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Hindi Kahani Khandani खानदानी kahaniyan Hindishayarih

खानदानी kahaniyan in hindi खानदानी युवक ने जब बताया कि वह लोग उसी बंगले में रहते हैं तो मेरे अधरों पर गर्वान्वित मुस्कान उभर आई । मेरा अनुमान सटीक निकला , वह स्त्री खानदानी घराने से ही थी ।




Hindi Kahani Khandani खानदानी kahaniyan
खानदानी kahaniyan in hindi
 


अहाना अर्चना पांडेय


माघ की वह सर्द रात , मैं मुंबई से गोरखपुर मा तक आने वाली ट्रेन से यात्रा करके विश्रामालय में लकड़ी के चार पाए वाले सख्ते पर बैठी ही थी कि मुझे अपने बराबर में सर्दी से कांपती तीस वर्ष की एक युवती बैठी दिखाई दी । उसका आधा चेहरा घूंघट से ढका था ।


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 भय से हल्के - हल्के थरथराते हाथों में सोने के खानदानी कंगन , पैरों में चांदी की मोटी परत वाली पायल और शरीर पर बनारसी साड़ी थी , कदाचित किसी खानदानी घर की स्त्री लग रही थी । साथ में चौदह वर्ष की एक बेटी थी , जो उसके कंधे पर सिर टिकाए आते - जाते यात्रियों को निहार रही थी ।






 उनसे कुछ पंग की दूरी पर एक हृष्ट - पुष्ट युवक धोती कुर्ता में खड़ा था , जो शायद युवती का पति था । “ आप कहां जा रहे हैं ?  पनदेवरी जा रहे हैं , आप कहां जा रही हैं ? " मेरे प्रश्न पर जवाब देने के तत्पश्चात उस युवक ने मुझसे प्रश्न किया । " मैं भी पनदेवरी ही जा रही हूं ।







 " मैंने एक हल्की लालिमा लिए मुस्कान के साथ जवाब दिया । वह युवक प्लेटफॉर्म पर टहलने लगा और मैं रात में चकमक करती प्लेटफॉर्म की रौनक देखने लगी । दस मिनट के पश्चात उन तीनों संग मैंने भी बाहर का रुख किया । बाहर रिक्शा और अन्य सवारियों का तांता लगा था । एक रिक्शे पर सवार हो हम चारों पनदेवरी के लिए निकल पड़े ।




 हम थे तो चार , मगर उस रिक्शे में सन्नाटा पसरा था , हालांकि सवारियों की तीव्र ध्वनि उस मौन माहौल में कोलाहल कर रही थी । आश्चर्य करने वाली बात तो यह थी कि वह स्त्री अभी तक मौन थी । मेरे हर प्रश्न पर मात्र सिर हिलाकर उत्तर देती । तीन घंटे बीतने के पश्चात रिक्शा पनदेवरी में एक आश्रम के सामने जाकर रुका । हम चारो उस रिक्शे से उतर गए । 





आश्रम के ठीक सामने एक बड़ा बंगला था और बंगले के इर्द गिर्द हरी - भरी क्यारियां उस मकान की शोभा में चार चांद लगा रही थीं । युवक ने जब बताया कि वह लोग उसी बंगले में रहते हैं तो मेरे अधरों पर गर्वान्वित मुस्कान उभर आई । मेरा अनुमान सटीक निकला , वह स्त्री खानदानी घराने से ही थी । मैंने उन लोगों को विदा करने के पश्चात आश्रम में प्रवेश किया । मैं बहुत समय पश्चात इस जगह पर घूमने की इच्छा से मुंबई से करीबन एक सप्ताह का अवकाश लेकर आई थी ।





 इस एक सप्ताह में मैंने गांव के साथ - साथ समस्त नगर का भ्रमण किया । दाएं - बाएं आशियाने थे और गांव के बीच में उस युवक का आलीशान बंगला , जिसकी एक - एक दीवार खामोश थी और स्त्रियों पर होते अन्याय की व्यथा कहा रही थी । कहने को तो खानदानी घराना था , किंतु कभी भी वहां पुरुषों के अतिरिक्त स्त्रियों की बुदबुदाहट कानों तक स्पर्श नहीं करती थी । कभी - कभी यदि संयोगवश किसी महिला की आवाज स्पर्श करती भी तो हृदय दहल जाता था , क्योंकि उस बंगले से स्त्रियों की कभी - कभार चीत्कार सुनाई पड़ती थी ।







 कोड़ों से मार खाती स्त्रियों की चीत्कार । गांव के दाएं - बाएं का इलाका कोलाहल और उमंग से परिपूर्ण था । स्त्रियों और पुरुषों में अक्सर हंसी ठहाकों का माहौल रहता । पूरे दिन कार्य के पश्चात स्त्रियां मिल - जुलकर एक साथ गांव के पीछे बागवानों की तरफ भ्रमण के लिए निकल जातीं और पुरुष एकजुट होकर अलाव के पास आपस में गपशप करते । किंतु बीच गांव में उस बंगले पर सन्नाटा पसरा रहता । न कोई उत्साह का कोलाहल , न उमंगों का शोर , न ही बच्चों का खेलता बचपन था और न ही स्त्रियों के यौवन की मुस्कान ।




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 महज भय , स्त्रियों का अपमान , पुरुषों की गर्वित गर्जना के अतिरिक्त उस बंगले में कुछ नहीं था , क्योंकि उस खानदानी घराने में स्त्रियों को बोलने की अनुमति नहीं थी , न ही स्वतंत्रता का रिवाज था । वहां बेटियों को मात्र मौन रहना सिखाया जाता था और स्त्रियों को सिर झुकाकर रहना । उन खानदानी स्त्रियों की वेदना मुझे इस कदर कचोट रही थी कि वहां पर जाने के निर्णय पर मुझे पश्चाताप होने लगा ।





 मन से बस एक आह निकल रही थी , " भगवान कभी किसी स्त्री को ऐसा खानदानी घराना न दे , जहां स्त्रियों का ही कोई सम्मान नहीं ! "

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