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Bade Ghar Ki Bahu Ki Kahani: बड़े घर की बहू: रक्षाबंधन के दिन राखी के साथ क्या हुआ? - HindiShayariH

bade ghar ki bahu kahani in hindi बड़े घर की बहू: रक्षाबंधन के दिन राखी के साथ क्या हुआ?
नहीं समझ रही थी, तो वह थी उन की बहन राखी. और इसलिए मां उस के नाम भर से चिढ़ जाती थी. विवाद की शुरुआत तब हुई जब राखी ने अपनी ससुराल के उच्चस्तरीय संबंधों की प्रशंसा के पुल बांधने शुरू कर दिए. लेकिन रक्षाबंधन के मौके पर...




बड़े घर की बहू: रक्षाबंधन के दिन राखी के साथ क्या हुआ
बड़े घर की बहू




Bade Ghar Ki Bahu Ki Kahani
उस की बात सुनते ही मां एकदम से अगियाबैताल हो गई, “हांहां, अब वह बड़े घर की मालकिन जो बन गई है न. उसे अब अपने भाइयों की याद क्यों आने लगी. हम ने उस की शादी के पीछे अपनी सारी धनदौलत लगा दी. अब वह हमें-तुम्हें क्यों पूछने लगी. अब तुम्हारे पापा भी तो नहीं रहे, जो उस का घर भरते. वो तो

पिछले ही साल इस कंबख्त कोरोना की भेंट चढ़ गए. वह तब नहीं आई, तो अब क्या आती इस रक्षाबंधन में.

“उस को इस तरह बनाने के पीछे तुम्हारे पापा ही थे, और क्या. मैं पहले ही मना कर रही थी कि बेटी जात को इतना सिर न चढ़ाओ. मगर मेरी सुनता कौन है.” सदा की तरह मां अपना कोप पापा पर प्रकट करने लगी थी, “सारी पूंजी उस की शादी में शाहखर्ची दिखाने में झोक दी. जरा भी न सोचा कि तीनतीन बेटे हैं, उन का क्या होगा. अब भुगतो सभी महारानी की बात. भाइयों को सहयोग करना तो दूर, देखने के लिए फुरसत तक नहीं. जब तक तुम्हारे पापा रहे, हर बार आआ कर नोंचखसोंट कर ले जाती रही. अब कुछ रहा नहीं, तो दो पैसे के धागे भिजवाना भी भारी पड़ने लगा. फोन पर कहती है, राखी भेजना भूल गई थी. वहीं खरीद बंधवा देना.”

“अब सुबहसुबह हुआ क्या जो इतनी शोर मचा रही हो,” बड़े भैया दिनेश परेशान स्वरों में पूछ बैठे, “किसी को चैन नहीं लेने देती.”

“तुम्हारी ही लाड़ली बहन की बात हो रही है,” मां उन पर चिल्लाई, “फोन कर बता रही थी महारानी कि राखी खरीद बंधवा देना.”

“ठीक ही तो है,” वे शांत स्वर में बोले, “भेजना भूल गई होगी.”

“जब तक यहां भरापूरा था, तब भूलती नहीं थी. अरे, यह कहो कि कोई कुछ मांग न दे, इस डर से वह आना नहीं चाहती. आना तो दूर, रिश्ता नहीं रखना चाहती. पिछले साल महेश गया था, तो उसे पुराना मोबाइल फोन दे एहसान जता रही थी. उस मोबाइल की मरम्मत में ही ढाई हजार रुपए लग गए थे. यह भी नहीं





bade ghar ki bahu kahani in hindi

सोचा कि यह वही भाई है जिस ने मुझ से लड़ कर मेरे सारे गहनेजेवर उसे दिलवा दिए कि बड़े घर में राज करेगी.”

“अरे, पुराना बड़ा व्यापारी परिवार है. वहां किसी एक की थोड़े ही चलती है,” भैया बोल रहे थे, “वहां सबकुछ नफानुकसान देख कर निर्णय लिया जाता है.”

“अब तो तुम लोग कुछ बोलो मत. सब तुम लोगों का ही मिलजुल कर कियाधरा है. तुम्हारे पापा ने बेटों के लिए कुछ किया नहीं. और सारा कुछ बेटी पर लुटा दिया.”

बड़े दिनेश भैया वहां से भनभनाते से उठ कर चाबी का गुच्छा संभाले तीर की तरह बाहर निकल लिए.

मझले भाई राकेश अपनी स्कूटी स्टार्ट कर पैट्रोल पंप की ओर चल दिए, जहां वे कैशियर का काम देखते थे.

सभी अभी तक घर में इसी राखी की आस में बैठे थे. मगर जब वह आई ही नहीं, तो रुकना बेकार था.

और महेश वहां से उठ कर तुरंत बाहर बरामदे में आ कर कुरसी पर बैठ गया. ये मां भी कहां से कहां बात उठा कर किस के माथे पर फेंक देगी, पता नहीं चलता. चूंकि त्योहार था, तो महल्ले में भी चहलपहल थी. छोटेबड़े बच्चे हाथ में राखी बंधवाए इधरउधर घूम व खेल रहे थे. उस ने देखा कि घर के चारों बच्चे भी चमकीली राखी बांध इठला रहे थे. और दूर कहीं रक्षाबंधन का कोई फिल्मी गीत गूंज रहा था. और वह अपने अतीत में डूब रहा था.

3 भाइयों के बाद बहन राखी सब से छोटी थी. उस के जन्म के बाद जैसे घर में रौनक आ गई थी. खासकर रक्षाबंधन के दिन घर में सभी का उत्साह देखते बनता था. घर में पूरे वौल्यूम में टेपरिकौर्ड पर राखी का गीत बजता. पुए-पकवानों की सुगंध रसोई से फिजां में उड़ती रहती. और पूरे उत्साह के साथ नए कपड़े

पहन वह सभी भाइयों को राखी बांध कर मनपसंद उपहार वसूल करती थी. वे सभी भी उस से राखी बंधवा धन्यधन्य महसूस करते थे.


लेकिन समय का फेर ऐसा कि पापा अवकाशप्राप्त कर पैंशनयाफ्ता हुए. दोनों बड़े भाइयों को ढंग की नौकरी मिल नहीं पाई थी. झख मार कर बड़े भाई ने घर के बाहर बने ओसारे में अपनी स्टेशनरी की दुकान खोल ली थी. और मझले भाई बीकौम कर एक पैट्रोल पंप में कैशियर के तौर पर लग गए थे. वैसे, वह एमए कर चुका था.

बैंक, विद्यालय से ले कर विविध सरकारी नौकरियों के लिए वह प्रयास करता रहा था. मगर नौकरी इतनी आसान कहां थी. और इसलिए एक लोकल प्राइवेट स्कूल में शिक्षक लग लिया था. इस के अलावा थोड़ीबहुत ट्यूशनें भी कर लिया करता था. मगर इस लौकडाउन ने इन सभी पर लौक लगा दिया था. प्राइवेट स्कूल घर

बिठा कर वेतन देने से तो रहे.

राखी सुंदर थी. और उस की सुंदरता पर ही रीझ कर उस की ससुराल वालों ने उसे पसंद किया था. मगर पापा वहां शादी तय करने में हिचक रहे थे कि इतना संपन्न परिवार है और उस के लिए वे दानदहेज जुटा नहीं पाएंगे. मां तो एकदम सख्त खिलाफ थी ही. मगर वे तीनों भाई राखी की ससुराल से अभिभूत थे कि घर की बेटी वहां जा कर राज करेगी. क्या पता, वहां से सहयोग भी मिले. हम जैसे कसबे और कसबाई मानसिकता वाले लोगों के लिए पटना जैसे शहर का आकर्षण भी एक बड़ा कारण तो था ही. और उन लोगों ने भी कह दिया था कि दानदहेज की जरूरत नहीं. आप, बस, अपनी बेटी के जेवरात जुटा दें और बरातियों का स्वागत अच्छी तरह से कर दें, यही बहुत है.

पहली समस्या तो जेवरात की आई. पापा ने अपने पीएफ की जमापूंजी से 10 तोले के जेवरात बनवाए थे. मगर उन का डिमांड 15 तोले का आ गया, तो मां के कुछ जेवरों को उन में शामिल कर उन की इच्छा पूरी करने की बात आई. मां का कहना था कि सब इसे ही दे दूं, तो महेश की शादी में क्या दूंगी?

मांपापा की इस बक-झक के बीच वह बोला, ‘मेरी चिंता मत करो. बहन बड़े घराने में ब्याही जा रही है. इस के अलावा हमें और क्या चाहिए?’

मगर इस के बाद चारपहिया वाहन की मांग आ गई. इस के अलावा कपड़े, बरतन, फर्नीचर में लाखों लग गए. कहां तो दो सौ बरातियों के आने की बात थी, अंतिम समय में पता चला कि बराती तीन सौ की संख्या में आने वाले हैं. और इस तरह खर्च बढ़ता चला गया था. पापा के साथ सभी भाई सिर्फ इस बात के लिए आश्वस्त थे कि बहन बड़े घर में जा रही है.

औकात से बढ़ कर लेनदेन हुआ. दोनों बड़े भाइयों ने अधिक खर्च न हो, इस के लिए अपनी ससुराल से मिले अनेक सामान भी दे दिए थे. मगर फिर भी राखी असंतुष्ट थी कि उसे अपने मायके से कुछ नहीं मिला. और यही शिकायत लिए वह अपनी ससुराल को विदा हुई.

और उसी बहन को अब फुरसत नहीं थी कि पलट कर मायके की गिरती हैसियत व प्रतिष्ठा का ध्यान रखे. पहले हर रक्षाबंधन के वक्त वह घर चली आती थी और नेग के तौर पर महंगेमहंगे उपहार वसूल कर जाती थी. वैसे वह जब भी आती, अपनी ससुराल की प्रशंसा में जमीनआसमान के कुलाबें मिलाती, सभी को उन की ही नजरों में छोटा कर जाती थी. कभी उस से यह नहीं हुआ कि वह अपने भाईभाभियों को छोड़ दे, भतीजेभतीजियों के लिए कुछ उपहार ला दे. मां के अनुसार, ‘उस ने देना नहीं, सिर्फ लेना सीखा है.’

पापा के रिटायरमैंट के बाद वैसे भी इस घर की स्थिति कमजोर होती जा रही थी. पैंशन से क्या होना था. और दोनों भाई थकहार कर छोटी सी दुकान व नौकरी में सिमट गए थे. रहीसही कसर लौकडाउन ने तोड़ दी थी. उधर राखी की ससुराल में अच्छा व बड़ा मैडिकल स्टोर था, जिस में नौनौ नौकर काम करते थे. और वह मैडिकल स्टोर लौकडाउन से अप्रभावित था. फिर उन्हें किस बात की कमी रहती.

सभी इन स्थितियों को समझ रहे थे. नहीं समझ रही थी, तो वह थी उन की बहन राखी. और इसलिए मां उस के नाम भर से चिढ़ जाती थी. विवाद की शुरुआत तब हुई जब राखी ने अपनी ससुराल के उच्चस्तरीय संबंधों की प्रशंसा के पुल बांधने शुरू कर दिए. वह उसी समय एक सरकारी विद्यालय में शिक्षक पद के लिए इंटरव्यू दे चुका था.

उस ने इस के लिए उस से सिफारिश करवाने की बात कही, तो वह साफ मुकर गई, कहने लगी, ‘मेरी ससुराल के लोग इस के सख्त खिलाफ हैं.’

‘तो रिश्तेदारी किस बात की,’ मां बोली, ‘अपने भाई के लिए ही कहनासुनना करेगी न? एक बार कह कर तो देखो.’

और इस प्रकार, मां के अनुसार, उस की नौकरी होतेहोते रह गई थी.

इस के पूर्व घर में एक और घटना घट चुकी थी. भैया दुकान का विस्तार करना चाहते थे. मगर इस के लिए पूंजी की जरूरत थी. मां ने एक बार राखी से कहा भी कि अपने घर में चर्चा कर देखो. शायद मदद कर दें.

मगर उस ने साफ मना कर दिया कि वह वहां मुंह नहीं खोल सकती. बाद में भैया की ससुराल वालों ने उन की मदद की, तो दुकान आगे बढ़ा पाए थे. लेकिन समयबेसमय के लौकडाउन के चक्कर से उन की दुकान प्रभावित हुई थी.

पिछले वर्ष किसी काम से वह पटना गया, तो राखी के घर भी चला गया था. राखी ने उस की औपचारिक आवभगत की. शाम में जब वह चलने लगा, तो एक बार भी यह नहीं कहा कि रात में कहां लौटोगे, आज यहीं रुक जाओ. वह उस के छोटे से मोबाइल को देख आश्चर्य दिखाती बोली, ‘आजकल के जमाने में ऐसा मोबाइल चलाते हो, महेश भैया.’

‘क्या किया जाए,’ वह फीकी हंसी हंस कर बोला था, ‘सब समय का फेर है. ढंग की नौकरी लगते ही स्मार्टफोन ले लूंगा.’

राखी अंदर जा कर एक पुराना मोबाइल ले आई और उसे देते हुए बोली, ‘इसे रख लो. ज्यादा पुराना है नहीं. मैडिकल स्टोर में किसी पार्टी ने इन्हें नया मोबाइल फोन गिफ्ट किया था. उसी से मेरा काम चलता है. और यह यों ही बेकार पड़ा रहता है. सो, अब तुम इस का उपयोग करो.’

घर वापस आने पर सारी बात जान कर मां ने फिर उसे कोसना शुरू कर दिया था- ‘बहुत दानी बनती है, महारानी. यह नहीं हुआ कि नए वाला ही फोन दे दे. आखिर, उसे भी तो वह मुफ्त में ही मिला था. इस की मरम्मत में ढाई हजार रुपए निकल गए. कभी तो यह हुआ नहीं इस पांचेक साल में किसी आतेजाते भाई को सस्ता, सूती कपड़ा ही पकड़ा जाती. इतनी बार यहां आईगई और गठरियां बांध ले गई. मगर मजाल कि कभी अपने भतीजेभतीजियों के लिए कुछ लाई हो या चलते वक्त उन के हाथ में एक रुपया भी धरा हो. ऐसी स्वार्थी, घटिया बहन किसी ने देखी भी न होगी.’

मां के कटाक्षों से आहत वह बोला था, ‘चलो, कोई बात नहीं. बड़े भैया का बेटा रामू मैट्रिक में आ गया है. लौकडाउन की वजह से अभी उस की औनलाइन पढ़ाई होती है. उस के लिए यह काम आएगा.’

और सचमुच रामू उस, पुराने ही सही, स्मार्टफोन को पा कर बहुत खुश हुआ था. पढ़ाई में वह तेज तो था ही. और अब तकनीकी सहयोग मिलने से उस की पढ़ाई भलीभांति होने लगी थी. इसी का नतीजा था कि वह मैट्रिक की परीक्षा में 82 प्रतिशत नंबर लाने में सफल रहा था.

मगर आज इस रक्षाबंधन के त्योहार में मां की जीभ कतरनी की तरह चल रही थी- “परिवार आखिर कहते किस को हैं. एकदूसरे के सलाहसहयोग से ही रिश्तेदारी चलती है. एक पड़ोस के सिद्धेश्वर बाबू हैं, जो अपनी बेटी नेहा की बड़ाई करते नहीं थकते. और क्यों न करें वे. बैंक की अच्छी नौकरी में है. फिर भी हर दूसरेचौथे माह मांबाप का हालचाल लेती रहती है. अरे, हालचाल तो बस बहाना है. इसी बहाने घरभर का घटाबढ़ा पूरा कर जाती है. पिछले साल लौकडाउन के वक्त वह हर महीने राशनपानी भिजवाती रही थी.

“उस को तो उस की ससुराल में कोई कुछ नहीं कहता. मगर इस बेटी राखी को देखो, बड़े घर की बहू बन गई है न!

“खैर, दिन सब के एक से नहीं रहते.”

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