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Social Kahani in Hindi Wah Rah Jis Ki Koi Manjil Nhi Kahani In Hindi: 'वह राह जिस की कोई मंजिल नहीं' : भाग 1 HindiShayariH

 ( वह राह जिस की कोई मंजिल नहीं Kahani Hindi me) निकलते समय बात हुई थी कि दिन में एक बार जरूर बात करेगा, पर यह लड़का... नंदू को थोड़ी चिंता हुई, अश्वित कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया?
वीरेंद्र बहादुर सिंह
 
 
 
वह राह जिस की कोई मंजिल नहीं Kahani 1 OF 2
वह राह जिस की कोई मंजिल नहीं'



बस में झटका लगा, तो नंदू की आंखें खुल गईं. उस ने हाथ उठा कर कलाई में बंधी घड़ी देखी, “अरे, अभी तो 2 ही बजे हैं. बस तो दिल्ली सुबह साढ़े 7 बजे तक पहुंचेगी. अगर बस पंख लगा कर उड़ जाती, तो यह 5 घंटे का सफर 5 मिनट में कट जाता. तब कितना अच्छा होता.”

घर छोड़े आज पूरे 22 दिन हो गए हैं. पिछले एक सप्ताह से तो अश्वित से बात भी नहीं हुई है. पता नहीं क्या करता रहता है. न तो घर का ही फोन लग रहा है, न ही उस का मोबाइल.

निकलते समय बात हुई थी कि दिन में एक बार जरूर बात करेगा, पर यह लड़का… नंदू को थोड़ी चिंता हुई, अश्वित कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया? पर बीमार होता तो फोन तो लगना चाहिए था. एकदम बेवकूफ लड़का है. नंदू को सहज ही गुस्सा आ गया. उस ने बस में नजर फेरी, हलकी रोशनी में बस की सवारियां गहरी नींद में सो रही थीं. उस ने खिड़की से बाहर की ओर देखा, दुनिया जैसे गहरे अंधकार में डूबी थी. वैसा ही अंधकार उस के जीवन में भी तो समाया हुआ था.

मां की मौत के बाद ही रंजनाजी से उस की मुलाकात हुई थी. रंजना उस समय अश्वित के जन्म के लिए इलाहाबाद अपने मायके आई हुई थीं. रंजना के मायके में नंदू की मामी काम करने आती थी.

मां की मौत के बाद नंदू के मामा उसे अपने घर ले आए थे. उस समय नंदू की उम्र 14-15 साल रही होगी.

रंजनाजी उसे बहुत अच्छी लगती थीं. जब कभी वह रंजना के पास बैठती, रो पड़ती. उस की मां को मरे हुए अभी 6-7 महीने ही हुए थे. मामी के साथ रहना उसे अच्छा नहीं लगता था. दूसरा कोई सगा रिश्तेदार था नहीं. सारे रास्ते बंद हो गए थे. ऐसे में रंजनाजी उस का सहारा बनीं.

बच्चा पैदा होने के बाद जब वह दिल्ली आने लगीं, तो अश्वित के साथ नंदू को भी ले आई थीं.

नंदू दिल्ली का नजारा देख कर दंग रह गई. चौड़ीचौड़ी सड़कें, ऊंचेऊंचे मकान, कतारों में बड़ीबड़ी दुकानें, तमाम मोटरगाड़ियां और रंजना का शहर में उतना बड़ा घर. 5 कमरे नीचे और 4 कमरे ऊपर. उस ने पूछा, ‘‘दीदी, आप यहां अकेली रहती हैं?’’

‘मैं अकेली नहीं, हम दोनों रहते हैं. मैं और तुम्हारे साहब.’’

‘‘सिर्फ 2 लोग. और इतना बड़ा घर…?’’

‘‘पर, अब तो हम 4 लोग हो गए हैं ना.’’

‘‘तो भी तो यह बहुत बड़ा घर है…’’

यह सुन कर रंजनाजी हंस पड़ीं. नंदू को यह घर और दिल्ली, दोनों बहुत अच्छे लगे. धीरेधीरे रंजना ने उसे घर के कामकाज और खाना बनाना सिखा दिया. फिर तो जल्दी ही नंदू ने घर का सारा कामकाज संभाल लिया.

प्रबोधजी उसे प्रेम से रखते थे. फुरसत पाते तो उसे थोड़ाबहुत पढ़ातेलिखाते भी. अश्वित तो पूरी तरह नंदू के सहारे हो गया था. नंदू को भी वह बहुत प्यार करता था. वह जरा भी रोता, नंदू सारे काम छोड़ कर उस के पास आ जाती.

नंदू ने एक बार फिर कलाई पर बंधी घड़ी देखी, ‘यह सूई आगे क्यों नहीं बढ़ रही है?’ उस ने पैर फैलाए. पैर अकड़ गए थे. पीछे सीट पर कोई बच्चा रोया, पर थोड़ी ही देर में शांत हो गया. शायद उस की मां ने थपकी दे कर उसे सुला दिया था.

अश्वित की भी तो ऐसी ही आदत थी. कोई थपकी देता, तभी वह सोता था. और थपकी देने के लिए अकसर नंदू ही आती थी. नींद आती तो वह उस का हाथ पकड़ कर बिस्तर पर ले जाता, ‘‘नंदू थपकी दो न.’’

पूरा दिन नंदू के पीछेपीछे घूमता रहता, ‘‘नंदू नहलाओ, खाना खिलाओ, कपड़े पहनाओ. नंदू मैथ की नोटबुक नहीं मिल रही है. नंदू यहां तो मेरा एक ही मोजा है, दूसरा कहां गया?’’

यही नहीं, कभीकभी नंदू खाना बना रही होती, तो वह आ कर कहता, ‘‘नंदू खेलने चलो न.’’

‘‘कैसे खेलने चलूं? मैं खाना बना रही हूं न.’’

‘‘मम्मी हैं न, वह खाना बनाएंगी. तुम चलो.’’

‘‘जाओ, मम्मी के साथ खेलो, मुझे खाना बनाने दो.’’

‘‘नहीं, उन्हें बौल फेंकना नहीं आता, तुम चलो,’’ एक हाथ में बौल और कंधे पर बैट रखे, जींस और चेक  की शर्ट पहने, पैर पटकते हुए अश्वित की तसवीर नंदू अभी भी जस का तस बना सकती थी.

रंजनाजी हमेशा खीझतीं, ‘‘नंदू, तुम इस की हर जिद मत पूरी किया करो. देखो न, यह जिद्दी होता जा रहा है.’’

नंदू हंस देती. अश्वित रोआंसा हो कर कहता, ‘‘मम्मी, मैं आप से कहां जिद करता हूं. मैं तो नंदू से जिद करता हूं.’’

‘‘मैं देखती नहीें कि हर बात में जिद करता है. जो चाहता है, वही करवाता है.’’

‘‘हां, नंदू से मैं जो चाहूंगा, वही करवाऊंगा.’’

रंजना नंदू को डांटतीं, ‘‘तुम ने इसे बिगाड़ कर रख दिया है. याद रखना, एक दिन पछताओगी.’’

रंजनाजी की बात आखिर इतने दिनों बाद सच निकली. धीरेधीरे वह जिद्दी होता चला गया. आज इतना बड़ा हो गया, फिर भी मन में जो आ गया, वही करवाता है. नंदू के लिए चारधाम की इस यात्रा का पैसा उस ने जिद कर के ही जमा किया था. नंदू ने कितनी बार मना किया, पर वह कहां माना. उस ने कहा,

‘‘नहीं, तुम चारधाम की यात्रा कर आओ. शायद फिर नहीं जा पाओगी.’’

‘‘पर, मैं इस घर और तुम्हें किस के भरोसे छोड़ कर जाऊं? तुम्हारी शादी के बाद…”

“फालतू बात मत करो, अब मैं छोटा नहीं हूं. तुम जाओ. 20-22 दिन तो ऐसे ही बीत जाएंगे.’’


वह राह जिस की कोई मंजिल नहीं Kahani2 OF 2
वह राह जिस की कोई मंजिल नहीं'


वह राह जिस की कोई मंजिल नहीं: भाग 2
इस बीच कितने साल बीत गए. ये बीते साल उस का कितनाकुछ ले गए. नंदू के बाल, अब उन्हें काले रखने की कितनी कोशिश करनी पड़ती है.





नंदू मना करती रही, पर वह माने तब न? आखिर अश्वित पैसा जमा ही कर आया. फिर तो नंदू को चारधाम की यात्रा पर जाना ही पड़ा. ‘बड़ा जिद्दी है,’ नंदू के मुंह से एकाएक निकल गया. बगल वाली सीट पर बैठी महिला ने उस की ओर चौंक कर देखा, पर तब तक उस ने आंखें बंद कर ली थीं. आंखें बंद किए हुए ही नंदू सोचने लगी, ‘इस समय वह क्या कर रहा होगा? इस समय तो सो रहा होगा, और क्या करेगा.’

नंदू का वेतन प्रबोधजी सीधे उस के बैंक खाते में पूरा का पूरा जमा कर देते थे. खर्च के लिए ऊपर से सौ,

दो सौ रुपए दे देते थे. वह पैसा अश्वित अपने क्रिकेट, बौल, खिलौनों और चौकलेट पर उड़ा देता था.

रंजना बड़बड़ातीं, ‘‘तू नंदू का पैसा क्यों खर्च करता है? तुझे जरूरत हो, तो मुझ से मांग.’’

‘‘आप मुझे जल्दी कहां पैसा देती हैं. पचास सवाल करती हैं. नंदू तो तुरंत पैसा दे देती हैं.’’

‘‘पर, तुम नंदू का पैसा इस तरह खर्च करते हो, यह अच्छा नहीें लगता.’’

‘‘क्यों अच्छा नहीं लगता?’’
 
 
 
 
 
 
 
 

‘‘यह लड़का तो…’’ रंजनाजी सिर पीट लेतीं.

ऐसा नहीं था कि रंजनाजी नंदू के बारे में कुछ नहीं सोचती थीं. न जाने कितनी बार उन्होंने नंदू से शादी के लिए कहा था, पर नंदू ने हमेशा सिर झटक दिया था, ‘‘अब यही मेरा घर है और आप ही लोग मेरे सबकुछ हैं. अब मुझे शादी नहीं करनी. मेरा जीवन इसी घर में कटेगा.’’

‘‘भला इस तरह कहीं होता है नंदू? शादी तो करनी ही पड़ेगी,’’ रंजना उसे समझाने की कोशिश करतीं, पर नंदू उन की बात पर ध्यान न देती.

प्रबोधजी ने नंदू के मामा से भी उस की शादी के लिए कहलवाया, पर उस ने कोई जवाब नहीें दिया.

आखिर एक दिन रंजनाजी ने कहा, ‘‘नंदू, अब तू 28 साल की हो गई है. कब तक शादी के लिए मना करती रहेगी. अंत में बैठी रह जाएगी इसी घर में, कोई नहीं मिलेगा.’’

‘‘पर, मुझे शादी करनी ही कहां है.’’

‘‘आखिर क्यों नहीं करनी शादी? तू जहां कहे, हम वहां कोशिश करें. मैरिज ब्यूरो में, तेरी जाति में, तू जहां कहे, वहां. तू कहे, तो एक बार इलाहाबाद चलते हैं. अब तुम 5 साल बाद कहोगी तो…”

“मैं कभी नहीं कहने वाली. पांच साल ही नहीं, पचास साल बाद भी नहीं, बस.’’

28 साल… उस समय नंदू 28 साल की थी और इस समय अश्वित भी 28 साल का है.

इस बीच कितने साल बीत गए. ये बीते साल उस का कितनाकुछ ले गए. नंदू के बाल, अब उन्हें काले रखने की कितनी कोशिश करनी पड़ती है. आंखें बिना चश्मे के कुछ पढ़ ही नहीं पातीं. अश्वित के हाथों में स्कूल बैग की जगह लैपटाप आ गया है. उछाल मारती समुद्र की लहरों जैसी उस की सहज प्रवृत्ति शांत हो कर पैसा कमाने की ओर घूम गई है. और रंजनाजी व प्रबोधजी? वे अब कहां हैं? समय का बहाव दोनों को बहा ले गया. प्रबोधजी की अचानक हार्टअटैक से मौत हो गई. रंजनाजी पति की मौत के गम को सहन न कर सकीं और 3 महीने बाद ही एक सुबह बिस्तर पर मरी हुई मिलीं. मां की मौत के बाद अश्वित का इंजीनियरिंग का रिजल्ट आया. उस दिन दोनों खूब रोए. अश्वित का रोना बंद ही नहीं हो रहा था. नंदू ने किसी तरह उसे चुप कराया.

इंजीनियरिंग का रिजल्ट आने के बाद एक दिन सुबहसुबह अश्वित नंदू के पास आया, ‘‘नंदू, अब मैं आगे क्या करूं?’’

‘‘क्या करना चाहते हो तुम?’’

‘‘मैं एमबीए करना चाहता हूं.’’

‘‘तो करो न, कौन मना करता है. जितना पढ़ना हो, पढ़ो.’’

‘‘हां, पर अब पापामम्मी नहीं हैं, इसलिए…  नंदू, मैं पैसों की बात कर रहा हूं. मैं जिस इंस्टीट्यूट से एमबीए करना चाहता हूं, उस की फीस ज्यादा है. अगर हम जमा पैसे से फीस भर देते हैं, तो घर के खर्च का क्या होगा?’’

दो पल नंदू ने सोचा. फिर अंदर गई और अपनी पासबुक ला कर बोली, ‘‘इस में जितने पैसे हैं, उतने में हो जाएगा.’’

अश्वित ने पासबुक ले कर देखा, ‘‘हां, हो जाएगा, पर यह तो तुम्हारा पैसा है.’’

‘‘अब तुम्हारा पैसा और मेरा पैसा क्या…? सब एक ही है. ये सब तुम्हारा ही तो है. तुम यह लो, अच्छी नौकरी मिल जाएगी, उस के बाद कोई चिंता ही नहीं रहेगी. जाओ, अपनी फीस भर दो.’’

खुश हो कर अश्वित ने नंदू को गोद में उठा लिया.

‘‘छोड़ो मुझे… अरे, गिर जाऊंगी.’’

नंदू ने बस की अगली सीट पर लगे हैंडिल को पकड़ लिया, ‘ओह, क्याक्या याद आ रहा है.’


उस ने एक बार फिर घड़ी देखी. बस, 2 ही घंटे बचे हैं. पहुंचते ही उस के कान पकड़ूंगी, ‘कहीं इस तरह लापरवाही की जाती है. एक तू ही नौकरी करता है.’ जब से उस की नौकरी लगी है, एक भी दिन मेरे पास नहीं बैठा. पूरे दिन नौकरी, घर आता है, तो लैपटाप और मोबाइल फोन. न खाने का ध्यान, न सोने का. यह भी कोई जिंदगी है. मुझे तो लगा था, एमबीए हो गया, पढ़ाई खत्म हो गई. पर राम जाने यह कितनी परीक्षाएं देता रहता है. और कंपनी वाले भी कैसे हैं. कहीं बाहर का कोई काम होगा, तो उसे ही भेजते हैं. अभी जल्दी ही 2 बार मुंबई भेजा. शायद उन्हें पता है कि अश्वित अकेला है. शादी नहीं हुई है. इसलिए उसे ही भेजते हैं. कहीं ऐसा होता है.

अब तो इसे खूंटे से बांधना ही पड़ेगा. लोग कहते होंगे कि मांबाप नहीं हैं, इसलिए छुट्टा सांड़ की तरह घूम रहा है. आखिर कौन ध्यान दे? पर जब भी उस से शादी की बात करो, वह सिर झटक देता है. रमाजी कई बार अपनी बेटी के लिए कह चुकी हैं. लड़की डाक्टर है. अच्छा घर है. फिर क्या दिक्कत है. पर ये महादेव माने तब न. 28 साल के हो गए हैं, पर अक्ल नहीं है. कभी घर का भी खयाल नहीं रहता. यह भी पता नहीं है कि रात को कितने ताले लगाने पड़ते हैं. इतना बड़ा घर और वह अकेला. रात में चार आदमी घुस आएं तो क्या कर लेगा? मैं भी बेकार उतावली हो कर के चली आई. उस की तो जिद करने की आदत है.

मुझे तो समझना चाहिए था. फोन भी नहीं लग रहा है. हे भगवान, रक्षा करना. आखिर यह बात पहले दिमाग में क्यों नहीं आई, वरना मैं कतई न आती. उस की अच्छी नौकरी के लिए ही तो मन्नत मांगी थी. उसे पूरी करने के लिए ही तो आप के धाम आई थी. अब घर पहुंच कर उस का मुंह देख लूंगी, तभी मन को शांति मिलेगी. 2, घंटे की ही तो बात है. किसी तरह ये भी बीत जाएं. नंदू ‘शिव शरणं मम’ का जाप करने लगी.

साढ़े 7 बजे के करीब बस दिल्ली पहुंची. आटोरिकशा घर के सामने आ कर रुका, तो दिल को कुछ तसल्ली मिली. धारती के एक छोर पर? कुछ गलत तो नहीं कहा. अभी तो वह सोता होगा. मैं आऊंगी उसे याद ही कहां होगा. मुझे देख कर चौंक जाएगा. क्या कहते हैं उसे, हां सरप्राइज. फिर वह खुश हो कर कहेगा, ‘‘अच्छा हुआ नंदू तुम आ गईं. तुम्हारे बिना तो यार मजा ही नहीं

आता था. चलो अब कड़क चाय और कुछ गरमागरम नाश्ता बनाओ. तुम्हारे जाने के बाद से तो कुछ अच्छा खाने को नहीं मिला. पर तुम गईं ही क्यों? मैं जो भी कहूं, तुम करने को तैयार हो जाती हो. मैं जिद्दी हूं, यह तो तुम्हें पता ही है.’’

इसी तरह अश्वित न जाने क्याक्या बड़बड़ाएगा. यही सोचतेसोचते नंदू ने गेट खोला. देखा तो पेड़ों में पानी तक नहीं डाला था. सारे गुलाब सूख रहे हैं. कितना कहा था कि माली को आने दो, अभी उसे पैसे मत दो. पेड़ों को देखते हुए नंदू ने डोरबेल पर उंगली रख दी. एक मिनट तक मधुर लय में घंटी बजती रही. थोड़ी देर में दरवाजा खुला. दरवाजे के बीच एक सुंदर युवती खड़ी थी. उस ने पूछा, ‘‘बहनजी, आप को किस से मिलना है?’’

‘‘अश्वित… और आप?’’ नंदू उसे देख कर हैरान रह गई. कि यह कौन है?

‘‘अश्वित तो… आप कौन?’’

‘‘मैं नंदू.’’

‘‘ओह, नंदूजी, आइए… आइए, अंदर आइए,’’ रास्ता देते हुए उस ने कहा.

वहीं खड़ेखड़े नंदू ने सामने कमरे में नजर दौड़ाई. उस का प्रिय पीतल की जंजीर वाला झूला, वह कढ़ाई वाला सोफा, रंजनाजी की आराम कुरसी, प्रबोधजी की बनाई पेंटिंग? अश्वित की बड़ी सी फोटो, कुछ दिखाई नहीं दे रहा? वह दरवाजे के पास खड़ी हो गई.

‘‘अंदर आइए नंदूजी, आप तो चारधाम की यात्रा पर गई थीं?’’ कहते हुए वह युवती अंदर गई. सकुचाते हुए नंदू कमरे में पड़े सोफे पर एक कोने में बैठ गईं. ‘यह क्या, यह लड़की कौन है, अश्वित कहां है? उसे कुछ पता नहीं.’ तभी वह युवती ट्रे में एक गिलास पानी और एक लिफाफा ले कर आई. ट्रे सेंट्रल टेबल पर रख कर उस ने कहा, ‘‘अश्वित तो पिछले शुक्रवार को ही चले गए हैं. आप उन के यहां काम करती थीं न?

उन्होंने बताया था. आप के लिए वह यह चिट्ठी छोड़ गए हैं,’’ इतना कह कर उस ने लिफाफा नंदू की ओर बढ़ाया.

लिफाफा ले कर नंदू ने कांपते हाथों से खोला. उस में लिखा था, ‘नंदू, मैं अमेरिका जा रहा हूं. मुझे वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल गई है. मैं तुम से इसलिए बिना मिले जा रहा

हूं, क्योंकि मिलने पर तुम मुझे जाने न देती. अब कब वापस आऊंगा, यह निश्चित नहीं है. मकान की अच्छी कीमत मिल गई थी, इसलिए इसे बेच दिया है. तुम ने मेरी एमबीए की पढ़ाई के लिए 12 लाख रुपए दिए थे. उस में 7 लाख रुपए मिला कर 20 लाख रुपए तुम्हारे खाते में जमा कर दिए हैं. पासबुक चिट्ठी के साथ ही है. देख लेना. अमेरिका का मेरा पता और फोन नंबर मेरे दोस्त अमित के पास है. तुम उस से ले लेना. अगर कभी किसी तरह की मदद की जरूरत हो तो जरूर कहिएगा. -अश्वित.’

दो पल के लिए नंदू वहां बैठी रही. फिर धीरे से उठी और अपना सामान ले कर गेट के बाहर आ गई. आगे बढ़ते हुए उस ने पलट कर देखा, क्या यही उस का घर था. वह उस राह पर बढ़ गई, जिस की कोई मंजिलनहीं थी.




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