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Latest Hindi Kahani Laut Jao Amla

 दिग्विजय सिंह द्वारा लिखी गई कहानी लौट जाओ अमला
जिंदगी से बेजार हो कर खुद को तबाही की ओर ढकेल देना क्या समझदारी होगी? बेशक नहीं, लेकिन अमला कुछ ऐसा ही करने जा रही थी.

 दिग्विजय सिंह

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 दिग्विजय सिंह 

Hindi Kahani Laut Jao Amla 
सुपर फास्ट नीलांचल ऐक्सप्रैस से मैं दिल्ली आ रहा था. लखनऊ एक सरकारी काम से आया था. वैसे तो मैं उत्तर प्रदेश सरकार का नौकर हूं लेकिन रहता दिल्ली में हूं. दिल्ली स्थित उत्तर प्रदेश राज्य अतिथिगृह में विशेष कार्याधिकारी के पद पर कार्यरत हूं.

इस यात्रा के दौरान मेरे साथ कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुईं जिन्हें अप्रत्याशित कहा जा सकता है. मसलन, लखनऊ में मुझेजिन अधिकारी से मिलना था उन की पत्नी को जानलेवा दिल का दौरा पड़ गया. बेचारी पूरे 3 दिन तक जीवन और मृत्यु के बीच हिचकोले खाती हुई किसी तरह जीवित परिवार वालों के बीच लौट सकी थीं. वे अधिकारी भद्र पुरुष थे. पत्नी की बीमारी से फारिग होते ही उन्होंने पूरे 10 घंटे लगातार परिश्रम कर के मेरी उस योजना को अंतिम रूप प्रदान कर दिया जिस के लिए मैं लखनऊ आया था.

वापसी हेतु ऐन दशहरे के दिन ही मैं ट्रेन पकड़ सका. गाड़ी अपने निर्धारित समय पर लखनऊ से छूटी, लेकिन उन्नाव से पहले सोनिक स्टेशन पर वह अंगद के पांव की तरह अड़ गई. पता चला कि कंप्यूटर द्वारा संचालित सिग्नल व्यवस्था फेल हो गई है.

प्रथम श्रेणी के कूपे में मैं नितांत अकेला था. कानपुर पहुंचने से पहले ही मैं ने अपने थर्मस को नीबूपानी से भर दिया था. लगता था कि आज के दिन मुझेकोई सहयात्री नहीं मिलेगा. एक बार अच्छी तरह पढ़ी हुई पत्रिका को फिर पढ़ते हुए दिल्ली तक की यात्रा पूरी करनी पड़ेगी. वैसे मुझेपूरी उम्मीद थी कि मेरा बेटा कार ले कर मुझेलेने स्टेशन आएगा. मैं ने लखनऊ से ही उसे फोन कर दिया था कि मैं नीलांचल ऐक्सप्रैस से दिल्ली पहुंच रहा हूं.

खैर, सिग्नल पर हरी बत्ती जल चुकी थी और टे्रन ने बहुत हौले से रेंगना प्रारंभ किया ही था कि एक यात्री मेरे कूपे का दरवाजा खटखटाने लगा. मैं ने उठ कर शटर खोला. सामने एक छोटी सी अटैची थामे एक लड़की खड़ी हुई थी. गेहुआं रंग, लंबे, छरहरे बदन तथा सामान्य से कुछ अच्छे नैननक्श वाली इस लड़की को देख कर मुझेबड़ी निराशा हुई. सोचा, कोई आदमी होता तो उस के साथ बतियाते हुए दिल्ली तक का सफर आराम से कट सकता था.


लड़की ने सामने 2 नंबर की बर्थ पर अटैची रखते हुए मुझ से पूछा, ‘‘चाचाजी, अगर इजाजत हो तो मैं कूपे का दरवाजा बंद कर दूं?’’

अब चौंकने की बारी मेरी थी. टे्रन अब तक प्लेटफौर्म छोड़ कर काफी आगे निकल चुकी थी. मुझ में और इस लड़की की आयु में अच्छाखासा अंतर था. लगभग इसी आयु की मेरी बेटी संध्या का विवाह हो चुका था. फिर भी आदमी आदमी ही होता है और औरत औरत. उन के आदिम और मूल रिश्तों पर बिरलों का ही बस चलता है. इस रिश्ते के बाद के अन्य सभी रिश्ते आदमी ने बनाए हैं, लेकिन वह भी…

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‘‘यदि आप असुरक्षा न महसूस करें तो कूपे का दरवाजा बंद कर सकती हैं,’’ मैं ने उत्तर दिया.

लड़की धीरे से बुदबुदाई, ‘सुरक्षा, असुरक्षा वगैरह मैं बहुत पीछे अपने घर छोड़ आई हूं,’ फिर उस ने कूपे का दरवाजा बंद कर दिया तथा अपनी सीट से लगी खिड़की के बाहर झंकने लगी. लड़की मुझेकुछ परेशान, घबराई हुई सी लग रही थी. इस मौसम में कोई पसीना आने जैसी बात न थी, फिर भी वह रूमाल से माथे पर बारबार उभर रही पसीने की बूंदों को पोंछ रही थी.

गोविंदपुरी और पनकी स्टेशन निकल गए. लड़की ने अपना मुख मेरी ओर घुमाया. अब तक उस का पसीना काफी कुछ सूख चुका था.

‘‘चाचाजी, क्या मैं आप के थर्मस से थोड़ा सा पानी ले सकती हूं?’’

मैं ने उत्तर दिया, ‘‘उस में पानी नहीं है.’’

‘‘प्यास के मारे मेरा गला सूख रहा है.’’

‘‘बेटी, इस में सिर्फ नीबूपानी है.’’

‘‘अच्छा, थोड़ा सा दे दीजिए.’’

वह नीबूपानी का एक गिलास गटागट पी गई. 10 मिनट के बाद उस ने फिर थर्मस की ओर देखा. मैं ने उसे 1 गिलास भर कर और दिया, जिसे वह धीरेधीरे पीती रही. अब वह अपेक्षाकृत सामान्य दिखाई देने लगी थी.


‘‘दिल्ली में किस जगह पर जाना है तुम्हें?’’ मैं ने बात करने की गरज से पूछा.

‘‘आप ने कैसे जाना कि मैं दिल्ली जा रही हूं?’’

‘‘बड़ी आसानी से,’’ मैं ने सहजता के साथ उत्तर दिया, ‘‘यह टे्रन कानपुर से चल कर दिल्ली ही रुकती है.’’

‘‘ओह…’’

‘‘लेकिन तुम ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया, बेटी?’’

अब उस की ?िझक मिटने लगी थी. उस ने उत्तर दिया, ‘‘नहीं मालूम कि मुझेकहां, किस जगह जाना है.’’

‘‘और तुम अकेली सफर कर रही हो.’’

‘‘हां, दिल्ली मैं अपने जीवन में पहली बार जा रही हूं.’’

मुझेलगा कि कहीं कोई न कोई गड़बड़ जरूर है. यह लड़की शायद अपनेआप को किसी बड़े संकट में डालने जा रही है.

‘‘बेटी,’’ मैं ने स्पष्टवादिता से काम लेते हुए पूछा, ‘‘पहले बात को ठीक तरह से सम?ो, फिर जवाब दो. मैं कह रहा था कि यह टे्रन रात को करीब डेढ़ बजे दिल्ली पहुंचेगी और तुम्हें यह तक पता नहीं कि कहां जाओगी, किस के साथ रहोगी.’’


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‘‘नई दिल्ली स्टेशन पर राकेश मुझेलेने आएगा.’’

‘‘कौन राकेश?’’

‘‘राकेश मेरा प्रेम, मेरी जिंदगी, मेरा सबकुछ है.’’

‘‘तो तुम अपने घर से भाग कर आ रही हो?’’

फिल्मी संवाद की शैली में उस ने उत्तर दिया, ‘‘आप जो भी, जैसा भी चाहें निष्कर्ष निकाल सकते हैं. लेकिन मैं भाग कर नहीं जा रही हूं. मैं एक नया घर बनाने, एक नई जिंदगी शुरू करने जा रही हूं.’’

‘‘दिल्ली में नया घर, नई जिंदगी?’’ कुछ रुक कर मैं ने अगला सवाल किया, ‘‘तुम्हारी उम्र क्या है?’’

‘‘18 वर्ष और कुछ दिन. हाईस्कूल का प्रमाणपत्र है मेरे पास.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि तुम कानूनी कीलकांटे से पूरी तरह से लैस हो कर अपने घर से निकली हो. फिलहाल इस बात को जाने दो. यह बताओ, तुम पढ़ी कहां तक हो?’’

‘‘इंटरमीडिएट, प्रथम श्रेणी, मु?ो

3 विषयों में विशेष योग्यता मिली है.’’


‘‘अरे, तुम्हारे सामने चिकनी सड़क जैसा उज्ज्वल भविष्य फैला हुआ है. फिर तुम यह सब क्या करने जा रही हो?’’

‘‘चाचाजी, मुझेकोई प्यार नहीं करता, न पिताजी और न ही मां. दोनों की अपनी अलग दुनिया है…किटी, पपलू, ब्रिज, क्लब, देर रात तक चलने वाली कौकटेल पार्टियां. मेरे अलावा दोनों को सबकुछ अच्छा लगता है. उन दोनों की एकएक बात मैं अच्छी तरह से जानतीसमझती हूं. लेकिन घटिया बातें अपने मुंह से आप के सामने कहना क्या आसान होगा.

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‘‘चाचाजी, घर के नौकरों के साथ मैं ने अपना बचपन बिताया है. मेरे मातापिता या तो घर में होते ही नहीं हैं और यदि होते भी हैं तो अपनेअपने शयनकक्ष में सोए पड़े होते हैं. अब मैं कैसे कहूं कि मुझेबचपन में ही खराब, बहुत खराब हो जाना चाहिए था. यह करिश्मा ही है कि मैं आज तक ठीकठाक हूं.’’

अकस्मात मुझेलगा कि चारों तरफ फैलती जा रही शून्यता के बीच मेरी प्यारी बेटी संध्या मुझ से बातें कर रही है.

‘‘बेटी, तुम्हारा नाम जान सकता हूं?’’

‘‘अमला नाम है मेरा.’’

‘‘राकेश को कैसे जानती हो?’’

‘‘मेरे महल्ले का लड़का है. कालेज में मुझ से आगे था. एम ए कर चुका है.’’

‘‘वह करता क्या है?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘तो फिर दिल्ली में तुम दोनों खाओगे क्या, रहोगे कहां? मैं तो समझ था कि राकेश दिल्ली में कोई नौकरी करता होगा. उस के पास रहने का अपना कोई ठिकाना होगा.’’

‘‘दिल्ली में हम सिलेसिलाए कपड़ों का व्यवसाय करेंगे. सुना है कि दिल्ली में यदि अच्छे संपर्कसूत्र बन जाएं तो विदेशों में तैयार वस्त्र निर्यात कर के लाखों के वारेन्यारे किए जा सकते हैं.’’

‘‘ठीक सुना है तुम ने बेटी,’’ मेरा मन भीग चला था, ‘‘जरूर लाखों के वारेन्यारे किए जा सकते हैं यदि संपर्कसूत्र अच्छा हो जाए तो. लेकिन संपर्कसूत्र का अर्थ जानती हो तुम?’’


‘‘हां, क्यों नहीं. संपर्कसूत्र बढ़ने का अर्थ है, लोगों से जानपहचान हो जाना.’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने कठोरता से कहा, ‘‘कभीकभी इस शब्द के अर्थ बदल भी जाते हैं यानी शून्य अर्जित करने के लिए अपनेआप को अकारण मिटा डालना. एक ऐसी नदी बन जाना जिस का उद्गम तो होता है किंतु कोई सम्मानजनक अंत नहीं होता.’’

गाजियाबाद स्टेशन निकल चुका था. हम दिल्ली के निकट पहुंच रहे थे. मैं बहुत असमंजस की स्थिति में था. मैं अमला से कुछ कहना चाहता था, लेकिन क्या कहना चाहता था, क्यों कहना चाहता था, इस की कोई साफ तसवीर उभर कर मेरे मस्तिष्क में नहीं आ रही थी.

‘‘लेकिन बेटी, व्यापार के लिए धन चाहिए. कितना रुपया होगा तुम लोगों के पास?’’

‘‘राकेश के पास क्या है, एक तरह से कुछ भी नहीं,’’ अमला ने उत्तर दिया, ‘‘वह कह रहा था कि मैं अपनी मां के कुछ जेवर तथा पिताजी की सेफ से व्यापार लायक कुछ रुपए ले चलूं. आखिर बाद में वह सबकुछ मेरा और बड़े भैया का ही तो होगा. कल मिलने वाली चीज को आज ले लेने में क्या हर्ज है.’’

मुझेकुछ और पूछने का अवसर दिए बगैर वह कहती गई, ‘‘लेकिन मैं उन सब से घृणा करती हूं. उन का रुपया, पैसा, जेवर आदि मैं अपने भावी जीवन में कोई भी ऐसी चीज रखना नहीं चाहती जिस में मातापिता की स्मृति जुड़ती हो. मैं अपने साथ जेबखर्च से बचाए हुए 100 रुपयों के अलावा और कुछ ले कर नहीं आई. मैं ने राकेश से साफसाफ कह दिया था कि हम अपना आने वाला जीवन अपने हाथों अपने साधनों से बनाएंगे.’’

‘‘तुम्हारी यह बात क्या राकेश को अच्छी लगी थी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘शायद नहीं,’’ उस ने कुछ सोचा, थोड़ा ?िझकी, फिर बोली, ‘‘बल्कि वह जेवर तथा रुपया न लाने की बात पर काफी नाराज भी हुआ था.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या, वह दोनों आंखें मूंदे सोचता रहा. फिर मुझ से बोला, ‘अमला, जब तुम साथ हो तो सब कुछ अपनेआप ठीक हो जाएगा.’’’


‘‘कैसे ठीक हो जाएगा, तुम ने उस से साफसाफ पूछा नहीं. कहानी, उपन्यास तथा फिल्मों में सबकुछ अपनेआप ठीक हो जाता है, लेकिन वास्तविक जीवन में आदमी को अपने विवेक व अपने श्रम से सबकुछ ठीक करना पड़ता है.’’

‘‘आप समझते क्यों नहीं,’’ फिर कुछ रुक कर वह बोली, ‘‘मुझेउस पर पूरा विश्वास है.’’

‘‘फिर भी बेटी, मैं ने आज तक अविश्वासघात होते नहीं देखा. जब भी घात हुआ विश्वास के साथ ही हुआ है. और मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे साथ कुछ ऐसा हो.’’

टे्रन यमुना के पुल से गुजर रही थी. हमारे पास समय बहुत कम बचा था. रात के 1 बज कर 35 मिनट हो चुके थे.

मैं ने हिम्मत बटोर कर अमला से पूछा, ‘‘बेटी, मुझ पर भरोसा रख कर क्या मेरी एक बात मानोगी?’’

‘‘हांहां, कहिए?’’

‘‘आज रात तुम मेरे घर चलो. तुम्हारे राकेश को भी हम अपने साथ ले चलेंगे.’’

‘‘मगर?’’

‘‘अगरमगर मत करो, हां कह दो. आगे बढ़ कर हम लौट नहीं सकते परंतु तुम जहां हो, वहीं रुक जाओ. वहां तुम अपनी चाची के साथ सोना…’’

न जाने किस प्रेरणा से अमला मेरी बेटी संध्या की तरह मेरे प्रति आज्ञाकारिणी हो गई. बोली, ‘‘ठीक है, जब आप इतनी जिद कर रहे हैं तो आप की बात मान ही लेती हूं.’’

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के निकासद्वार पर राकेश अपने दोस्तों के साथ खड़ा था. लंबेतगड़े, छोटीछोटी खसखसी दाढ़ी तथा बारीक तराशे बालों वाले राकेश के दोस्त मुझेअजीब लगे. राकेश ने मुझेअनदेखा करते हुए कहा, ‘‘अमला, चलो टैक्सी में बैठो. हम होटल चलते हैं. पहले ही काफी देर हो चुकी है.’’

राकेश को अपना परिचयपत्र थमाते हुए मैं ने कहा, ‘‘अमला मेरे साथ जा रही है. कल तुम मेरे घर आना. बाकी की बातें वहीं करेंगे.’’

तीनों दाढ़ी वाले सफेदपोश मेरा रास्ता रोक कर लाललाल आंखों से मुझेघूर रहे थे. इसी बीच मेरा बेटा आ पहुंचा था. उन तीनों में से एक मुझ से बोला, ‘‘यह लड़की लखनऊ से दिल्ली आप के मकान में सोने के लिए नहीं आई है.’’


उन तीनों को देख कर अमला के होश उड़ते दिखाई दे रहे थे. वह दृढ़तापूर्वक बोली, ‘‘राकेश, मैं चाचाजी के घर ही रहूंगी. तुम कल मुझ से इन के यहां ही मिलना.’’

मुझेलगा कि कुछ दंगाफसाद होने वाला है और मेरा बेटा इस सब के लिए अपनेआप को तैयार कर रहा है. इसी बीच भागते हुए 2 सिपाही हमारे पास आए. मुझेकुछ कहने का अवसर दिए बिना अमला ने उन सिपाहियों से कहा, ‘‘कृपया हमें हमारे घर पहुंचने में मदद कीजिए. मैं नहीं जानती कि ये लोग कौन हैं और क्यों मेरा रास्ता रोक रहे हैं.’’

मैं ने भी उन्हें अपना परिचय दिया. वे हमें हमारी कार तक पहुंचा गए. न जाने क्यों राकेश इस दौरान मौन रहा.

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अगले दिन राकेश के दोस्तों के धमकीभरे फोन आने के बाद अमला को पूरी तरह एहसास हुआ कि वह अजगरों के मुंह में जाने से बालबाल बची है.

बाकी का काम मेरी पत्नी ने किया. उस ने अमला से कहा, ‘‘मेरी मुन्नी, आदमी का दुख दीपक की तरह होता है. वह खुद अपनेआप को पलपल जला कर दूसरों को प्रकाश देता रहता है. लौट जाओ अपने घर. स्वयं जल कर अपने घर को अपनी ज्योति से आलोकित कर दो.’’

‘‘लेकिन चाचीजी, मैं कैसे, किस मुंह से वापस जाऊं.’’

‘‘तुम्हारी वापसी, यानी कि पूरे मानसम्मान के साथ वापसी, हमारा काम है. जैसे भी हो, इसे हम करेंगे,’’ मेरी पत्नी उस की पीठ सहलाते हुए बोली, ‘‘जीना, जीते रहना जिंदगी की शर्त है. जब साथ चलने वाला कोई न मिले तो वीरानगी को अपना हमसफर बना लो. मेरी बेटी, तुम मंजिल तक जरूर पहुंच जाओगी.’’

अमला को मैं 4 दिनों बाद उस के घर वापस पहुंचा आया. उस के मातापिता को मैं ने टैलीफोन से पहले ही सबकुछ समझ दिया था.

पिछले 5 साल से उस के पत्र मेरे तथा मेरी पत्नी के नाम आते रहते हैं. अभी कल ही उस का पत्र मेरी पत्नी के पास आया है, ‘चाचीजी, मैं केंद्रीय सचिवालय की सेवाओं हेतु चुन ली गई हूं. जब तक कोई दूसरी व्यवस्था नहीं हो जाती, मैं आप लोगों के साथ ही रहूंगी.’


मेरी पत्नी मुसकरा कर मुझ से कहती है, ‘‘अब तक एक थी, अब हुक्म बजाने वाली एक और ?हो गई. चलूं, कमरा ठीक करूं. आखिर हुक्म तो हुक्म ही है.’’

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