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फादर्स डे स्पेशल: सरोज दुबे जी की कहानी चौथापन Fathers Day Special

फादर्स डे स्पेशल: सरोज दुबे जी की कहानी चौथापन
फादर्स डे स्पेशल Kahani

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वह अकुलाए से अपनी जगह पर बैठे रह गए और सोचते रहे. शायद वह वर्तमान से कट चुके हैं. उन का जमाना लद चुका था. उन के सिद्धांत, आदर्श ओैर विचार अब अप्रासंगिक हो चुके थे.




वह एक कोने में कुरसी पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे थे. अचानक उन्होंने ऊब कर किताब एक ओर  रख दी. आंखों  से चश्मा उतार कर मेज पर रख दिया. रूमाल से आंखें साफ कीं और निरुद्देश्य खिड़की  से बाहर की चहलपहल देखने लगे.

‘‘दादाजी, यह कामिक्स पढ़ कर सुनाइए जरा,’’ उन की 10 वर्ष की नातिन अंजू रंगबिरंगी पुस्तकें लिए कमरे में पहुंच गई.

‘‘लाओ, देखें,’’ उन्होंने बड़े चाव से  पुस्तकें ले लीं.

वह पुस्तकों के चित्र तो देख पा रहे थे, किंतु चश्मा लगाने के बाद भी उन पुस्तकों को पढ़ पाना उन्हें बड़ा कठिन लग रहा था. फिर नाम भी क्या थे पुस्तकों के, ‘आग का दरिया’, ‘अंतरिक्ष का शैतान’.

‘‘छि: छि:… ये क्या हैं? अच्छी पुस्तकें पढ़ा करो, बेटे.’’

‘‘अच्छी कौन सी, दादाजी?’’

‘‘जिस पुस्तक से कोई अच्छी बात सीखने को मिले. बच्चों के लिए तो आजकल बहुत सी पत्रपत्रिकाएं  निकलती हैं.’’

‘‘आप नहीं जानते, दादाजी, ये थ्री डायमेंशनल कामिक्स हैं. इन को पढ़ने के लिए अलग से चश्मा मिलता है. यह देखिए.’’

‘‘अरे, यह कोई चश्मा है? लाल पन्नी लगी है इस में तो. इस से आंखें खराब हो जाएंगी. फेंको इसे.’’

‘‘आप को कुछ नहीं मालूम, दादाजी,’’ अंजू ने उपेक्षा से कहा और पुस्तकें ले कर तेजी से बाहर चली गई.

वह अकुलाए से अपनी जगह पर बैठे रह गए और सोचते रहे. शायद वह वर्तमान से कट चुके हैं. उन का जमाना लद चुका था. उन के सिद्धांत, आदर्श ओैर विचार अब अप्रासंगिक हो चुके थे.

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अभी कुछ ही दिन पहले की तो बात थी. उन के बेटे मुन्ना  ने भी यही कहा था. हुआ यों था कि उस दिन वह कारखाने में मौजूद थे. नौकर ने एक ग्राहक को बिल दिया तो उन्हें वह बहुत ज्यादा लगा. वह एक प्रकार से ग्राहक को लूटने जैसा ही  था. उन्होंने नौकर को डांट दिया और जोर दे कर उस से बिल में परिवर्तन करने को कहा.

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उसी दिन मुन्ना रात को घर आने के बाद  उन पर बहुत बिगड़ा था, ‘बाबूजी, आप तो बैठेबिठाए नुकसान करवा देते हैं. क्या जरूरत थी आप को  कारखाने में जा कर कीमत कम करवाने की?’

‘मैं ने तो उचित दाम ही लगाए थे, बेटा. वह नौकर बहुत ज्यादा  बिल बना रहा था.’

‘आप बिलकुल नहीं समझते, बाबूजी. इतना बड़ा कारखाना चलाना आज के जमाने में कितना मुश्किल काम है. अब कामगारों को वेतन कितना बढ़ा कर देना पड़ता है, जानते हैं आप? नई मशीन की किश्त हर माह देनी पड़ती है सो अलग. फिर आयकर भी इसी महीने में भरना है.’

उन की दृष्टि में ग्राहकों से मनमाना पैसा वसूल करने का यह कोई उचित तर्क नहीं था, लेकिन वह चुप ही रह गए.

एक बार वह बीमार पड़ गए थे. 2-3 महीने तक कारखाने नहीं जा सके. बस, तभी अचानक मुन्ना ने उन की गद्दी हथिया ली. फिर मुन्ना यह सिद्ध करने की कोशिश करने लगा कि वह व्यापार में उन से अधिक कुशल है.

जहां उन्हें ग्राहक से 4 पैसे वसूल करने में कठिनाई होती थी वहां मुन्ना बड़ी आसानी से 6 पैसे वसूल कर लेता था. उस ने बैंकों से ऋण ले कर अल्प समय में ही नई मशीनें मंगवा ली थीं. किस आदमी से कैसे काम लिया जा सकता है, इस काम में मुन्ना खुद को उन से कहीं अधिक दक्ष होने का दावा करता था.

जब वह स्वस्थ हो कर कारखाने पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कारखाने का शासन सूत्र मुन्ना अपने हाथों में दृढ़ता से थामे हुए है. एक बार हाथों में शासन सूत्र  आने के बाद कोई भी उसे सरलता से वापस नहीं करना चाहता.

अब मुन्ना कारखाने के तमाम कार्य अपनी मरजी से करता था. उन की ठीक सलाह भी उसे अपने मामलों में दखलंदाजी लगती थी. मुन्ना अकसर उन्हें एहसास दिलाता था, ‘बाबूजी, डाक्टर ने आप को पूरी तरह आराम करने के लिए कहा है. आप घर पर रह कर ही आराम किया करें. कारखाने का सारा कारोबार मैं संभाल लूंगा. आप बेकार उधर की चिंता किया करते हैं.’

जब उन की पत्नी इंदू जिंदा थी तो उस का भी यही विचार था. वह प्राय: कहा करती थी, ‘आज नहीं तो कल, मुन्ना को ही तो संभालना है कारखाना. वह व्यापार को बढ़ा ही रहा है, घटा तो नहीं रहा? वैसे भी अब लड़का बड़ा हो गया है. बाप का जूता उस के पैर में आने लगा है. उन्हें खुद आगे हो कर मुन्ना को कारोबार सौंप देना चाहिए. शास्त्रों के अनुसार आदमी को चौथेपन में सांसारिक झंझटों से संन्यास ले लेना चाहिए.’

और इस तरह बीमारी के दौरान अकस्मात ही उन की इच्छा के विरुद्ध कारखाने से उन का निष्कासन हो गया था.

उन्होंने एक नजर नाश्ते की प्लेट पर डाली. आज फिर घर का नौकर बड़ी उपेक्षा से उन के सामने सिर्फ मक्खन लगे स्लाइस रख गया था. उन के अंदर ही अंदर कुछ घुटने सा लगा था, ‘यह भी कोई नाश्ता है? बाजार से डबलरोटी मंगवाई और चुपड़ दिया उस पर जरा सा मक्खन.’

जब इंदू थी तब उन के लिए बीसियों तरह के तो लड्डू ही बनते थे घर में. मूंग के, मगज के, रवे के वगैरहवगैरह. मठरी, सेव और कई तरह के नमकीन भी परोसे जाते थे उन के आगे. पकवानों का तो कोई हिसाब ही नहीं था और अब मात्र मक्खन लगे डबलरोटी के टुकड़े.

वह खीज उठे और उठ कर सीधे अंदर गए, ‘‘बरसात में डबलरोटी क्यों मंगवाती हो, बहू? घर में ही कुछ मीठा या नमकीन बना लिया करो. कल जो डबलरोटी आई थी उस में फफूंद लगी हुई थी.’’

‘‘डाक्टर ने उन्हें अधिक घीतेल खाने की मनाही कर दी है. अगर आप को डबलरोटी पसंद नहीं है तो आप के लिए दूसरा इंतजाम हो जाएगा,’’ बहू ने रूखेपन से जवाब दिया.

दूसरे दिन उन के लिए जो नाश्ता लगाया गया वह होटल से मंगवाया गया था. एक प्लेट में बेसन का लड्डू तथा थोड़ा सा चिड़वा था. बरसात के कारण चिड़वा बिलकुल हलवा बन गया था. लड्डू बेशक स्वादिष्ठ था, परंतु उस में वनस्पति घी इतनी अधिक मात्रा में था कि खाने के बाद उन्हें बहुत देर तक खट्टी डकारें आती रही थीं.

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वह अपने हालात से परेशान हो कर कई बार सोचते थे कि त्रिवेणी उन के पास रहती तो बड़ा सुविधाजनक होता. वह उन के खानेपीने का कितना खयाल करती थी. भैयाभैया कहते उस की जबान नहीं थकती थी.

सच  पूछो तो अपनी पत्नी इंदू की मौत का आघात वह उसी के सहारे सहन कर गए थे. त्रिवेणी के रहते उन्हें कभी एकाकीपन का एहसास नहीं सालता था.

सब से बड़ी बात यह थी कि तब मुन्ना के उपेक्षित रूखेपन, बहू की अपमानजनक तेजमिजाजी और नाती- नातिनों की बदतमीजियों की ओर उन का ध्यान ही नहीं जाता था. वह तो त्रिवेणी को भेजना ही नहीं चाहते थे, लेकिन बहू ने मुन्ना के ऐसे कान भरे कि उस का घर में रहना असंभव कर दिया.

एक दिन वह शाम की सैर को पार्क की दिशा में जा रहे थे कि मुन्ना ने कार उन के सामने रोक दी, ‘‘आइए, बाबूजी, मैं छोड़ दूं आप को पार्क तक.’’

वह कहना चाहते थे, ‘भाई, पार्क है ही कितनी दूर? मैं घूमने ही तो निकला हूं. खुद चला जाऊंगा,’ पर चाह कर भी कुछ न बोल सके और चुपचाप कार में बैठ गए.

 

भला उन्हें कौन सा काम था?

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फादर्स डे स्पेशल: चौथापन -भाग 2
सुबह की चाय के लिए भी तरस जाते थे. वह बारबार बच्चों द्वारा बहू के पास संदेश भेजते रहते, पर वह संदेश अकसर बीच में ही गुम हो जाता था. थक कर वह खुद रसोईघर के द्वार पर जा कर दस्तक देते.





मुन्ना ने जोर से कार का दरवाजा बंद किया. फिर कार चल दी. मुन्ना ने अचानक पूछ लिया, ‘‘बाबूजी, बूआ यहां कब तक रहेंगी?’’

वह चौंके, ‘‘क्यों बेटा? उस से तुम्हें क्या तकलीफ है?’’

‘‘तकलीफ की बात नहीं है, बाबूजी. मां के मरने पर बूआजी आईं तो फिर वापस गईं ही नहीं.’’

‘‘वह तो मैं ही उसे रोके हुए हूं बेटा. फिर उस पर ऐसी कोई बड़ी जिम्मेदारी अभी नहीं है. सो वह हमारे यहां ही रह लेगी.’’

‘‘लेकिन हम उन की जिम्मेदारी कब तक उठाएंगे? उन के अपने बेटाबहू हैं. उन्हें उन के पास ही रहना चाहिए. फिर वह यहां तरीके से रहतीं तो कोई बात नहीं थी पर वह तो हमेशा आप की बहू ममता पर रोब गांठती रहती हैं.’’

मुन्ना के शब्दों ने ही नहीं उस के स्वर ने भी उन्हें आहत कर दिया था. वह जानते थे कि त्रिवेणी पर लगाया गया आरोप झूठा है. आखिर त्रिवेणी उन की एकमात्र बहन है. वह उसे बचपन से जानते हैं. ममता उस के विषय में ऐसी बात कह ही नहीं सकती थी. लेकिन वह चाह कर भी मुन्ना से अपना विरोध प्रकट नहीं कर सके थे. वह जानते थे कि मुन्ना और बहू अब त्रिवेणी को घर में शांति से नहीं रहने देंगे. उसी को ले कर हर समय कलह मची रहेगी. बातबात पर त्रिवेणी को अपमानित किया जाता रहेगा. वह यह ज्यादती सहन नहीं कर सकेंगे. इसीलिए उन्होंने त्रिवेणी को भेज दिया था.

त्रिवेणी चली गई थी. जिस दिन वह गई, उस दिन उन्हें ऐसा लगा मानो इंदू की मौत अभीअभी हुई हो. कितने ही दिनों तक वह अनमने से रहे थे. अब उन्हें पूछने वाला कोई न था. सुबह की चाय के लिए भी तरस जाते थे. वह बारबार बच्चों द्वारा बहू के पास संदेश भेजते रहते, पर वह संदेश अकसर बीच में ही गुम हो जाता था. थक कर वह खुद रसोईघर के द्वार पर जा कर दस्तक देते. जवाब में बहू का तीखा स्वर सुनाई देता, ‘‘आप को चाय नहीं मिली? अंजू से कहा तो था मैं ने. ये बच्चे ऐसे बेहूदे हो गए हैं कि बस… अकेला आदमी आखिर क्याक्या करे? मैं तो काम करकर के मर जाऊंगी, तब ही शांति मिलेगी सब को.’’

वह अपराधी की तरह मुंह लटकाए अपने कमरे में लौट आते थे.

भोजन के समय भी अकसर ऐसा ही तमाशा होता था. कई बार उन के मुंह का कौर विष बन जाता था. पर उस जहर को निगल लेने की मजबूरी उन की जिंदगी की विडंबना बन गई थी.

सुबह के समय वह कितनी ही देर तक गरम पानी के अभाव में बिना नहाए बैठे रहते थे. अब त्रिवेणी तो घर में थी नहीं कि सुबह जल्दी उठ कर गीजर चला देगी. बहू उठती थी पूरे 7 बजे के बाद और नौकर 8 बजे तक आता था.

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जब तक पानी गरम होता था, स्नानघर में पहले ही कोई दूसरा व्यक्ति स्नान के लिए घुस जाता था. भला उन्हें कौन सा काम था? उन के जरा देर से नहाने से कौन सा अंतर पड़ जाता. बहू, बच्चे, मुन्ना सब को जल्दी थी, सब कामकाजी आदमी थे. बस, वही बेकार थे.

वह इंतजार में इधरउधर टहलते हुए बारबार नौकर से पूछते रहते थे, ‘‘गोपाल, क्या स्नानघर खाली हो गया?’’

‘‘स्नानघर खाली हो जाएगा तो मैं खुद बता दूंगा आप को, दादाजी,’’ नौकर भी मानो बारबार एक ही प्रश्न पूछे जाने पर उकता कर कह देता था.

और केवल नहानेखाने की ही तो बात नहीं थी. घर की हर गतिविधि में उन्हें पंक्ति के सब से आखिर में खड़ा कर दिया जाता था. घर में उन के दुखसुख का साथी कोई नहीं था.

एक दिन अचानक उन के सिर में भयंकर पीड़ा होने लगी. बड़ा नाती मुकेश कमरे में अपना बल्ला रखने आया. उन्होंने उसे पकड़ कर चापलूसी की, ‘‘बेटे, जरा मेरा सिर तो दबाना. बड़ा दर्द हो रहा है.’’

मुकेश ने अनिच्छा से 2-4 हाथ सिर पर मारे और तत्काल उठ खड़ा हुआ. वह घबरा कर कराहे, ‘‘अरे बस, जरा और दबा दे.’’

‘‘मेरे हाथ दुखते हैं, दादाजी.’’

वह दंग रह गए. फिर दूसरे ही क्षण तमक कर बोले, ‘‘बूढ़े दादा की सेवा करने में तुम्हारे हाथ टूटते हैं? आने दे मुन्ना को.’’

मुकेश ढिठाई से मुसकराता हुआ चला गया. वह पड़ेपड़े मन ही मन कुढ़ते रहे थे. उन्हें अपना बचपन याद आने लगा था. वह कितनी सेवा करते थे अपने बाबा की. रोजाना रात को नियम से उन के हाथपैर दबाया करते थे. बाबा उन्हें अच्छीअच्छी कहानियां सुनाया करते थे.

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बाबा की याद आई तो उन्हें एहसास हुआ कि आज जमाना कितना बदल गया है. मजाल थी तब परिवार के किसी सदस्य की कि बाबा की बात को यों टाल देता.

भोजन के बाद मुन्ना उन के कमरे में आया. पूछा, ‘‘बाबूजी, सुना है, आप ने खाना नहीं खाया है आज?’’

‘‘इच्छा नहीं थी, बेटा. सिर अभी तक बहुत पीड़ा कर रहा है. शायद बुखार आ कर ही रहेगा.’’







फादर्स डे स्पेशल: चौथापन -भाग 3
न जाने कितनी रातें जागते हुए गुजार दी थीं. अब उस का रवैया देख कर लगता था कि उन्होंने कितना बड़ा भ्रम पाल लिया था.




वह मुकेश की गुस्ताखी की चर्चा करना चाहते थे, लेकिन कुछ सोच कर चुप रह गए थे. वह जानते थे कि मुन्ना सब कुछ सुन कर तपाक से कहेगा, ‘‘अरे बाबूजी, क्यों बच्चों के मुंह लगते हैं? नौकर से कह दिया होता. वह दबा देता आप का सिर.’’

लेकिन प्रश्न यह था कि क्या नौकर खाली बैठा रहता था उन के लिए? दूध लाओ, सब्जी लाओ, बच्चों को ट्यूशन पढ़ने के लिए छोड़ कर आओ, बहू और बच्चों के कमरे साफ करो, रसोई धोओ. हजार काम थे उस के लिए. वह भला उन का काम कैसे करता?

‘‘दर्द निवारक टिकिया मंगवाई थी न आप ने? 2 गोलियां एकसाथ खा लीजिए. तुरंत आराम आ जाएगा. मैं सुबह डाक्टर को बुलवा कर दिखवा दूंगा. अच्छा, मैं चलता हूं. अगर रात में ज्यादा तकलीफ हो तो हमें आवाज दे दीजिएगा,’’ कह कर मुन्ना चल दिया था.

मुन्ना के पहले उन की 2 बेटियां और थीं. वह सोचते थे कि बेटियां तो पराया धन होती हैं. दूसरे घर चली जाएंगी. उन का बेटा मुन्ना ही बुढ़ापे में उन की सेवा करेगा. उस की बहू आ जाएगी तो वह उन की सेवा करेगी. फिर नातीनातिन हो जाएंगे तो वे बाबाबाबा कहते हुए उन के आगेपीछे घूमेंगे. मुन्ना बचपन में आए- दिन बीमार पड़ जाता था. उन्होंने उस की बड़ी सेवा की थी और धन भी खूब लुटाया था. न जाने कितने दवाखानों की धूल छानी थी. न जाने कितनी मनौतियां मानी थीं. न जाने कितनी रातें जागते हुए गुजार दी थीं. अब उस का रवैया देख कर लगता था कि उन्होंने कितना बड़ा भ्रम पाल लिया था. वह भी कैसे पागल थे.

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उन का शरीर बुखार से तप रहा था. कुछ देर तक मुन्ना के कमरे से डिस्को संगीत का शोर और बच्चों के हंगामे की कर्णभेदी आवाजें आती रहीं और उन का सिर दर्द से फटता रहा. फिर खामोशी छा गई. कमरे के सन्नाटे में छत के पंखे की खड़खड़ाहट गूंजती रही. उन्हें लेटेलेटे बारबार यह खयाल सताता रहा कि बहू बेटे को उन से कोई हमदर्दी नहीं है. बहू ने तो एक बार भी आ कर नहीं पूछा उन की तबीयत के विषय में.

एकाएक उन्हें अपना गला सूखता सा महसूस हुआ. लो, कमरे में पानी रखवाना तो वह भूल ही गए थे. अब क्या करें? वह उस बुखार में उठ कर रसोई तक कैसे जा सकेंगे? अचानक उन की नजर शाम को पानी से भर कर खिड़की पर रखे गिलास पर गई. उन्होंने उठ कर वही पानी पी लिया.

वह मन की घबराहट को दूर करने के लिए खिड़की के पास ही खड़े हो गए और सूनी सड़क पर चल रहे इक्कादुक्का लोगों को देखने लगे. काश, वह उन्हें आवाज दे पाते, ‘‘आओ, भाई, मेरे पास बैठो थोड़ी देर के लिए. मेरा मन बहुत घबरा रहा है. कुछ अपनी कहो, कुछ मेरी सुनो.’’

सहसा वह पागलों की तरह हंस पड़े अपने पर. ‘अरे, जिसे छोटे से बड़ा किया, पढ़ायालिखाया, अपने जीवन भर की कमाई सौंप दी, वह बेटा तो चैन की नींद सो रहा है. भला ये अपरिचित लोग अपना काम- धंधा छोड़ कर मेरे पास क्यों बैठने लगे? वह फिर से पलंग पर आ कर लेट गए.’

उन्हें याद आया कि कैसे दिनरात मेहनत कर के उन्होंने कारखाना खड़ा किया था, किस तरह मशीनें खरीदी थीं, किस तरह कारखाने की नई इमारत तैयार की थी, धूप में घूमघूम कर, भूखेप्यासे रहरह कर, देर रात तक जागजाग कर वह किस तरह काम में लगे रहते थे. किस के लिए? मुन्ना के लिए ही तो. अपने परिवार के सुख के लिए ही तो? जिस में वह खुद भी शामिल थे.

अब कहां गया वह सुख? उन के परिवार ने क्या कीमत रखी है उन की या उन के सुख की? वह सब के सामने इतने दीनहीन क्यों बन जाते हैं? क्या वह मुन्ना की कमाई पर पल रहे हैं? क्यों खो दी उन्होंने अपनी शक्ति? नहीं, बहुत हो चुका, वह अब और नहीं सहेंगे.

वह आवेश में उठ कर बैठ गए. क्षण भर में ही उन का शरीर पसीने से लथपथ हो गया. दूसरे दिन सुबह मुन्ना सपरिवार नाश्ता कर रहा था, तभी गोपाल ने आ कर सूचना दी, ‘‘भैयाजी, नाश्ते के बाद आप को दादाजी ने अपने कमरे में बुलाया है.’’

मुन्ना ने नाश्ते के बाद उन के कमरे में जा कर देखा कि वह पलंग पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे हैं.

‘‘आओ, मुन्ना बैठो,’’ उन्होंने सामने पड़ी कुरसी की ओर संकेत किया. जाने कितने वर्षों के बाद उन्होंने उसे ‘मुन्ना’ कह कर एकदम सीधे संबोधित किया था.

‘‘कैसी तबीयत है आप की?’’

‘‘तबीयत तो ठीक है. मैं ने एक दूसरी ही चर्चा के लिए तुम्हें बुलवाया था.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘यहां इस घर में पड़ेपड़े अब मेरा मन नहीं लगता. स्वास्थ्य भी बिगड़ता रहता है. बेकार पड़ेपडे़ तो लोहा भी जंग खा जाता है, फिर मैं तो हाड़मांस का आदमी हूं. मैं चाहता हूं कि घर से निकलूं और…’’

‘‘इन दिनों मैं भी यही सोच रहा था, बाबूजी,’’ मुन्ना ने उन की बात पूरी होने से पहले ही उचक ली और बड़े निर्विकार भाव से बोला, ‘‘आप का चौथापन है. इस उम्र में लोग वानप्रस्थी हो जाते हैं, घरसंसार को तिलांजलि दे देते हैं. आप भी हरिद्वार चले जाइए और वहां किसी आश्रम में रह कर भगवान की याद में बाकी जीवन बिता दीजिए.’’

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सुनते ही उन्हें जोरों का गुस्सा आ गया. वह क्रुद्ध शेर की तरह गरज उठे, ‘‘मुन्ना, क्या तू ने मुझे उन नाकारा और निकम्मे लोगों में से समझ लिया है, जिन के आगे अपने जीवन का कोई महत्त्व ही नहीं है. अभी मेरे हाथपांव चलते हैं. दुनिया में बहुत से अच्छे काम हैं करने के लिए. मैं घर में निठल्ला नहीं पड़ा रहना चाहता. घर से बाहर निकल कर समाज- सेवा करना चाहता हूं.’’

‘‘तो फिर कीजिए समाजसेवा. किस ने रोका है?’’

‘‘हाथपैरों से तो करूंगा ही समाज- सेवा, मगर उस के लिए कुछ धन भी चाहिए, इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम कम से कम 1 हजार रुपए महीना मुझे जेब- खर्च के तौर पर देते रहो.’’

मुन्ना के कान खड़े हो गए, ‘‘1 हजार रुपए, किसे लुटाएंगे इतने पैसे आप?’’

हमेशा की तरह वह कमजोर नहीं पड़े, झुके भी नहीं, बल्कि वह मुन्ना से आंखें मिला कर बोले, ‘‘इस से तुम्हें क्या? त्रिवेणी को भी मैं अपने साथ रखना चाहता हूं. दे सकोगे न तुम मुझे मेरा खर्च?’’

‘‘कैसे दे पाऊंगा, बाबूजी, इतना पैसा? अभी जो मुंबई से नई मशीन मंगवाई हैं, उस का पैसा भी भेजना बाकी है.’’

‘‘तुम खुद मुझे इन झगड़ों से दूर कर चुके हो. यह देखना तुम्हारा काम है. मैं भी कोई मतलब नहीं रखना चाहता कारोबारी बखेड़ों से. मैं इतना जानता हूं कि यह कारखाना मेरा है और मैं चाहूं तो इसे बेच भी सकता हूं या किसी के भी सुपुर्द कर सकता हूं, लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहता. मेरा तो इतना ही कहना है कि जब तुम लोगों के खर्च के लिए हजारों रुपए महीना निकल सकते हैं तो क्या मेरे लिए 1 हजार रुपए महीना भी आसानी से नहीं निकल सकते? आखिर मैं ने भी बरसों कारखाना चलाया है और अभी भी चलाने की हिम्मत रखता हूं. तुम से नहीं संभलता तो मुझे सौंप दो फिर से.’’

मुन्ना कोई उत्तर नहीं दे सका. वह सिर झुकाए बैठा रहा. कमरे का वातावरण बोझिल हो चला था. फिर मुन्ना ने ही धीरे से कहा, ‘‘अच्छा होता, बाबूजी, आप हरिद्वार…’’

‘‘नहीं, बेटा, मैं जिंदा इनसान हूं. कोई मुरदा नहीं कि हरिद्वार जा कर किसी आश्रम की कब्र में दफन हो जाऊं या घर में समाधि ले कर बैठा रहूं. तुम अपने ढंग से जीना चाहते हो, तो मैं अपने ढंग से.’’

‘‘अच्छा,’’ मुन्ना उठ कर बाहर जाने लगा. उन्होंने उन्नत मस्तक को उठा कर देखा कि वह अब भी सिर नीचा किए कमरे से बाहर जा रहा था.

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