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बैपनाह - Bepanah hindi kahani Bhag 1 to 3 hindishayarih


बैपनाह बैपनाह - Bepanah hindi kahani

प्यार--कितना खूबस्‌रत अहसास है ना? कौन है जिसके ल्लेठों पर यह लफ़्ज़ सुनकर म॒स्कृराहट नहीं आती? प्यार स़रिर्फ़ दो जिस्यों के ग्रिलन को ही नहीं कहते। यह दो दिलों में बहती एक ऐसी जलध्ारा हैं जो अपनी राह में आते हर व्यक्तित्व को अपने साथ बल्ला कर एक गहरे समन्दर में योते लगाने को म्रजब्र कर देती है। प्यार कबु किसे कलह्लाँल्े जाए कोई नहीं जानता। ज़िन्दगी के रेग्रिस्तान में तड़पते लोगों को प्यार पनाह देता है लेकिन कुछ ऐसे भी बदकिस्पत होते हैं जो बेपनाह रह जाते हैं। बेपनाह ऐसे ही बदकिस्पत लोगों की कहानी है।


होटल के गेट पर कार रुकते ही सबकी नज़र उस तरफ दौड़ गई। जश्न की चाशनी भरी रात में डूबे हॉल की जगमगाती रोशनी के बीच जैसे ही उन लोगों ने कदम रखा, सब उनका स्वागत करने के लिए भागे। कम्पनी की मुम्बई शाखा के खास निमन्त्रण पर दिल्ली मुख्यालय से दे लोग आज रात वहाँ पहुँचे थे। कोई भी उनकी मेहमान-नदाज़ी में ढील बरत कर उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहता था। कुछ सीनियर्स उनकी खुशामद करके उनकी नज़र में आना चाहते थे।

हेड ऑफ़िस से आए उन तीन लोगों में एक खूबसूरत लड़की भी थी जिस पर जूनियर्स और सीनियर्स दोनों की निगाहें रह- रह कर थम रहीं थीं। इतनी कम उम्र में उसके इस मुकाम पर पहुँचने पर सबको हैरानी थी। जहाँ इक्का-दुक्का लोगों को छोड़ कर ज़्यादातर कॉपरिट सूट्स में थे, वहीं उस लड़की ने कांचीपुरम की सुनहरे बॉर्डर वाली लाल साड़ी पहनी हुई थी। उसने कमर तक लम्बे बालों को चोटी बनाई हुई थी जो सोने पर सुहागे का काम करते हुए उसके रूप को और निखार रही थी। वहाँ मौजूद हर किसी की निगाह उस पर थी परन्तु वो उनकी अफ़सर थी इसलिए सभी दस आह भर कर रह गए थे।

पर एक नज़र थी जो सबसे नज़र बचा कर किसी और को देख रही थी। देखने दाली नज़र थी सचिन की जो कब से सौम्या को देख रहा था लेकिन न जाने क्यों वो उससे नज़र चुरा रही थी। ऐसा आज ही नहीं बल्कि पिछले कुछ दिनों से चल रहा था। सौम्या अपने बहुत खास दोस्त से दूरी बना रही थी।

सौम्या घोष- जैसा नाम वैसा ही व्यक्तित्व। कोलकाता के मध्यवर्गीय परिवार से आई खूबसूरत, शालीन और मेहनती लड़की थी जिसने अ>फिस में लगभग हर किसी का ध्यान आकर्षित किया हुआ था। । एक साल पहले ही दो कोलकाता से आई थी लेकिन जल्दी ही उसने स्वयं को मुंबई के हिसाब से ढाल लिया था। फिर भी आ:फ़िस की राजनीति एवं छल-प्रपंच से वो अभी कोसों दूर थी। उसकी जिस सबसे बड़ी खासियत ने सचिन के मन को मोह लिया था वो था उसकी सादगी और सबकी सहायता करने की भावना। वो आ2८फ़िस की बाकी लड़कियों से अलग थी। दो न तो ज़्यादा अन्तर्मुखी थी और ना ही ज़्यादा सबसे घुल-मिल जाने वाली। उसके लिए सब सहकर्मी ही थे, इससे ज़्यादा कुछ नहीं।

पिछले एक साल में एक-दो लड़कों ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव भी रखा था लेकिन उसने विनग्रतापूर्वक मना कर दिया था लेकिन फिर भी वो लड़के अभी भी उसके मित्र थे या शायद किसी झूठी आशा में जी रहे थे। सौम्या ने ठान रखा था कि ठह प्यार-व्यार के चक्कर से दूर रहेगी, जब तक अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती। लेकिन दिल पर आखिर किसका ज़ोर चलता है भला?

सौम्या के मुंबई में ज्वाइन करने के कुछ समय बाद उसकी सचिन से दोस्ती हो गई थी, जो अहिस्ता-आहिस्ता बढ़ती ही गई थी। सौम्या को एक अजनबी शहर में एक ऐसा दोस्त मिल गया था जो उसकी हर ज़रुरत का ख्याल रखता था। सचिन और सौम्या की कुछ आदतें भी एक जैसी थी।

धीरे-धीरे सचिन के मन में सौम्या के प्यार के गुलाब खिल ही गए जिसकी महक सौम्या को अपनी साँसों में महसूस होते देर न लगी। इस बात का आभास होते ही सौम्या ने अपने करियर को प्राथमिकता देते हुए सचिन से दूरी बना ली। शायद उसे डर था कि प्यार उसे उसके लक्ष्य से भटका देगा। यद्यपि सचिन की तरह उसने भी स्वयं पर नियन्त्रण रखा था किन्तु जब भी वह सचिन को देखती, उसका दिल अजीब तरीके से धड़कने लगता था। शायद उसे भी प्यार था लेकिन उसका दिमाग शायद यह बात मानने को तैयार नहीं था।

सचिन आज उससे बात करना चाहता था लेकिन वह फिर मुँह फेरे उससे टूर रह रही थी। सचिन ने उसे देखा तो देखता ही रह गया। आज वह उसे किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी। सचिन ने उसे प्यार से देखा तो दोनों की नज़रें आपस में टकराईं। सौम्या का दिल फिर ज़ोर से धड़का और अपने गाल पर आती हुई बालों की लटों में अपने कान के पीछे करती हुई वह नज़र झुका कर पलट गई। सचिन को लग रहा था कि जैसे सौम्या की नज़र ने कहा हो, "सचिन! मुझे अफ़सोस है। मुझे माफ करना।"

सचिन का दिल बैठने लगा। उसने अपना ध्यान बंटाने के लिए इधर-उधर देखा। उसके ग्रुप में किसी ने कोई एडल्ट जोक सुनाया था जिसे सुनकर सब ठहाका लगा रहे थे। सचिन का ध्यान इसी ठहाके से भंग हुआ और वह बिना सुने ही ज़रा सा हंस कर सबसे अलग होता हुआ कोई अकेला कोना ढूँढने लगा जहाँ वह बिना किसी बाधा के अपने दिल के ज़ख्यों को सहला सके।

43 साल के वर्मा जी अपने साथियों सहित दिल्‍ली से आई हुई उस 28-29 साल की सीनियर को हठस भरी निगाहों से देख रहे थे। पूरी मैनेजमेंट उन सीनियर्स की चम्मचागिरी करने में व्यस्त थी। हाथ में व्हिस्की के गिलास लिए सब अपनी-अपनी गपशप में व्यस्त थे परन्तु सचिन की नज़र अभी भी सौम्या को ढूँढ रही थी। तभी उसने देखा उसके ग्रुप की कुछ लड़कियाँ उसे देखकर हंस-हंस कर बात रही थी। सचिन की नज़र उन पर पड़ी तो दे दूसरी तरफ देखने लगी थीं। शायद वे उसके और सौम्या के बारे में गॉसिप कर रही थी।

लेकिन सचिन को इसकी परवाह नहीं थी। दरअसल आज उसे किसी भी चीज़ की परवाह नहीं थी। आज उसे अपने प्यार का इज़हार हर हाल में करना था। सचिन आहिस्ता से सौम्या की तरफ बढ़ने लगा लेकिन उसका डर उसे पीछे खींच रहा था। उसने कांपती हुई आवाज़ में सौम्या को पुकारना चाहा, तभी उसे लगा कि उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया।

अगले ही पल उसे महसूस हुआ कि अकेला वह ही अंधा नहीं हुआ था बल्कि पूरे हॉल में रोशनी नहीं थी। इसी बीच घड़ी की टिक-टिक की आदाज़ के साथ-साथ सब चिल्लाने लगे।


यह चिल्लाते ही पूरे हॉल में जहाँ सब लोग पहले शान्ति से खड़े थे, जैसे दुनिया में इनसे सभ्य जानदर कोई न हो, वहीं इस समय वे शोर-शराबे की उफनती हुई नदी में गोते लगा रहे थे। हर तरफ तेज़ संगीत पर थधिरकते बदन दीन-दुनिया के दुःख भूल कर अपना आपको खुशी के भूल-भुलइया में गुम कर देना चाहते थे। वे जानते थे कि यह जश्न और वीकेंड खत्म होते ही उन्हें फिर से कैद होना पड़ेगा। फिर वही टारगेट, प्रेज़ेंटेशन और प्रफोर्मेंस का रोना उनकी ज़िन्दगी का ज़ख़्म गहरा करेगा। लेकिन पापी पेट के लिए उन्हें यह सब करना ही पडेगा। जब तक सोमवर का शोक न हो, तब तक जश्न ही मना लिया जाए।

यह सिर्फ उनकी ही कहानी नहीं है, बल्कि हर मध्य-दर्गीय व्यक्ति आजकल इसी झंझादात में जिंदगी गुजार रहा है। सुबह से शाम तक काम की परेशानी में ज़िन्दगी गुज़ारते हुए वह एक मशीन बन चुका है जिस में दिमाग है लेकिन उच्च रक्तचाप से भरा हुआ, दिल है लेकिन हार्ट-अटैक का खतरा भी है, टारगेट है लेकिन मंज़िल नहीं। पैसा कमाने की दौड़ में जज़्बात गंवा चुकने की बाद उसे मशीन नहीं कहा जाए तो फिर कया कहा जाए?

सरकार की भी सारी योजनाएं सिर्फ़ गरीबों के लिए ही होती हैं जिसका फ़ायदा अमीर लोग उठाते हैं और यह मध्य-दर्ग तो जैसे टैक्स देने के लिए ही बना है। इतना सब कुछ होते हुए भी ये सब अपना ग़म छुपाकर, अपने जज़्बात का क़त्ल करके जश्न मना रहे थे तो इन्हें मशीन ही तो कहा जाएगा। लेकिन इस समय उनकी हालत उस कबूतर के जैसी थी जो बिल्ली को देखकर आँखें मूंद कर अपने ख्यालों में मगन रहता है कि बिल्ली भी उसे नहीं देख रही। इस खुशफहमी में दह शिकार बन जाता है। उसी तरह वे लोग नए साल के उत्सव में ड्बे थे जैसे यह कभी ख़त्म ही नहीं होगा लेकिन सोमवार तो आएगा ही। नए साल का पहला काम का दिन। नए लक्ष्य, नए ज़िम्म्मेदारी और नई परेशानी। उफ़! लेकिन कल की चिन्ता में आज की रात क्यों खराब करनी? यही सोचकर कुछ नाचने में व्यस्त थे और कुछ नशे में मदहोश।


फिर से रोशनी होते ही सब नाचने लगे थे। सचिन ने देखा तो कुछ देर पहले सौम्या जहाँ खड़ी थी, अब वहाँ नहीं थी। उसने बेचैन होकर इधर-उधर नज़र दौड़ाई तो बाकी वह लड़कियों के साथ डांस फ्लोर पर सुर से बदन का ताल मिलाती हुई नाच रही थी। शायद वह सचिन से दूर रहने के लिए जानबूझ वहाँ नाचने के लिए आई थी। सचिन ने उसे खुशी में हंसते हुए देखा तो उसके मन में भी खुशी की लहर सी दौड़ गई जिसका अंदाज़ा सिर्फ़ वही लगा सकता था। पता नहीं सौम्या ने सचिन को मुस्कुराते हुए देखा था या ऐसे ही मुस्कुराई थी, सचिन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। वो ख़ुश थी, उसके लिए यही बहुत था। उसकी मुस्कुराहट पर सचिन जान भी न्योछावर कर सकता था। आज उसे पहली बार अनुभव हो रहा था कि सौम्या के लिए उसके मन में प्रेम की जड़ें कितनी गहरी थीं।

सचिन देशमुख पुणे के महाराष्ट्रियन मध्य-दर्गीय परिवार में पैदा हुआ लड़का था जो दो सालों से ज़्यादा समय से मुंबई में इस कंपनी में नौकरी कर रहा था। उसकी मेहनत और लगन से अधिकारी खुश थे और सहकर्मी जलन से मरे जाते थे। सबको उसकी आगे बढ़ने की प्रखर संभावनाएं नज़र आती थी। वक़्त के बेलगाम घोड़े पर वह बैठकर अभी अपना सन्तुलन बना ही रहा था कि सौम्या घोष ने कंपनी में ज्वाइन किया था।

उसे प्रशिक्षण देने की ज़िम्मेदारी सचिन को दी गई थी जिससे 5 दिन की ट्रेनिंग में दो अजनबी कब अच्छे दोस्त बने, दोनों को पता ही नहीं चला था। सचिन यूं हर किसी से हँस कर बात करता था लेकिन सौम्या को उसके लफ़्ज़ों की चाशनी में भीगते देर न लगी। दोनों अपने घर से दूर रह रहे थे। अपनों से यही दूरी उन्हें एक-दूसरे के करीब लाई थी।

सचिन सौम्या की हर ज़रूरत का ख्याल रखता था। दोनों साथ में दोपहर का खाना खाते किसी वीकेंड जब सचिन को अपने घर पुणे नहीं जाना होता तो दोनों एक साथ समय बिताते, शॉपिंग करते या कोई फिल्म देखते। मगर सचिन के दिल में कब प्यार की एक लीहर उठी और उसे बहा ले गई, वह खुद जान नहीं पाया। हालांकि सचिन ने उसे कभी ऐसा कुछ नहीं कहा था, न ही अपनी बातों से आभास करदाया था लेकिन लड़कियों की छठी ज्ञानेन्द्री इस मामले में बहुत तेज़ होती है। वह सामने वाले के चेहरे से उसकी सोच का अन्दाजा लगा लेती हैं। सौम्या किनारे पर खड़ी शायद हालात का जायज़ा ले चुकी थी और इससे पहले कि उसके मन में भी उसे लेकर कोई विचार आए, उसने अपना कदम पीछे खींच लिया। वह धीरे-धीरे खुद को सचिन से दूर कर रही थी।


इसी बीच उसे पता चला था कि सचिन उसका दोस्त बनते-बनते उसकी ज़रूरत और फिर आदत आदतत बन चुका था जिसे छोड़ना काफी कएष्ठकारी साबित होने दाला था लेकिन वह प्यार-व्यार से दूर रह फिलहाल अपने कैरियर को ही महत्व देना चाहिए थी।

संगीत अब कम हो गया था। सचिन अभी भी सौम्या को ही देख रहा था। सब लोग थक चुके थे और कुछ अब पार्टी से निकल रहे थे। कुछ नशे में धुत्त थे और कुछ बैठ कर सब हुल्लड़ देख रहे थे। अचानक संगीत बन्द हो गया तो सबने देखा कि सचिन मंच पर खड़ा था।

“हेलो दोस्तो! नया साल मुबारक हो। हर बार नए साल पर हम कोई न कोई संकत्प लेते हैं। मैंने भी लिया है और उसी को पूरा करने मंच पर आया हूँ।" उसका यह कहना था कि सब उसकी तरफ मुड़ गए। पहले तो उन्हें लगा कि शायद सचिन नशे में है। अगर ऐसा था तो यह हैरानी की बात थी क्योंकि सब जानते थे कि सचिन को शराब से परहेज़ था। लेकिन जैसे- जैसे दो इतने आत्म-विश्वास से बोलता गया, सबको भरोसा हो गया कि दह कोई गम्भीर विषय लेकर आया था।

“मैं अपने प्यार का इज़हार सबके सामने करना चाहता हूँ। कया मुझे आज्ञा है?" उसके ये बोल सीन कर सबके मुँह खुले रह गए। सचिन और प्यार? यह कैसे हो गया?

तभी एक तरफ नशे में धुत्त खड़े उसके सहकर्मियों ने तालियाँ ढजा कर उसका हौसला बढ़ाना शुरु कर दिया। कोइ चिल्ला रहा था तो कोई सीटी बजा रहा था। लड़कियों के दिल बैठने लगे थे कि न जाने यह खूबसूरत नवयुवक किसे अपना दिल दे बैठा था। कुछ लोग पहले से ही उसकी सौम्या से नज़दीकियाँ भांप चुके थे। उनके लिए बस यही देखना बाकी था कि वह अपने प्यार का इज़हार कैसे करता है और उसे क्या प्रतिक्रिया मिलती है।


तभी सचिन ने गाना शुरु किया:

कहना है, कहना है...

आज तुमसे यह पहली बार, हो हो हो हो तुम ही तो लाई हो जीवन मेँ मेरे,

प्यार प्यार प्यार

पड़ोसन फिल्म का यह गीत किशोर कुमार की आवाज़ में ही अच्छा लगता है। फिर अगर गाने वाला सचिन जैसा हो तो इस बात का अहसास और अधिक होता है। सचिन इतना बुरा गायक नहीं था कि लोग कानों में उंगलियाँ ठँस लें, लेकिन इतना अच्छा भी नहीं था। ख़ैर उसका गीत सुनने में किसे दिलचस्पी थी? सब दो एक नाम जानना चाहते थे जिसे सचिन अभी तक अपने होंठों पर नहीं ला पाया था ताकि आफिस में गॉसिप करने लायक कुछ मसाला तो मिले। लोगों में अधीरता बढ़ती जा रही थी और सीनियर्स में गुस्सा। दिल्‍ली से आए दरिष्ठ अतिथियों के सामने उनकी छीछालेदर हो रही थी।

सचिन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। वह तो बस आँखें मूँदे गाए जा रहा था। अचानक उसने वही गीत बांग्ला में गाना शुरु कर दिया।

बोलार आछे, बोलार आढे, एई आज तोमोकी प्रोधोम बार, तुर्मी ऐ आनाचो जीबोना... प्यार प्यार प्यार

हालांकि सचिन की इस हरकत से सबके शक की सुई सौम्या की तरफ़ ही घूम गई थी लेकिन जब सचिन ने टूटी-फूटी बांग्ला में गाना शुरु किया तो दूध का दूध और पानी का पानी हो गया। क्योंकि वहाँ बंगाली कम ही थे और सौम्या उन सब में से अकेली लड़की थी। सचिन के इस तरह खुलेआम मंच पर प्यार का इज़हार करने से जहाँ उसके सहकर्मी उन्‍्माद और जोश में शोर मचा रहे थे, वहीं सीनियर्स की त्योरियां चढ़ी हुई थीं। वे सचिन को लाल-पीले होकर घूरे जा रहे थे। परन्तु सचिन के सिर पर तो इस समय प्यार का भूत सवार था जो उससे यह सब करवा गया था।

अब सबकी नज़रें सौम्या को ढूँढ रहीं थी। सब उसकी प्रतिक्रिया जानने को उत्सुक थे। सब देखना चाहते थे कि क्या सौम्या के मन में भी सचिन के लिए प्यार था? क्या सौम्या इसे हँसकर स्वीकार करने वाली थी? या फिर उसे मना करके सबके सामने उसकी इज्ज़त की धज्जियां उड़ा देने वाली थी? कुछ भी हो लेकिन वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह रात मज़ेदार बनने वाली थी और साथ ही साथ आठ5फ़िस में चाय की चुस्कियाँ लेकर कानाफूसी करने लायक सर्दोत्तम आहार भी मिल गया था। अब कुछ तो होना चाहिए जो काम से बोझिल दिमाग को कुछ तो बहला दे।


मनुष्य की प्रकृति है ही ऐसी खुराफाती कि दूसरे को मुसीबत में देखकर कभी वह पिघल जाता है तो कभी उसकी ढॉाँछें खिल जाती हैं। कभी किसी की खुशी देखकर कोई व्यक्ति स्वयं भी खुश होता है तो कभी किसी को जश्न मनाता देख उसका मातम मनाने को दिल करता है। अब सभी नजरें एक ही चेहरा देखना चाहती थी और सबकी जुबान पर एक ही नाम था जिसे होंठों पर लाते हुए सब दाँतों तले जीभ दबाकर एक-दूसरे के कान में फुसफुसा रहे थे -सौम्या घोष। मगर वो चुगलखोर आँखें जिसे देखना चाहती थीं, वह नज़र नहीं आ रही थी। सबके मुँह उस तरफ घूमने, जहाँ कुछ देर पहले सौम्या बैठी थी, लेकिन अब वो जगह खाली थी।

“तोमार एतो साहोस की भाढे होलो?(तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई?)", वॉशरूम में खुद को आइने में निहारती हुई गुस्से से भरी सौम्या बांग्ला में ढड़बढड़ाई।

इन्सान दूसरों पर रौब जमाने के लिए जैसी भी पढ़े-लिखे लोगों दाली भाषा, खास तौर पर चाहे जितनी अच्छी अंग्रेज़ी ही क्यूं ना बोले लेकिन जब भावनाओं को प्रकट करने का समय आता है तो उसे अपनी मातृभाषा ही याद आती है। सौम्या के साथ में यही तो हो रहा था वह अपने में खुद को देख रही थी लेकिन बांग्ला में सचिन को ऐसे भला-बुरा कह रही थी जैसे वह सचमुच सामने खड़ा हो।


उसकी आँखों का काजल उसके आँसूओं के कारण किनारों से फैलने का प्रयास कर रहा था लेकिन गुस्से में लाल आँखें उन्हें रोके हुए थीं। पहली बार किसी दूसरे के कारण इतने लोगों के सामने बेवजह ही ज़िल्लत उठानी पड़ी थी। वह यही सोच-सोच कर परेशान हुई जा रही थी कि, "सब क्या कहेंगे?" लेकिन वह अब भी मुंबई को ठीक से समझ नहीं पाई थी। हॉल में उपस्थित लोगों के बारे में तो पता नहीं लेकिन यह कम-से-कम उसके लिए तो यह ज़रा सी बात नहीं थी। वह लोगों की नज़रों का सामना करने से डरती हुई आकर वॉशरूम में आ छिप गई थी।

सौम्या ने अपने हैंडबैग से नैषकिन निकला और अपनी आँखों से फ़लते काजल को इतनी कुशलतापूर्वक साफ किया कि कहीं मेकअप खराब न हो जाए। हालात कुछ भी हों, महिलाएं श्रृंगार-कला में अपनी निपुणता उसी तरह दिखाती हैं, जितना कोई चित्रकार चित्र बनाने करता है। दो अभी अपने ख्यालों में गुम नज़र झुकाए वॉश-बेसिन में बहते हुए पानी को देख रही थी कि तभी उसे अपने कंधे पर एक हल्का-सा दबाव महसूस हुआ। उसके कंधे को किसी ने ज़रा-सा थपथपाया और बड़ी नग्र आवाज़ में उसका नाम पुकारा था, "मिस सौम्या घोष!"

सौम्या ने चौंक कर आइने में देखा तो तो दिल्‍ली वाली सीनियर लड़की खड़ी प्यार से मुस्कुरा रही थी। उसे देखकर सौम्या घबरा कर उसकी तरफ मुड़ी। लेकिन उसे हैरत हुई कि उसकी उम्मीद के विपरीत उस लड़की के चेहरे पर न तो गुस्सा था और न ही उसकी आँखें व्यंग्यात्मक रूप से मुस्कुरा रही थीं बल्कि उसके चेहरे पर एक शालीनता थी जो यह दर्शा रही थी कि बाहर जो भी हुआ था, या तो वह इससे अनभिज्ञ थी या उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था।

"तो तुम ही हो वो जिसकी ढाहर चर्चा हो रही है?", लड़की ने मुस्कुराते हुए पूछा।

“जी?", सौम्या कुछ सकपका तो गई किन्तु कुछ न समझने का अभिनय करते हुए छोटा-सा सवाल पूछकर सिर झुका लिया।

“दिल्ली में तुम्हारी तारीफ़ सुनी थी तो सोचा था कि तुमसे ज़रूर मिल्‌गी लेकिन पता नहीं था कि हम यहाँ इस वॉशरूम में मिलेंगे और वो भी इस परिस्थिति में", उसने फिर से होंठों पर शालीन मुस्कान लाते हुए सौम्या से कहा।

सौम्या से जवाब देते नहीं बन रहा था। अपनी गलती पर वह सफाई दे सकती थी लेकिन जिस बारे में उसका मज़ाक बनाया जा रहा था, उसमें उसका कोई कसूर ही नहीं था। गलती चाहे पुरुष की हो या स्त्री की, लोग तो स्त्री को ही दोषी समझते हैं। कोई पुरुष से प्रश्न नहीं करता। परन्तु सीनियर लड़की ने शायद भाँप लिया था कि सौम्या इस समय जवाब देने की हालत में नहीं थी।


“मुझे तुम कुछ देर बाद होटल के गेस्ट रूम में मिलना। मैं दहीं तुम्हारा इंतजार करूँगी", लड़की ने मुस्कुराते हुए कहा और

बाहर चली गई। अब सौम्या का दिल और ज़ोर से धड़कने लगा और मन में किसी अनहोनी की आशंका के बादल छाने लगे।

Bepanah Part 2





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