‘मेरी बेटी को क्यों कोस रही हो, मांजी. सही समय पर सभी कार्य स्वयं ही संपन्न हो जाते हैं,’ मां ने मिट्ठी का पक्ष लेते हुए कहा था.
‘4 वर्ष बीत गए. हजारों रुपए तो देखनेदिखाने पर खर्च किए जा चुके हैं. मुझे नहीं लगता, इस के भाग्य में गृहस्थी का सुख है. मेरी मानो तो इस के छोटे भाईबहनों का विवाह कर दो,’ दादीमां ने अपने बेटे को सुझाव दिया था.
‘क्या कह रही हो, मां? क्या ऐसा भी कहीं होता है कि बड़ी बेटी बैठी रहे और छोटों का विवाह हो जाए? फिर, मिट्ठी से कौन विवाह करेगा?’ सर्वेश्वर बाबू के विरोध का स्वर कुछ इस तरह गूंजा था कि दादीमां आगे कुछ नहीं बोली थीं.
उस की मां अचानक ही बहुत चिंतित हो उठी थीं. जिस ने जो उपाय बताए, मां ने वही किए. कितने दिन भूखी रहीं. कितना पैसा मजारों पर जाने व चादर चढ़ाने पर खर्च किया, पर सब बेकार रहा और इसी चक्कर में मां अस्पताल पहुंच गईं.
अंत में एक दिन मिट्ठी ने घोषणा कर दी थी कि अब विवाह नाम की संस्था से उस का विश्वास उठ गया है और वह न तो भविष्य में लोगों के सामने अपनी नुमाइश लगा कर अपना उपहास करवाएगी न कभी विवाह करेगी.
सर्वेश्वर बाबू को जैसे इस उद्घोषणा की ही प्रतीक्षा थी. उन्होंने तुरंत ही दूसरी बेटी पुष्पी के विवाह के लिए प्रयत्न प्रारंभ किए. उन का कार्य और भी सरल हो गया जब पुष्पी ने अपने लिए वर का चुनाव स्वयं ही कर लिया और मंदिर में विवाह कर मातापिता का आशीर्वाद पाने घर की चौखट पर आ खड़ी हुई थी.
मां तो देखते ही बिफर गई थीं. दादीमां ने माथा ठोक कर समय को दोष दिया और पिता ने पूर्ण मौन साध लिया था. काफी देर रोनेपीटने के बाद जब मां थोड़ी व्यवस्थित हुई थीं तो उन्होंने ऐलान कर डाला था कि वे इस विवाह को विवाह नहीं मानतीं और अब पूरे रीतिरिवाज के अनुसार सप्तपदी की रस्म होगी. सो, पुष्पी के विवाह के निमंत्रणपत्र छपे, मित्रसंबंधी एकत्र हुए, कानाफूसियों का सिलसिला चला और धूमधाम से दानदहेज के साथ पुष्पी को विदा किया गया. मां ने बचपन से दोनों बेटियों के लिए ढेरों गहने, कपड़े, बरतन जोड़ रखे थे. मिट्ठी ने तो उन्हें निराश किया था पर पुष्पी के विवाह का सुनहरा अवसर वे छोड़ना नहीं चाहती थीं.
इस बीच मिट्ठी के एमए पास करने के बाद उसे बाहर जा कर नौकरी करने की पिता ने आज्ञा नहीं दी. उन्हें एक ही डर था कि लोग क्या कहेंगे कि बेटी की कमाई खा रहे हैं.
मिट्ठी का स्वभाव ही ऐसा था कि अधिक देर तक वह उदास नहीं रह सकती थी. खिलखिलाना, ठहाके लगाना मानो उस की निराशा और दर्द को दूर रखने के साधन बन गए थे.
मिट्ठी ने अपने हाथों पुष्पी के लिए जरीगोटे का लहंगा बनाया था. लहंगेचूनर का काम देख कर सब ने दांतों तले उंगली दबा ली थी. लगता था, जैसे किसी की व्यावसायिक निपुण उंगलियों का कमाल था.
पुष्पी ने तो मुग्ध हो कर मिट्ठी की उंगलियां ही चूम ली थीं.
‘बेचारी,’ पड़ोस की नीरू बूआ ने आंखें छलकाने का अभिनय करते हुए कहा था. मिट्ठी तब दूसरे कमरे में मां का हाथ बंटा रही थी.
‘बेचारी क्यों?’ उन की बेटी रुनझुन ने प्रश्नवाचक स्वर में पूछा था.
‘अपने लिए शादी का जोड़ा बनवाने की हसरत तो उस के मन में ही रह गई,’ उन्होंने स्पष्ट किया था.
‘मिट्ठी दीदी की उंगलियों में तो जादू है, मां, और उन का स्वभाव, वह तो मुर्दों में भी जान फूंक दे,’ रुनझुन बोली थी.
‘शायद ठीक ही कहती है तू, वे ही अभागे थे जो उसे नापसंद कर गए,’ नीरू बूआ बोली थीं.
‘मम्मी, मेरी शादी का जोड़ा भी आप मिट्ठी दीदी से ही बनवाना,’ रुनझुन ने आगे कहा था.
‘सुन ले मिट्ठी, रुनझुन की फरमाइश. आसपड़ोस की लड़कियां अब तुझे चैन नहीं लेने देंगी,’ नीरू बूआ बोलीं.
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इस बीच जो बात मिट्ठी को सब से अजीब लगी थी वह थी पारंपरिक विवाह के 2 दिन पहले से ही पुष्पी रोने लगी थी. यद्यपि सभी कुछ तो उस की इच्छा से हुआ था. उस ने मां से पूछा भी था.
‘रोने की रस्म होती है विवाह में, पर तू क्या जाने, कभी ससुराल जाती तब तो जानती, मन अपनेआप पिघल कर आंखों की राह बहने लगता है,’ मां ने मानो राज की बात बताई थी पर मिट्ठी के पल्ले कुछ नहीं पड़ा था.
पुष्पी के विवाह के बाद जो कुछ हुआ, उस की मिट्ठी ने कल्पना नहीं की थी. उस के पास विवाह के लिए जोड़े बनवाने वालों की भीड़ लग गई थी. न जाने क्या सोच कर सर्वेश्वर बाबू ने न केवल उसे यह काम करने की आज्ञा दे दी, बल्कि जो धन उस के विवाह के लिए रखा था वह उसे दुकान में लगाने के लिए सौंप दिया था. इतना काम मिट्ठी अकेली तो कर नहीं सकती थी. सो, 3-4 सहायकों को रख लिया था. सर्वेश्वर बाबू ने उस के लिए एक बड़ी सी दुकान का प्रबंध भी कर दिया था.
अगले भाग में पढ़ें- मुझ से मिलना चाहती हैं? पर क्यों?
मिट्ठी का काम दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था. उस की ख्याति महल्ले से निकल कर पूरे शहर में फैल गई. इस बीच उस के दोनों भाई भी अपनी पसंद की लड़कियों से विवाह कर चुके थे. दोनों दूसरे शहरों में कार्यरत थे. मातापिता के साथ केवल मिट्ठी ही रहती थी.
उस दिन सुबह से ही मिट्ठी की तबीयत ठीक नहीं थी. यद्यपि उस के सहायक कार्य कर रहे थे, पर मिट्ठी सबकुछ उन के भरोसे छोड़ने की अभ्यस्त नहीं थी. विवाहों का मौसम होने के कारण कार्य इतना अधिक था कि अपनी दुकान बंद करने की बात वह सोच भी नहीं सकती थी.
सांझ गहराने लगी थी. मिट्ठी को लगा जैसे बुखार तेज हो रहा था. आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा था. उस ने सोचा, आज काम थोड़ा जल्दी बंद कर देंगे, पर इस से पहले कि वह कोई निर्णय ले पाती, सामने एक कार आ कर रुकी और एक युवकयुवती उतर कर दुकान में आए.
‘हां, यही है वह बुटीक भैया, जिस के बारे में पल्लवी ने बताया था,’ युवती साथ आए युवक से कह रही थी.
‘यह बुटीक नहीं एक साधारण सी दुकान है. बताइए, हम आप की क्या सेवा कर सकते हैं,’ मिट्ठी बोली थी.
‘पर आप काम असाधारण करती हैं. मेरी सहेली पल्लवी की शादी का जोड़ा तो इतना अनूठा था कि सब देखते ही रह गए. वह कह रही थी कि आश्चर्य की बात तो यह है कि इसे डिजाइन करने वाली ने कभी शादी का जोड़ा नहीं पहना,’ वह युवती बोले जा रही थी.
‘ओह, श्रीवाणी ऐसा नहीं कहते. अपने काम की बात करो,’ उस का भाई श्रीनाथ बोला था.
‘कोई बात नहीं, मैं बुरा नहीं मानती. बताइए, आप को क्या चाहिए,’ मिट्ठी ने शीघ्र ही उन्हें निबटाने की गरज से पूछा था.
‘लगता है हम दोनों का हाल एकजैसा ही है,’ श्रीनाथ बोला था.
‘जी?’
‘देखिए न, आप शादी के जोड़े बनाती हैं पर स्वयं कभी नहीं पहना. मेरी आभूषणों की दुकान है पर स्वयं कभी गहने नहीं पहने,’ वह मुसकराया था.
‘आप की उंगलियों और गले को देख कर तो ऐसा नहीं लगता,’ मिट्ठी ने श्रीनाथ की उंगलियों में चमकती अंगूठियों की ओर इशारा किया था. पर इस से पहले कि श्रीनाथ कोई उत्तर दे पाता, मिट्ठी काउंटर पर सिर रख कर बेसुध हो गई थी.
‘अरे, देखिए तो क्या हो गया है इन्हें?’ श्रीवाणी और श्रीनाथ ने मिट्ठी की सहायिका को पुकारा था.
‘आज सुबह से ही दीदी को बुखार था. पता नहीं क्या हो गया है. मैं डाक्टर को फोनकरती हूं,’ एक सहायिका बोली थी.
‘आप लोग इन्हें उठाने में सहायता करें, तो इन्हें पास के नर्सिंग होम में ले कर चलते हैं,’ श्रीनाथ ने राय दी थी.
मिट्ठी को पास के नर्सिंग होम ले जाया गया और शीघ्र ही उपचार शुरू हो गया था. यद्यपि कुछ ही देर में मिट्ठी को होश आ गया था, पर बुखार तेज होने के कारण उसे नर्सिंग होम में दाखिल कर दिया गया और उस के मातापिता को सूचित कर दिया गया था.
मिट्ठी को स्वस्थ होने में 4-5 दिन लगे थे. इस बीच श्रीनाथ उस से मिलने रोज आता रहा और ताजा फूलों का गुलदस्ता देता रहा. स्वस्थ होने के बाद भी मिट्ठी की दुकान पर जबतब वह जाता. पहले अपनी बहन श्रीवाणी के विवाह के जोड़े बनवाने के लिए, फिर विवाह के लिए आमंत्रित करने के लिए. वह कार्ड देते हुए बोला था, ‘आप श्रीवाणी के विवाह में अवश्य आएंगी.’
‘देखूंगी, वैसे मैं कहीं आतीजाती नहीं, समय ही नहीं मिलता.’
‘लेकिन, यह एक विशेष निमंत्रण है. मेरी मां आप से मिलना चाहती हैं.’
‘मुझ से मिलना चाहती हैं? पर क्यों?’ मिट्ठी उलझनभरे स्वर में बोली थी.
‘आप को नहीं लगता मिट्ठीजी कि हम दोनों की जोड़ी खूब जंचेगी,’ श्रीनाथ मुसकराया था.
‘जोड़ी? क्या कह रहे हैं आप? मैं 37 से ऊपर की हूं. विवाह आदि के बारे में मैं सोचती भी नहीं,’ मिट्ठी बोली थी.
‘मैं भी 40 का हूं, पर जब से आप को देखा है, लगता है हम दोनों की खूब गुजरेगी. मेरा मतलब है शादी के जोड़े और आभूषण एक ही जगह,’ श्रीनाथ मुसकराया था.
‘पता नहीं, आप क्या कह रहे हैं? मेरे मातापिता दूसरी बिरादरी में विवाह के लिए कभी तैयार नहीं होंगे,’ मिट्ठी घबरा गई थी.
‘आप तो हां कहिए, आप के मातापिता को मैं मना लूंगा,’ श्रीनाथ ने आग्रह किया था.
श्रीनाथ द्वारा विवाह प्रस्ताव रखे जाते ही नीरा भड़क उठी थीं, ‘बिरादरी के बाहर विवाह किया तो लोग क्या कहेंगे? पुष्पी ने अपनी मरजी से शादी की थी, पर की तो बिरादरी में ही थी.’
‘बिरादरी में ही ढूंढ़ रहे थे हम भी, पर कोई मिला क्या? ऊपर से जले पर नमक छिड़कते थे. हमारे पास लेनेदेने को है ही क्या? मैं तैयार हूं, मिट्ठी श्रीनाथ से ही विवाह करेगी,’ सर्वेश्वर बाबू ने स्वीकृति दे दी तो नीरू चुप रह गई थीं.
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फिर तो आननफानन सब हो गया. मिट्ठी सचमुच प्रसन्न थी. मां कहती हैं कि रोने की रस्म होती है, पर वह नहीं रोएगी. वह तब नहीं रोई जब सारा समाज उसे रुलाना चाहता था तो अब क्यों रोएगी वह?
विवाह की रस्में समाप्त होते ही विदाई होने वाली थी. पर मिट्ठी की आंखों में आंसुओं का नामोनिशान तक नहीं था. तभी मां ने उसे गले से लगा लिया था.
‘‘न रो, मिट्ठी, मेरी बेटी, चुप हो जा. ऐसे भी भला कोई रोता है,’’ वे कह रही थीं, पर मिट्ठी चित्रलिखित सी कार की ओर बढ़ रही थी. उस का मन हो रहा था हंसे, खिलखिला कर हंसे, इस विचित्र परंपरा पर.
‘क्या कह रही हो, मां? क्या ऐसा भी कहीं होता है कि बड़ी बेटी बैठी रहे और छोटों का विवाह हो जाए? फिर, मिट्ठी से कौन विवाह करेगा?’ सर्वेश्वर बाबू के विरोध का स्वर कुछ इस तरह गूंजा था कि दादीमां आगे कुछ नहीं बोली थीं.
उस की मां अचानक ही बहुत चिंतित हो उठी थीं. जिस ने जो उपाय बताए, मां ने वही किए. कितने दिन भूखी रहीं. कितना पैसा मजारों पर जाने व चादर चढ़ाने पर खर्च किया, पर सब बेकार रहा और इसी चक्कर में मां अस्पताल पहुंच गईं.
अंत में एक दिन मिट्ठी ने घोषणा कर दी थी कि अब विवाह नाम की संस्था से उस का विश्वास उठ गया है और वह न तो भविष्य में लोगों के सामने अपनी नुमाइश लगा कर अपना उपहास करवाएगी न कभी विवाह करेगी.
सर्वेश्वर बाबू को जैसे इस उद्घोषणा की ही प्रतीक्षा थी. उन्होंने तुरंत ही दूसरी बेटी पुष्पी के विवाह के लिए प्रयत्न प्रारंभ किए. उन का कार्य और भी सरल हो गया जब पुष्पी ने अपने लिए वर का चुनाव स्वयं ही कर लिया और मंदिर में विवाह कर मातापिता का आशीर्वाद पाने घर की चौखट पर आ खड़ी हुई थी.
मां तो देखते ही बिफर गई थीं. दादीमां ने माथा ठोक कर समय को दोष दिया और पिता ने पूर्ण मौन साध लिया था. काफी देर रोनेपीटने के बाद जब मां थोड़ी व्यवस्थित हुई थीं तो उन्होंने ऐलान कर डाला था कि वे इस विवाह को विवाह नहीं मानतीं और अब पूरे रीतिरिवाज के अनुसार सप्तपदी की रस्म होगी. सो, पुष्पी के विवाह के निमंत्रणपत्र छपे, मित्रसंबंधी एकत्र हुए, कानाफूसियों का सिलसिला चला और धूमधाम से दानदहेज के साथ पुष्पी को विदा किया गया. मां ने बचपन से दोनों बेटियों के लिए ढेरों गहने, कपड़े, बरतन जोड़ रखे थे. मिट्ठी ने तो उन्हें निराश किया था पर पुष्पी के विवाह का सुनहरा अवसर वे छोड़ना नहीं चाहती थीं.
मिट्ठी का स्वभाव ही ऐसा था कि अधिक देर तक वह उदास नहीं रह सकती थी. खिलखिलाना, ठहाके लगाना मानो उस की निराशा और दर्द को दूर रखने के साधन बन गए थे.
मिट्ठी ने अपने हाथों पुष्पी के लिए जरीगोटे का लहंगा बनाया था. लहंगेचूनर का काम देख कर सब ने दांतों तले उंगली दबा ली थी. लगता था, जैसे किसी की व्यावसायिक निपुण उंगलियों का कमाल था.
पुष्पी ने तो मुग्ध हो कर मिट्ठी की उंगलियां ही चूम ली थीं.
‘बेचारी,’ पड़ोस की नीरू बूआ ने आंखें छलकाने का अभिनय करते हुए कहा था. मिट्ठी तब दूसरे कमरे में मां का हाथ बंटा रही थी.
‘बेचारी क्यों?’ उन की बेटी रुनझुन ने प्रश्नवाचक स्वर में पूछा था.
‘अपने लिए शादी का जोड़ा बनवाने की हसरत तो उस के मन में ही रह गई,’ उन्होंने स्पष्ट किया था.
‘मिट्ठी दीदी की उंगलियों में तो जादू है, मां, और उन का स्वभाव, वह तो मुर्दों में भी जान फूंक दे,’ रुनझुन बोली थी.
‘शायद ठीक ही कहती है तू, वे ही अभागे थे जो उसे नापसंद कर गए,’ नीरू बूआ बोली थीं.
‘मम्मी, मेरी शादी का जोड़ा भी आप मिट्ठी दीदी से ही बनवाना,’ रुनझुन ने आगे कहा था.
‘सुन ले मिट्ठी, रुनझुन की फरमाइश. आसपड़ोस की लड़कियां अब तुझे चैन नहीं लेने देंगी,’ नीरू बूआ बोलीं.
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इस बीच जो बात मिट्ठी को सब से अजीब लगी थी वह थी पारंपरिक विवाह के 2 दिन पहले से ही पुष्पी रोने लगी थी. यद्यपि सभी कुछ तो उस की इच्छा से हुआ था. उस ने मां से पूछा भी था.
‘रोने की रस्म होती है विवाह में, पर तू क्या जाने, कभी ससुराल जाती तब तो जानती, मन अपनेआप पिघल कर आंखों की राह बहने लगता है,’ मां ने मानो राज की बात बताई थी पर मिट्ठी के पल्ले कुछ नहीं पड़ा था.
अगले भाग में पढ़ें- मुझ से मिलना चाहती हैं? पर क्यों?
मिट्ठी का काम दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था. उस की ख्याति महल्ले से निकल कर पूरे शहर में फैल गई. इस बीच उस के दोनों भाई भी अपनी पसंद की लड़कियों से विवाह कर चुके थे. दोनों दूसरे शहरों में कार्यरत थे. मातापिता के साथ केवल मिट्ठी ही रहती थी.
उस दिन सुबह से ही मिट्ठी की तबीयत ठीक नहीं थी. यद्यपि उस के सहायक कार्य कर रहे थे, पर मिट्ठी सबकुछ उन के भरोसे छोड़ने की अभ्यस्त नहीं थी. विवाहों का मौसम होने के कारण कार्य इतना अधिक था कि अपनी दुकान बंद करने की बात वह सोच भी नहीं सकती थी.
सांझ गहराने लगी थी. मिट्ठी को लगा जैसे बुखार तेज हो रहा था. आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा था. उस ने सोचा, आज काम थोड़ा जल्दी बंद कर देंगे, पर इस से पहले कि वह कोई निर्णय ले पाती, सामने एक कार आ कर रुकी और एक युवकयुवती उतर कर दुकान में आए.
‘हां, यही है वह बुटीक भैया, जिस के बारे में पल्लवी ने बताया था,’ युवती साथ आए युवक से कह रही थी.
‘यह बुटीक नहीं एक साधारण सी दुकान है. बताइए, हम आप की क्या सेवा कर सकते हैं,’ मिट्ठी बोली थी.
‘पर आप काम असाधारण करती हैं. मेरी सहेली पल्लवी की शादी का जोड़ा तो इतना अनूठा था कि सब देखते ही रह गए. वह कह रही थी कि आश्चर्य की बात तो यह है कि इसे डिजाइन करने वाली ने कभी शादी का जोड़ा नहीं पहना,’ वह युवती बोले जा रही थी.
‘ओह, श्रीवाणी ऐसा नहीं कहते. अपने काम की बात करो,’ उस का भाई श्रीनाथ बोला था.
‘कोई बात नहीं, मैं बुरा नहीं मानती. बताइए, आप को क्या चाहिए,’ मिट्ठी ने शीघ्र ही उन्हें निबटाने की गरज से पूछा था.
‘लगता है हम दोनों का हाल एकजैसा ही है,’ श्रीनाथ बोला था.
‘जी?’
‘देखिए न, आप शादी के जोड़े बनाती हैं पर स्वयं कभी नहीं पहना. मेरी आभूषणों की दुकान है पर स्वयं कभी गहने नहीं पहने,’ वह मुसकराया था.
‘आप की उंगलियों और गले को देख कर तो ऐसा नहीं लगता,’ मिट्ठी ने श्रीनाथ की उंगलियों में चमकती अंगूठियों की ओर इशारा किया था. पर इस से पहले कि श्रीनाथ कोई उत्तर दे पाता, मिट्ठी काउंटर पर सिर रख कर बेसुध हो गई थी.
‘अरे, देखिए तो क्या हो गया है इन्हें?’ श्रीवाणी और श्रीनाथ ने मिट्ठी की सहायिका को पुकारा था.
‘आज सुबह से ही दीदी को बुखार था. पता नहीं क्या हो गया है. मैं डाक्टर को फोनकरती हूं,’ एक सहायिका बोली थी.
‘आप लोग इन्हें उठाने में सहायता करें, तो इन्हें पास के नर्सिंग होम में ले कर चलते हैं,’ श्रीनाथ ने राय दी थी.
मिट्ठी को पास के नर्सिंग होम ले जाया गया और शीघ्र ही उपचार शुरू हो गया था. यद्यपि कुछ ही देर में मिट्ठी को होश आ गया था, पर बुखार तेज होने के कारण उसे नर्सिंग होम में दाखिल कर दिया गया और उस के मातापिता को सूचित कर दिया गया था.
मिट्ठी को स्वस्थ होने में 4-5 दिन लगे थे. इस बीच श्रीनाथ उस से मिलने रोज आता रहा और ताजा फूलों का गुलदस्ता देता रहा. स्वस्थ होने के बाद भी मिट्ठी की दुकान पर जबतब वह जाता. पहले अपनी बहन श्रीवाणी के विवाह के जोड़े बनवाने के लिए, फिर विवाह के लिए आमंत्रित करने के लिए. वह कार्ड देते हुए बोला था, ‘आप श्रीवाणी के विवाह में अवश्य आएंगी.’
‘देखूंगी, वैसे मैं कहीं आतीजाती नहीं, समय ही नहीं मिलता.’
‘लेकिन, यह एक विशेष निमंत्रण है. मेरी मां आप से मिलना चाहती हैं.’
‘मुझ से मिलना चाहती हैं? पर क्यों?’ मिट्ठी उलझनभरे स्वर में बोली थी.
‘आप को नहीं लगता मिट्ठीजी कि हम दोनों की जोड़ी खूब जंचेगी,’ श्रीनाथ मुसकराया था.
‘जोड़ी? क्या कह रहे हैं आप? मैं 37 से ऊपर की हूं. विवाह आदि के बारे में मैं सोचती भी नहीं,’ मिट्ठी बोली थी.
‘मैं भी 40 का हूं, पर जब से आप को देखा है, लगता है हम दोनों की खूब गुजरेगी. मेरा मतलब है शादी के जोड़े और आभूषण एक ही जगह,’ श्रीनाथ मुसकराया था.
‘पता नहीं, आप क्या कह रहे हैं? मेरे मातापिता दूसरी बिरादरी में विवाह के लिए कभी तैयार नहीं होंगे,’ मिट्ठी घबरा गई थी.
‘आप तो हां कहिए, आप के मातापिता को मैं मना लूंगा,’ श्रीनाथ ने आग्रह किया था.
श्रीनाथ द्वारा विवाह प्रस्ताव रखे जाते ही नीरा भड़क उठी थीं, ‘बिरादरी के बाहर विवाह किया तो लोग क्या कहेंगे? पुष्पी ने अपनी मरजी से शादी की थी, पर की तो बिरादरी में ही थी.’
‘बिरादरी में ही ढूंढ़ रहे थे हम भी, पर कोई मिला क्या? ऊपर से जले पर नमक छिड़कते थे. हमारे पास लेनेदेने को है ही क्या? मैं तैयार हूं, मिट्ठी श्रीनाथ से ही विवाह करेगी,’ सर्वेश्वर बाबू ने स्वीकृति दे दी तो नीरू चुप रह गई थीं.
ये भी पढ़ें- हिंदी कहानी रस्मे विदाई : भाग 1
फिर तो आननफानन सब हो गया. मिट्ठी सचमुच प्रसन्न थी. मां कहती हैं कि रोने की रस्म होती है, पर वह नहीं रोएगी. वह तब नहीं रोई जब सारा समाज उसे रुलाना चाहता था तो अब क्यों रोएगी वह?
विवाह की रस्में समाप्त होते ही विदाई होने वाली थी. पर मिट्ठी की आंखों में आंसुओं का नामोनिशान तक नहीं था. तभी मां ने उसे गले से लगा लिया था.
‘‘न रो, मिट्ठी, मेरी बेटी, चुप हो जा. ऐसे भी भला कोई रोता है,’’ वे कह रही थीं, पर मिट्ठी चित्रलिखित सी कार की ओर बढ़ रही थी. उस का मन हो रहा था हंसे, खिलखिला कर हंसे, इस विचित्र परंपरा पर.