक, कार कुछ भी तो नजर नहीं आ रहे थे. न जाने सभी कहां गायब हो गए. हमेशा भीड़भरा यह रास्ता, जहां पैदल चलना मुश्किल होता है, आज… एकदम सुनसान, वीरान है. इन्हीं विचारों में डूबा वह घर पहुंच गया. दरवाजे पर खड़ी पत्नी बेसब्री से उस का इंतजार कर रही थी. ‘‘अरे, यहां क्यों खड़ी हो?’’ आवाज में तेजी थी. ‘‘तुम्हारे इंतजार में,’’ भवानी ने कहा. ‘‘यहां तक आने वाला भीतर नहीं आएगा क्या, इस बारिश में भीगना जरूरी है?’’ ‘‘आप को क्या, घर बैठे कितनी चिंता होती है, तुम क्या जानो?’’ ‘‘हाय, क्या बारिश है,’’ कहते हुए शंकर घर में घुसा. पत्नी उस के लिए ही तो परेशान हो रही थी, यह जान कर उस की आवाज में नरमी आई. ‘‘तूफानी हवाएं चल रही हैं न, टीवी में बतलाया था.’’ ‘‘अरे, बाहर जा कर देखो, क्या हाल है. कितने पेड़ जड़ से उखड़ कर गिर गए, कितने कंपाउंड, दीवारें धराशायी हो चुकी हैं. बाप रे, ऐसा विनाशकारी तूफान तो मैं ने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखा.’’ ‘‘चलिए, हाथपांव धो लीजिए.


गरम रोटी, बैंगन का भरता, चावल, दाल, सब तैयार है. खा कर जल्दी सो जाएंगे.’’ ‘‘वैरी गुड, अभी आया,’’ कहता हुआ शंकर हाथमुंह धोने चला गया, पर उसे नहीं मालूम कि ‘वैरी गुड’ शब्द का इस्तेमाल उस ने क्यों किया. मनपसंद खाना बना है, इसलिए या खाने के बाद सोने की बात कही, इसलिए. खाना समाप्त कर भवानी प्लेटें समेट बरतन साफ करने लगी. उन का वह घर काफी पुराना था. करीब सौ साल पुराना. उस समय लोगों के दिल बड़े थे, घर बड़ा था. इस बात की गवाही उस का वह पुराना घर दे रहा था. राहगीरों के विश्राम के लिए बरामदा और बरामदे के आगे एक डेवढ़ी तथा डेवढ़ी को पार करते ही आंगन. शंकर को वह घर कम किराए में मिल गया था. मकानमालिक की आर्थिक तंगी के कारण वह घर, जैसा बना था वैसा ही रह गया था, लेकिन बरामदे व डेवढ़ी के बीच ग्रिल डाला गया था. मकानमालिक के पिता ने शायद यही सोच कर एक बड़ा दरवाजा लगा दिया था कि जानवरों व उठाईगीरों से रहने वालों की सुरक्षा हो सके. ‘उस जमाने में इस दरवाजे को लगाने के लिए करीब 200 रुपए खर्च हुए थे.’ यह बात किराया वसूलते समय मकानमालिक बड़े गर्व से कहता. शंकर ग्रिल व दरवाजा बंद करने पहुंचा था.



 


अंधेरा काफी था. बत्ती जलाने के लिए बिजली का बटन दबाया तो पता चला, बल्ब फ्यूज हो चुका है. वह अंदाजे से चलने लगा. डेवढ़ी में बातचीत की हलकी ध्वनि सुनाई पड़ी. वह कान लगा कर सुनने लगा. ‘तू नीचे सो जा. ग्रिल में टाट लगा दूं तो ठंड नहीं लगेगी और पानी की बौछारों से भी बच सकेंगे,’ एक बूढ़ी औरत की आवाज थी. ‘इतनी ठंड और नीचे सो जाऊं?’ बूढ़े की आवाज सुनाई पड़ी. ‘अरे, तुझे तकलीफ क्या है? थोड़ी जगह मिली, आराम करने को कहा तो बड़बड़ा रहा है. तेरे लिए पलंग, गद्दी लगेगी क्या?’ शंकर रास्ता तलाशते बाहर आया. सड़क किनारे के बल्ब जल रहे थे. उस की धीमी रोशनी में उस ने देखा, एक बुढि़या फटे टाट से ग्रिल ढक रही थी. बूढ़ा कोने में सिमटा हुआ था. शरीर को अधूरा ढकती पुरानी शर्ट पहने हुए था. हड्डियों का ढांचा, खेत में पक्षियों को डराने के लिए खड़ा किया जाने वाला नमूना लग रहा था. उस की कंपकंपी रुकने का नाम नहीं ले रही थी. ‘‘कौन है?’’ बुढि़या टाट छोड़ शंकर की ओर देखती हुई बोली, ‘‘सरकार… माईबाप, बाहर तेज बरसात है. रातभर के लिए ठिकाना दे दो. सुबह चले जाएंगे.’’ ‘‘कहां रहते हो तुम?’’ ‘‘वह स्कूल है न, उस के पास वाले रिकशा स्टैंड में. बारिश से बचने के लिए स्कूल में रात गुजार लेते थे. आज वह भी टूट कर गिर गया. कहां जाते भैया, यहां आ गए. रात गुजारने दो, तड़के चले जाएंगे.’’ शंकर सोचता रहा, ये बूढ़े रातभर क्या यहीं सोएंगे? इस ठंड में तो ये अकड़ जाएंगे.


बरसात का वेग कम होने का नाम नहीं ले रहा. तेज हवाओं का भी वही हाल है. ये बूढ़े रात यहां कैसे गुजारेंगे? ‘‘यहां तो बहुत ठंड लगेगी,’’ शंकर ने कहा. ‘‘माईबाप, जाने को मत कहना,’’ बुढि़या गिड़गिड़ा उठी, ‘‘बाहर की ठंड और बारिश में तो हम मर जाएंगे.’’ ‘‘अरे, डरो मत. मैं भेजूंगा नहीं. बाहर सोने की जरूरत नहीं. भीतर आ जाओ. बारिश और ठंडी हवा से बच सकोगे.’’ बुढि़या के चेहरे पर मुसकान फैल गई. उस ने दिल खोल कर आशीर्वाद दिया, ‘‘बेटा, तुम्हारा भला हो, बालबच्चे सुखी रहें.’’ दोनों भीतर आ गए. शंकर ने दरवाजा, ग्रिल सभी बंद किए. बुढि़या भी एक कोने में टाट बिछा कर लेट गई. आंगन के एक कोने में पीपल का बड़ा हंडा रखा था. उस पर गिरती पानी की बूंदें अलग ध्वनि देतीं. शंकर बिस्तर पर आ कर लेट गया. ‘‘अरे, तुम ने यह क्या किया? कर्ण के समान दानी व दिलदार बन गए. किसी राहचलते को घर में जगह दे दी. घर को धर्मशाला बना दिया. घर हमारा नहीं, किराए का है, इसलिए किसी को भी टिका लिया. अपना घर होता तो क्या ऐसा ही करते.’’ ‘‘आजकल तुम्हें हो क्या गया है? कमाल करती हो. किराया हम देते हैं तो जगह हमारी ही हुई न. उन्हें एक रात सहारा दे दिया तो क्या गुनाह किया? उन से तो मैं कुछ ले नहीं रहा हूं. वह बुढि़या क्या बोली, जानती हो?’’ ‘‘क्या?’’ ‘‘दिल खोल कर आशीर्वाद दिया. देखना, उस की दुआ जरूर लगेगी. हमारे बच्चे जरूर सुखी होंगे. चलो, बच्चों की तैयारी करें.’’ ‘‘छी… तुम बड़े वो हो,’’ शरमा कर भवानी ने कहा और बत्ती बंद कर के वह भी शंकर के समीप आ कर लेट गई.



अगले दिन सुबह बरसात थम चुकी थी. शंकर ने बिस्तर पर पड़ेपड़े बाहर देखा. आसमान साफ था. शंकर ने पास में सोई पत्नी को जगाया. वह हड़बड़ा कर उठ बैठी. वह बाहर गई. क्षणभर में उस की चीख सुनाई दी, ‘‘अरे, यहां आओ तो, देखो न…’’ शंकर घबरा कर बाहर की तरफ भागा, ‘‘क्या हुआ?’’ ‘‘यहां रखा पीतल का हंडा गायब है. मेरी शादी में कानपुर वाली मौसी ने दिया था.’’ शंकर ने दरवाजे की तरफ देखा. दरवाजा, ग्रिल, दोनों खुले थे. दरवाजा केवल भिड़ा रखा था. वह बाहर बरामदे में आया, इधरउधर देखा और फिर थके कदमों से भीतर आ गया. ‘‘बड़े कर्ण बने थे. देखी उन की करतूत? उस में नहाने के लिए पानी गरम करती थी. आज भी 2-3 सौ रुपए से कम क्या होगा. आप ने उन का भला किया और वे चूना लगा कर चले गए.’’ ‘‘जाने भी दो, भवानी. अब वह बरतन वापस मिलने से रहा. हमारे लिए गरम पानी का साधन, उन के लिए भूख शांत करने का साधन…’’ लंबी सांस लेते हुए शंकर ने कहा. सांप डसेगा ही, बिच्छू काटेगा ही… और गरीब अपनी भूख शांत करने के लिए ऐसी हरकतें करेगा ही.

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