Hindi Poem स्वर्णिम आस
यात्रा में सब पीछे छूटते ... बस पीछे छूटते
इसी उधेड़बुन में डूबा मन
पूरी रात विचारों की बदली
घेरे रही मुझे बड़ी ही सघनता से
निर्बाध यात्रा चलती रही
विचारों की सघनता बदली बनकर
हृदय पर बरस पड़ी
रात बीतने को से आई
पूरब से एक किरण जगमगाई
कुछ समय में ही सुनहरा
फैलने लगा हर जगह
मेरी आंखे आह्लाद अनुभव
करने लगीं
हृदय का कुहासा छंटने लगा
न जाने क्यों आज मुझे
चांद का सम्मोहन नहीं
सूरज का प्रताप भा रहा था
सूरज की हल्की - सी गरमाहट
सुनहरा रूप धारण कर
उतर रही थी मेरे अंदर
मेरी ट्रेन की खिड़की से
सटकर सूरज कर रहा था
मेरे साथ मेरी यात्रा पूरी
एक क्षण को भी नहीं छोड़
रहा था मेरा साथ
जितनी गति से ट्रेन दौड़ रही थी ,
सूरज भी कोई कमी नहीं छोड़ रहा था
उसे पछाड़ने में
उसकी ओजस्विता सचमुच
मुझे निराशा से उबार रही थी
और कहीं न कहीं मेरे अंदर की
खिलखिलाहट को
ऊर्जा देकर बाहर ला रही थी
मेरी असहजता सहज हो रही थी
जीवन के नवीन अनुभव में
सुनहरा रंग भर रही थी
सिखा ही नहीं , पढ़ा भी रही थी
नई चमक , आत्मविश्वास का उजास
लौटाएगा फिर से स्वर्णिम आस